कुण्डलिनी जागरण होने पर स्वतः ही साधक के हृदय में गुरू के प्रति स्नेह तथा आदर उमड़ पडता है, उसकी प्रत्येक क्षण यही इच्छा रहती है, कि वह जल्दी से जल्दी गुरू चरणों में पहुंच जाये, उसके चरणों में बैठे, उससे बात करें, लिपट जाय, उसे अपने शरीर में समाहित कर लें।
शक्तिपात तो तीव्र और आमूलचूल परिवर्तन की प्रक्रिया है, जो एक ही झटके में साधक की कुण्डलिनी को मूलाधार से उठा कर सहस्त्रार तक पहुंचा देता है, और उस साधक को सिद्धों और योगियों के दर्शन होने लगते है, सिद्धाश्रम की दिव्य प्राण वायु को वह अपने अन्दर समाहित करने लगता है।
पर इसके लिये भी सेवा का आधार जरूरी है, सेवा का तात्पर्य है, किसी के प्रति अपने आपको समर्पित कर देना, अपने अस्तित्व को पूरी तरह से मिटा देना, अपने आपको सामने वाले में निमग्न कर देना, एकाकार कर देना, यह स्थिति भी प्रयत्न से ही सम्भव है।
जब जीवन की श्रेष्ठ स्थिति आती है, तभी कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है, यह तो जीवन का सर्वोच्च आनन्द है, इसका आनन्द और अनुभूति तो वही अनुभव कर सकता है, जो इस स्थिति को प्राप्त कर पाता है हिमालय की ‘एवरेस्ट’ चोटी पर पहुंचने पर जो आनन्द की अनुभूति होती है, उसकी अनुभूति तो वही कर सकेगा जो वहां पहुंच सकेगा। व्यक्ति अपने संस्कारों से बंधा हुआ है उसमें सद्वृत्तियों और असद्वृत्तियों का संघर्ष बराबर चलता रहता है जिन लोंगो के हृदय पर असद्वृत्तियों का प्रभाव ज्यादा होता है, वे बुद्धि से पत्थर की तरह सख्त होते है, भावनात्मक मात्रा उनमें कम होती है।
जबकि कुण्डलिनी जागरण में सद्वृत्तियों का विकास प्रारम्भिक बिन्दु है, जब हृदय में बुद्धि के स्थान भावना का विशेष उद्रेक होता है, और गुरू से तादात्म्य स्थापित होने लगता है, ऐसी स्थिति में उसे शक्तिपात का ज्यादा प्रभाव स्वीकार्य होता है।
मेरे गले में पड़े हुए पुष्पों के हार की प्रत्येक पंखुड़ी शिष्यों और साधकों से बनी है, और जिस प्रकार यह परस्पर गुंथी हुई पुष्पों की पंखुडि़यां सुन्दर मुस्कुराहट के साथ नृत्य कर रही है, उसी प्रकार समस्त शिष्य वर्ग भी एक सूत्र में आबद्ध होकर पूरी पृथ्वी से दुःख, दैन्य और न्यूनता समाप्त कर सकते हैं।
तुम्हें कुछ भी करने की जरूरत नहीं है, मैं तुम्हारे जीवन का रखवाला, बराबर चौकसी कर रहा हूं, और तुम्हें निश्चय ही साधना की पूर्णता तक पहुंचा दूंगा, तुम अपनी सारी समस्याएं, मुझे दे दो, मैं अपने आप उनसे निपट लूंगा, क्योंकि मुझे समस्याएं और चिन्ताएं अनुभव नहीं होती।
तुम्हें तो पूरी तरह से झुकने की जरूरत है, समर्पित होने की आवश्यकता है, और जब एक बार तुम गुरू चरणों में समर्पित हो जाओगे तो वापिस उठते समय सारी सिद्धियां स्वतः तुम्हारे शरीर में मौजूद होंगी।
तुम्हें बार-बार जन्म लेने की आवश्यकता नहीं है, बार-बार इस पवित्र देह को मलिन और दोष युक्त बनाने की जरूरत नहीं है, जब जिन्दगी के मोड़ पर जाग्रत और चैतन्य गुरू मिल जाय तो तुम्हें पहिचानने की क्षमता आनी चाहिए, और उस समय तुम्हारा कर्तव्य और कार्य इतना ही है, कि तुम आगे बढ़कर गुरूदेव के पांव पकड़ लो।
मैने तुम्हारा हाथ पकड़ा है और निश्चित है, कि मैं तुम्हें मुक्ति के उस द्वार पर पहुंचा दूंगा जहां तुम्हारा लक्ष्य है, सिद्धाश्रम के उस सिद्ध योगा झील के किनारे खड़ा करने में समर्थ हो सकूंगा जहां सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है।
ये चेतना, ये ज्ञान पूरे आर्यावर्त में व्याप्त करना चाहिये हमे, हमें एहसास करना चाहिये, शेर की तरह अगर एक पांव आगे बढ़ायेंगे तो हाथी अपने आप हिल जाएगा, पहाड़ रास्ते से अपने आप हट जायेगा और ऊनती नदी भी रास्ता छोड़ देगी— बस एक पैर आगे बढ़ाने की जरूरत है।
कभी कोई क्षण ऐसा आये, जब आपकी आंख भीगे, कभी ऐसा क्षण आये जब गुरुदेव शब्द सुनते ही तुम्हारा हृदय गद्गद् हो जाय, कभी ऐसा क्षण आये जब आप रह ही न सकें, गुरु आपके पास से जायें और आप रूक जायें, आपके हाथ रूक जायें, आपका शरीर रूक जाये तो आप शिष्य क्या हुये? तो आपमें पात्रता क्या हुई—- मैं गुरुदेव को देखूं और उनके पीछे एक मील दौड़ता हुआ उनके चरणों से न लिपट जाऊं तो मेरी शिष्यता क्या चीज है?— फि़र ऐसा शिष्य होना धिक्कार है, ऐसा शिष्य मैं तुम्हें नहीं बनाना चाहता।
मैं आप सब का पिता हूं, आपकी मां हूं बहन हूं आपका रखवाला हूं और रहूंगा, कही भी मन में हिचकिचाहट लाने की जरूरत नहीं, कोई भी चिंता करने की जरूरत नहीं है।
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