मृत आत्मा के अस्तित्व और स्वरूप को समझने से पूर्व यह ज्ञान लेना आवश्यक है, कि मात्र उतना ही वास्तविक सत्य नहीं होता जितना कि गोचर जगत में हमें दिखाई या सुनाई पड़ता है। चर्मचक्षु और कानों से जाना जाने वाला यह गोचर जगत तो सम्पूर्ण सृष्टि का एक छोटा सा हिस्सा भर ही है। वस्तुतः इससे परे भी सृष्टि है, जिसका आभास मानव नेत्र और कर्ण से परे की बात है।
पाश्चात्य विद्वान ब्लास्की, मैडम जीन, कर्नल आंत और भारतीय मनीषी स्वामी विवेकानन्द, योगिराज परमहंस स्वामी निखिलेशवरानन्द जी आदि ने यह सिद्ध किया है कि इस सृष्टि से परे भी कई लोक हैं। भारतीय दर्शन में इन्हें भू-लोक, भुवःलोक आदि नामों से पुकारा जाता है। कई लोगों ने इन लोकों को देखा है और ग्रंथों में उल्लेख भी किया है। डब्ल्यु बीटर की अदर साइड आफॅ डेथ तथा श्रीमति एनी बेसेन्ट की लाइफ आपटर डेथ आदि ग्रंथ इसके उदाहरण हैं।
स्थूल से भी परे सूक्ष्मतर हम जो कुछ देख या सुन पाते हैं उसे स्थूल की संज्ञा दी जाती है। इस स्थूल शरीर के भी परे सात अन्य शरीर होते हैं, जो क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मनर होते जाते हैं। इस शरीरों को योगादि ग्रंथो में इच्छा शरीर, भावना शरीर या सूक्ष्म शरीर के नाम से सम्बोधित किया गया है। मृत्यु के समय ज्यों ही हमारा भौतिक शरीर समाप्त हो जाता है, इसका विखण्डन हो जाता है। ऐसा होते ही इच्छा शरीर स्वतः ही सक्रिय हो जाता है और अपनी गति से कार्य करने लग जाता है। इस इच्छा शरीर का भी विखण्डन होता है और इससे भी सूक्ष्म शरीर क्रियाशील हो जाता है।
इस प्रकार जो लौकिक मृत्यु होती है, वह केवल इस शरीर के बाह्यकार की होती है। उसकी मूल आत्मा की मृत्यु नहीं होती। आत्मा इससे सूक्ष्म शरीर में जाकर क्रियाशील हो जाती है। ‘सूक्ष्म शरीर’ भौतिक शरीर का ही सूक्ष्म रूप है अतः उसमें भी इच्छायें, आकांक्षायें, भावनायें बराबर जीवित रहती हैं। सूक्ष्म शरीर इन इच्छाओं आकांक्षाओं की पूर्ति में निरन्तर प्रयासरत व व्यग्र रहता है।
मानव शरीर इच्छाओं की पूर्ति हेतु प्रयत्न कर सकता है, परन्तु सूक्ष्म शरीर में यह क्षमता नहीं होती है। सूक्ष्म शरीर में स्थित आत्मायें इसी संसार के आस-पास भटकती रहती हैं और प्रयत्न में रहती हैं कि कोई मानव शरीर मिल सकें जिससे वे अपनी इच्छायें पूर्ण कर सकें। भोग अथवा लालसा के कारण आत्मा की मुक्ति नहीं हो पाती है और इसी कारण जब तक कोई नया शरीर न मिले तब तक भटकते रहना एक प्रकार से उसकी विवशता होती है। परन्तु कई बार आत्मा की मुक्ति अपने पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति न होने के कारण भी नहीं हो पाती है। ऐसे कई कारण हो सकते हैं, जैसे उसने अपनी वसीयत कहीं गुप्त रूप से रख दी हो, अथवा धन का संचय कर कहीं छिपा दिया हो और अपने परिवार जनों को देना चाहता हो।
ये भी हो सकता है कि परिवार जनों के ऊपर कोई विपत्ति आने वाली हो, अथवा पुत्री का विवाह जहां तय किया जा रहा हो वह परिवार ठीक न हो आदि बातों को वह आत्मा जब तक अपने परिवार जनों से नहीं कह देती तब तक वह एक दबाव में रहती है, उसकी मुक्ति नहीं हो पाती।
