जो व्यक्ति अपने आप का सम्मान करता है, वह दूसरों से सुरक्षित है, क्योंकि उसने एक ऐसा अभेद्य आवरण ओढ़ रखा है, जिसे कोई हानि नहीं पहुंचा सकता।
हर शिष्य का रक्त लाल है और हर शिष्य के आंसू खारे हैं। हर शिष्य को ऐसा मार्ग अवश्य ही खोजना चाहिये, जिससे उसके सम्मान की रक्षा और अनन्त सम्भावनाओं की पूर्ण प्राप्ति हो सके।
आत्म मुक्ति से जो आनन्द प्राप्त होता है, वही सच्चा अखण्ड आनन्द है। यह आनन्द कभी नष्ट नहीं होता, इसी आनन्द की प्राप्ति की सदैव आकांक्षा करनी चाहिये।
अतीत का पीछा न करो और भविष्य के भ्रम जाल में न फ़ंसो। अतीत व्यतीत हो गया है और भविष्य अभी अनागत है। यहां अभी इस क्षण जीवन जैसा है, उसी को धारण करो। साधनाभ्यासी शिष्य स्थिरता और मुक्त भाव से जीता है।
जो अपने धन को ज्ञान प्राप्ति में लगा देता है, वह धन सुरक्षित हो जाता है, उससे यह ज्ञान धन कोई नहीं छीन सकता। ज्ञान प्राप्ति में किया गया यह निवेश फ़ल देता ही रहता है।
यदि हम गन्दे वस्त्रों और गन्दी वस्तुओं से घृणा कर सकते हैं, तो निश्चय ही हमें गन्दे विचारों और गन्दे सिद्धान्तों से घृणा करनी ही चाहिये।
जीवन में चार सत्य हैं – दुःख की स्थिति, दुःख का कारण, दुःख का नाश और दुःख नाश करने का मार्ग। इन पर निरन्तर विचार करते ही रहना चाहिये।
‘शिष्य धर्म’ का अर्थ है ‘वृक्ष की जड़ के समान कार्य करना’ अर्थात् वृक्ष को स्थायित्व देना, विकास करना और उसे स्थिर रखना। शिष्य ही आधार शक्ति है।
वास्तविकता को केवल शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है। आम का स्वाद, उसे चख कर ही जाना जा सकता है। साधना द्वारा विकसित ज्ञान से ही परम सत्य का साक्षात्कार सम्भव है।
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