मुझे अत्यधिक वेदना होती है जब तुम हमेशा एक निद्रा की सी अवस्था में खोये रहते हो, तुम भ्रम में पड़े रहते हो तथा वे भ्रम तुम्हें अपने मूल लक्ष्य की ओर बढ़ने से रोकते रहते हैं। मानव जीवन पाकर भी आप खोये हुये हैं तो यह आपका दुर्भाग्य ही है।
अगर ऐसा है तो तुम मेरे शिष्य हो भी नहीं सकते, क्योंकि अगर आप मेरे शिष्य हैं तो आपमें वह क्षमता होनी चाहिये कि आप पशुता से ऊपर उठकर मनुष्यता तथा मनुष्यता से भी ऊपर उठकर देवता के स्थान पर पहुंच पायें।
शिष्य वही है जो भौतिकता को भोगे, परंतु अपने मूल उद्देश्य से न डगमगाये। उसकी दृष्टि हमेशा अपने लक्ष्य पर टिकी रहे। मेरी इच्छा है कि तुम्हें उस उच्चतम स्थिति पर स्थापित कर दूं जहां भारत क्या, पूरे विश्व में तुम्हें चैलेंज करने वाला कोई न हो।
मैं तुम्हारी सभी कमियों को ओढ़ने को तैयार हूं, मैं तुम्हारे विष रूपी कर्मों को पचाने के लिये तैयार हूं क्योंकि तुम मेरे प्रिय हो। तुम मेरे आत्म हो, तुम मेरे अपने हो, तुम मेरे हृदय की धड़कन हो।
दूसरों की तरह केवल धन, वैभव, काम, ऐश्वर्य में फ़ंसे हो तो क्या यह उचित है? मैंने तो हमेशा आपको संपन्न देखना चाहा है परंतु आत्म उत्थान की बलि देकर सम्पन्नता प्राप्त करना मेरा उद्देश्य नहीं, अगर तुम संपन्नता प्राप्त कर भी लो और आपकी आध्यात्मिक झोली फ़टी रह जाये तो सब व्यर्थ है।
मैं तुम्हें आध्यात्मिक धारातल पर उच्चता एवं श्रेष्ठता की स्थिति तक पहुंचाना चाहता हूं, मैं चाहता हूं कि फि़र तुम जैसा दूसरा कोई अन्य न हो, तुम हो तो केवल तुम हो।
परंतु यह स्थिति तभी प्राप्त हो पायेगी जब तुम पूर्ण समर्पण कर दोगे, मुझमें पूर्ण रूप से एकाकार हो सकोगे, जब तुम्हारे और मेरे बीच थोड़ी भी दूरी नहीं रहेगी, जब तुम्हारे कण-कण में गुरू का वास होगा, जब तुम्हारी हर श्वास में उसी का उच्चारण होगा।
और यह स्थिति प्राप्त करने का सरलतम उपाय है गुरू मंत्र। निरंतर गुरू मंत्र जप द्वारा उस स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं जबकि गुरू और शिष्य में इंच मात्र की भी दूरी नहीं रहती। ऐसा तुम कर पाओ यही मेरी कामना है।
तुम बगुले मत बनो, हो सकता है तुम्हारे आस-पास बगुले खड़े हों पर तुम राज हंस बनो तभी मेरी विशेषता हो पायेगी तभी मेरा गुरूत्व हो पायेगा।
इस ढंग से कोई हीरे नहीं लुटाता जिस ढंग से मैं ज्ञान आप पर लुटा रहा हूं। यह आपका सौभाग्य है, कि मैं आपको उस जगह तक ले जाना चाहता हूं, कि पूरे विश्व में आप विजयी हों, आप सफ़लता युक्त बन सकें।
गुरू वह है, जो अपना सब कुछ शिष्यों पर न्यौछावर कर दे, ज्ञान दे, चेतना दे, पूर्णता दे, सफ़लता दे, श्रेष्ठता दे, झकझोर कर दे, सीना पकड़ कर दे, ठोकर मार कर दे़—मगर दे, उसको गुरू कहते हैं।
युग धर्म के अनुसार गुरू और शिष्य को परिवर्तित होना पड़ता है। आज कृष्ण स्वयं साक्षात् भी आ जायें, मुरली हाथ में लेकर के, मोर मुकुट पहन करके, पीताम्बर पहन करके और कहें-‘मैं कृष्ण हूं, तो आप जोर से हंस देंगे, कि ‘बहरूपिया तो बहुत अच्छा है! तुम कृष्ण हो? हमें मूर्ख मत बनाओ!’
प्रत्येक युग में प्रत्येक देश में ऐसा क्षण आया हैं, कि जब देश भटका है और उस समय यदि वह ज्ञान का, चेतना का रास्ता कोई बताता है, तो गुरू के शिष्य बताते हैं। और अब आप शिष्य नहीं रहे, अपितु उस स्टेज पर हैं, जहां से आप छलांग लगा सकते हैं। आप देश को मार्गदर्शन तब दे सकते हैं जब आपमें चेतना, उमंग, जोश, जवानी हो, एक उत्सर्ग करने की भावना हो, गुरू में अपने आपको समाहित करने की क्षमता हो।
अमरीका वापस ‘ध्यान’ की ओर संलग्न हो रहा है, क्योंकि विनाश का भयावह स्वरूप उन्होंने देख लिया है। सृष्टि को बचाना ही है और पूरा पश्चिम भारतवर्ष की ओर ताकेगा— और अगर भारतवर्ष ताकेगा तो फि़र केवल आपकी ओर ही ताकेगा क्योंकि आपके पास ही वह ज्ञान होगा, चेतना होगी।
प्रेम जीवन का अद्वितीय वरदान है और मैंने तुम्हारे होठों को गुनगुनाहट देकर तुम्हारे जीवन में वसन्त का आगमन किया है।
तुम प्रेषण बनो, मेरे संदेश को एक-दूसरे से कहो, जिससे यह दिव्य संदेश पूरे विश्व में फ़ैल जाये।
तुममें से प्रत्येक शिष्य सीधा मुझसे जुड़ा हुआ है, जो मेरी उपस्थिति का साक्षीभूत स्वरूप है।
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