शिष्य को समाज की आलोचनाओं , व्यंग, प्रहारों को भी झेलता हुआ अपने ज्ञान के प्रसार में रत संकल्पित रहना चाहिये। यह शिष्य का परम धर्म है कि वह एक ढाल की तरह गुरू के सामने खडा हो जाये जिससे कोई भी प्रहार उनको हानि न पहुंचा सके।
गुरू एक जीवित जाग्रत मंदिर है, वह सभी मंदिरों से श्रेष्ठ है। शिष्य उस मंदिर के पुजारी के समान है। यह शिष्य का कर्तव्य है कि वह उस सजीव मंदिर को उस अद्वितीय देवालय को सुरक्षित रखे।
शिष्य का कर्तव्य है कि समाज की ओर से और गुरू के आलोचकों की ओर से कोई भी प्रहार उन तक न पहुंचने दे जिससे कि जिस उद्देश्य से सद्गुरू इस पृथ्वी पर अवतरित हुये हैं उसको वे पूरा कर सकें और निर्बाध रूप से ऐसा कर सकें।
शिष्य जब ऐसा करने का संकल्प लेता है तब भी गुरू की शक्ति होती है जो उसे सभी प्रहारों को झेलने की क्षमता देती है। वह तो केवल एक माध्यम मात्र होता है। इसलिये उसे गुरू के लिये सभी कार्य अहं रहित भावना से करनी चाहिये।
यों जब शिष्य पूर्ण रूप से सद्गुरू से एकाकार हो जाता है तो गुरू और उसमें कोई भेद ही नहीं रहता। ऐसा होने पर शिष्य गुरू के हाथ, पांव, आंखें मस्तिष्क बन जाता है और जितने अधिक सच्चे शिष्य गुरू के होते हैं, उतने ही गुरू के हाथ, पांव आंखे होती हैं। तब वह और अपने कार्य को अधिक श्रेष्ठता से सम्पन्न कर पाता है।
शिष्य का कर्तव्य है कि वह गुरू से इतना एकाकार हो जाये कि गुरू को आवश्यकता ही नहीं रहें उसे आज्ञा देने की। वह स्वयं ही गुरू के भाव को समझ ले तथा कहने से पहले ही आवश्यक कार्य को पूर्ण कर दे।
और अधिक से अधिक गुरू सेवा करते हुये भी शिष्य के मन में तनिक भी अहंकार न उपजे कि यह कार्य मैं कर रहा हूं। उसे सदैव यही भान रहे कि गुरू की शक्ति ही उसे संचालित एवं निर्देशित कर रही है।
गुरू के चित्र लगाना भजन गाना, गुरू के नारे लगाना, पूर्ण समर्पण नहीं है, ये गुरू के प्रति शिष्य की भावना के चिन्ह मात्र है। वास्तविक गुरू पूजन तो है गुरू द्वारा बताया गया ज्ञान को जीवित जाग्रत रखना, गुरू द्वारा बताये मार्ग पर चलना ।
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