यह प्रश्न अत्यन्त जटिल एवं प्राचीन काल से प्रायः अनुत्तरित चला आ रहा हे। इसके विषय में तरह-तरह के विचार लोगों द्वारा दिये जाते हैं, लोग मृत्यु को भयावह समझते हैं और यह माना गया है, कि मृत्यु के समय व्यक्ति जो विचार रखता है, उसी के अनुसार उसकी जीवात्मा का संक्रमण होता है। पुराणों के अनुसार जब व्यक्ति मर जाता है, तो उसकी आत्मा अतिवाहिक शरीर धारण कर लेती है, जिसमें केवल तीन तत्व अग्नि, वायु एवं आकाश ही शेष बचे रहते हैं जो शरीर के ऊपर उठ जाते हैं और पृथ्वी, जल नीचे रह जाते हैं।
हिन्दू धर्म में मनुष्य शरीर के प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान का विस्तृत विवेचन मिलता है कि किस प्रकार मनुष्य अपने जीवन में इन पंच प्राणों में यात्र करता है और इसमें सबसे ऊपर स्थित प्राण में आत्मा का निवास माना गया है। इसी प्रकार मनुष्य लोक अर्थात् भूलोक से ऊपर छः और लोक हैं। इस प्रकार कुल सात लोकों से यह वायुमण्डल बना हुआ। प्रथम लोक भूलोक, द्वितीय लोक भुवः लोक, तृतीय स्वः लोक, चतुर्थ मह लोक, पंचम जन लोक, षष्ठम् तप लोक और सप्त्म लोक सत्य लोक है। इन सात लोकों में मनुष्य की आत्मा अपने जीवन में किये गये कर्मों के आधार पर स्थित हो जाती है।
जब व्यक्ति अपने अंतिम समय में होता है, तो एक क्षण ऐसा आता है जब वह तंद्रा में चला जाता है और चित्रगुप्त के द्वारा उसके जीवन का सारा लेखा-जोखा उसकी आंखों के सामने चलचित्र की भांति तैर जाता है। चित्रगुप्त यानि वे घटनायें भी, जो उसके सिवा किसी और को नहीं पता होती हैं, उसकी गोपनीय से गोपनीय बात भी चित्र रूप में स्पष्ट हो जाती है। और इन विभिन्न कर्मों में से ही अगले जीवन के लिये कर्म चयन होता है।
अंत समय में जैसे विचार एवं चिंतन होते हैं, उसी हिसाब से व्यक्ति का पुनर्जन्म होता है। जब व्यक्ति विभिन्न इच्छाओं के साथ मरता है, तो कुछ देर तो उसे विश्वास ही नहीं होता, कि वह मर गया है। उसकी देह उसके समक्ष होती है और वह अचम्भित सा देखता रहता है, क्योंकि उसकी कई अपूर्ण इच्छायें होती हैं। जिनकी पूर्ति लिये उसे भौतिक शरीर की आवश्यकता होती है, इसलिये वह अपनी देह के आस पास ही मंडराता रहता है और जब देह जला दी जाती है, तो हताश होकर इच्छाओं की पूर्ति हेतु भटकता रहता है।
अब या ऐसे समय में कोई सशक्त मार्गदर्शक हो, जो उस आत्मा का मार्ग दर्शन कर उसे आगे की ओर बढ़ायें या फिर आप उसके प्रिय होने के नाते अपने आत्मीय के लिये कुछ ऐसा करें, कि उसका सही मार्गदर्शन हो सके और वह आगे के कर्मों में प्रवेश करें।
आत्मायें भौतिक सामग्री नहीं खा सकतीं, वे तो मात्र उनकी गंध ग्रहण करती हैं, ठीक उसी प्रकार वे आपकी बातों को सुन कर अच्छी या बुरी तरंगे ग्रहण कर सकती हैं। अतः आपको चाहिये, कि अपने दिवंगत प्रिय के नाम का संकल्प लेकर, उसके लिये ऐसी दिव्य साधना सम्पन्न करें, जिसके मंत्रों की तेजस्वी तरंगे उसे सीधी प्राप्त हो सकें। उसका सही मार्ग दर्शन हो सके। वह इधर-उधर न भटके और जल्दी से जल्दी अपनी इच्छा के अनुरूप किसी योनि में जन्म ले सके।
पितरों के लिये पूजन या साधना सम्पन्न करने के दो मुख्य लाभ हैं- प्रथम आपके पूर्वज या पितृ के कारण ही आप को यह भौतिक शरीर की प्राप्ति हुई है, यह मानव देह प्राप्त हुई है, यह आपके ऊपर उनका ऋण है, पितृ ऋण है और अगर आप साधना के माध्यम से उनके पुनर्जन्म का मार्ग प्रशस्त करते हैं, तो इस ऋण से और पितृ कोप से बच जाते हैं और अपने आप में हल्का और सुखी होगें।
