प्रत्येक मनुष्य में एक चुम्बकीय शक्ति होती है और इस शरीर को पवित्र बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम देह तत्व से प्राण तत्व में चले। जब प्राण तत्व में जायेंगे, तो फिर देह तत्व का भान रहेगा ही नहीं, फिर जीवन में सारे क्रियाकलाप तो होंगे, मगर फिर मल-मूत्र की त्याग की जरूरत नहीं रहेगी, फिर भोजन और प्यास की जरूरत नहीं रहेगी, फिर शून्य सिद्धि आसन लगा सकेंगे, फिर शरीर से सुगन्ध प्रवाहित हो सकेगी और एहसास हो सकेगा, कि आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं।
आप ही अहम् ब्रह्मास्मि स्वरूप है। यह सब क्रिया सहस्त्र नाड़ी विखंडन को आत्मसात करने से ही सम्भव हो पाता है। जिस दिन कुण्डलिनी जाग्रत होती है, उसी दिन तीव्रतम स्नायु विखण्डन होता है। प्राण तत्व में जाकर आपमें चेतना उत्पन्न हो सकेगी, अन्दर एक क्रियमाण पैदा हो सकेगा, सारे वेद, सारे उपनिषद् कंठस्थ हो पायेगे। जीवन में सहस्त्र नाड़ी विखंडन क्रिया को देवता भी आत्मसात कर इस पृथ्वी लोक पर जन्म लेने के लिए तरसते हैं। राम के रूप में जन्म लेते हैं, कृष्ण के रूप में जन्म लेते हैं, बुद्ध के रूप में जन्म लेते हैं।
साधक जो कार्य करता है, एक प्रकार से अंधेरे में हाथ पांव मारने के समान है। शिष्य वह है, जो कार्य, मन, वाणी और धन से गुरु में लीन होकर, गुरु में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाता है, ईष्या, द्वेष वैमनस्यता, शत्रुबाधा, ज्ञान-अभिमान से परे हो जाता है। जब ऐसा होने लगता है, तब उसके अन्दर सद्गुरु तत्व शाश्वत चैतन्य हो जाता है। जिससे प्राण विखंडन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है।
कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया सद्गुरूदेव द्वारा प्रदत शक्तिपात दीक्षा प्राप्त करने से शुरू हो जाती है, परन्तु इसका बोध दीक्षा समाप्त होते ही किसी चमत्कार की भांति नहीं हो जाता, अपितु कुण्डलिनी जागरण या किसी एक चक्र का भेदन एकाएक अकस्मात हो जाता है। ऐसा हो सकता है, कुण्डलिनी जागरण दीक्षा सम्पन्न की हो और प्राण विखण्डन का अनुभव कुछ माह बाद अचानक ही भोजन करते समय या प्रातः गुरु पूजन करते समय हो जाए। दीक्षा सम्पन्न करने के उपरान्त कुण्डलिनी शक्ति गतिशील हो जाती है, और प्राण विखण्डन का निरन्तर प्रयास करती रहती है।
जिस समय व्यक्ति के संस्कार और मनोवृत्तियां क्षीण पड़ती है, उसी क्षण कुण्डलिनी शक्ति हावी होकर नाड़ी विखण्डन करने में सक्षम हो जाती है। इस क्रिया से एक क्षण में ही कि सोया हुआ भाग्य करवट बदलकर एकदम से उठ बैठता है और व्यक्ति के जीवन में विविध रंग बिखरने लगते हैं। शिष्य और साधक स्वयं अनुभव करने लगता है कि वह पूरे ब्रह्माण्ड में विचरण कर सकता है और अपने आप को ब्रह्माण्ड में उतारने की क्रिया, सद्गुरु की चैतन्यता, जीवन की पूर्णता को श्रेष्ठ रूप से जीने की कला का ज्ञान हो जाता है, इन्हीं सब का नाम सहस्त्र नाड़ी प्राण विखंडन दीक्षा है।
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