दूसरा जब तक पितृ का पुनर्जन्म नहीं होता, उसका सही मार्गदर्शन नहीं होता तब तक उनकी इच्छायें अतृप्त रहती हैं। इस दशा में उसे देह की तलाश रहती है, जिसकी मदद से वह अपनी अतृप्त इच्छाओं को भोग सकें, चूंकि उसी के संस्कार आपके शरीर में हैं, अतः वह आत्मा अपने द्वेष, क्रोध, काम, मोह आदि को आसानी से (अपनी विभिन्न कामनायें) आप पर प्रक्षेपित करते हैं, जिसके फलस्वरूप आलस्य, प्रमाद, काम, क्रोध, व्यसन, लालच की मात्रा बढ़ जाती है और आप समझ नहीं पाते कि यह क्या हो रहा है? परन्तु आप साधना द्वारा नवीन जन्म दिलवा दें, तो अपनी इच्छायें पूरी करने के लिये उसे देह मिल जायेगी, वह पूर्व कर्मों को भूलकर नये संस्कारों के अनुसार जीवन जीने लगेगा और आप भी उनके कुप्रभावों से मुक्त हो जायेंगे।
इसके अलावा नवीन देह देने के लिये आपके पूर्वज जो आपको आशीर्वाद देंगे, वह तो अपने आप में ही अनिवर्चनीय होगा, क्योंकि तब आप सही मायने में दिनों-दिन प्रगति कि ओर अग्रसर हो सकेंगे और जीवन की सभी कठिन परिस्थतियों में विजयी होकर श्रेष्ठता, धन, वैभव एवं सफलता प्राप्त कर सकेंगे।
यह साधना श्राद्ध पक्ष में किसी भी दिन प्रातः काल सम्पन्न करें। यह एक दिवसीय साधना है, और इसमें ‘पितृ मुक्ति यंत्र’ एवं प्रायण तर्पण गुटिका की आवश्यकता होती है। साधक ब्रह्म मुहूर्त में उठे और सफेद धोती पहन कर दक्षिणाभिमुख हो सफेद आसन पर बैठ जाये।
साधक को चाहिये, कि अपने सामने सफेद वस्त्र पर पितृ मुक्ति यंत्र स्थापित करें, उसके चारों ओर दिव्य माला को रखे। कुंकुंम से पितृ या पितरों का नाम या दिवंगत व्यक्ति का नाम यंत्र पर लिखें। अगर साधना सभी पितरों लिये कर रहें हो, तो सर्व पितृ लिखे।
यंत्र और माला का पूजन पितरों का आवाहन करते हुये करें, यंत्र पर प्रायण गुटिका स्थापित करें और उसका भी पूजन करें। दिव्य माला से निम्न मंत्र की 21 माला जप करें।
साधना से पूर्व संकल्प में पितृ या पितरों के नाम अवश्य लें और यंत्र पर भी नाम अंकित करें। साधना समाप्ति के उपरान्त दक्षिण दिशा में किसी निर्जन स्थान पर गड्डा खोद कर यंत्र माला एवं गुटिका दबा दें। कच्ची भोजन सामग्री अपने घर के पास किसी पंडित को प्रेमपूर्वक दान करें।
सामान्यतः सभी लोग यह जानते हैं कि व्यक्ति के जीवन में चार प्रकार के ऋण होते हैं। प्रत्येक ऋण का जीवन में व्यापक प्रभाव होता है। लेकिन जीवन जिस ऋण से सबसे अत्यधिक प्रभावित होता है वह पितृ ऋण ही है। क्योंकि जो हमारे अपने होते हैं वे मृत्यु के बाद अत्यधिक प्रेत योनि में ही जाते हैं, बहुत कम ही ऐसा होता है कि उन्हें समय से पुनः जन्म मिल जाये, प्रेत योनि अत्यन्त कष्टदायक और भयावह होती है। इन जीवात्मओं का जन्म ना होने तक निरन्तर घोर पीड़ाओं और कष्ट को सहन करना पड़ता है। इससे क्षुब्धा होकर वो अपने पिता, पुत्र, पोतों, भाईयों से मुक्ति की आकांक्षा रखते हैं, चूंकि यह जीवन हमें उनसे ही प्राप्त हुआ है इसी उपकार के बदले वो हमसे मुक्ति की अपेक्षा रखते हैं।
जिसकी पूर्ति ना होने पर उनकी नकारात्मक शक्ति स्वतः ही हमारे जीवन को पूर्ण रूप से बाधित करती है। इसलिये प्रत्येक के लिये आवश्यक है कि वह श्राद्ध पक्ष में पितृ मुक्ति साधना, दीक्षा, पूजादि सम्पन्न कर पितृ ऋण से मुक्त होकर तनाव, क्लेश-कलह, बाधा, परेशानी रहित जीवन व्यतीत करे।
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