शिष्य वह है जिसका नाम गुरू के हृदय पर अंकित हो जाता है और यह होता है व्यक्ति के कार्यों से, उसकी भावना से, शिष्य को सदैव तत्पर रहना चाहिये कि गुरू के कहने से पूर्व ही वह उसकी इच्छा को समझ ले तथा उसके अनुरूप कार्य करे।
शिष्य कुछ भी करे उसकी यही भावना रहे कि गुरू ही उससे कार्य करवा रहें हैं तथा वह गुरू की इच्छा एवं प्रेरणा से ही संचालित है। जब शिष्य अहंकार रिक्त हो कर कार्य करेगा तो उसके प्रयास स्वयं पूर्णता की ओर अग्रसर होंगे।
गुरू कोई देह नहीं, वह तो चेतना स्वरूप है। यह शिष्य सदैव याद रखे और चेतना कभी समाप्त नहीं होती, देह भले ही समाप्त हो जायें। चेतना किसी न किसी स्वरूप में विद्यमान रहती ही है। कहीं अवस्थित रहती ही है। उसी चेतना से एक रस होना शिष्य का धर्म और कर्त्तव्य है।
शिष्य को सदा स्मरण रहे कि वह परम स्वरूप चेतना जिसे हम सद्गुरूदेव कहते हैं वह अखंड है, निष्कलंक है, सर्वव्याप्त है तभी वह इतने करोड़ों शिष्यों पर एक साथ दृष्टि हमेशा रहती है तो फि़र वह जीवन में कुछ गलत कर ही नहीं पाता। सद्गुरूदेव की सूक्ष्म चेतना उसे फि़र हमेशा मार्ग दर्शित करती रहती है।
शिष्य को कुछ अलौकिक, दैनिक अनुभव कराने हेतु गुरू उसे साधना प्रदान करता है। परंतु एक दो साधना सिद्ध करके स्वयं को गुरू मान बैठना मूर्खता हैं सद्गुरूदेव स्वयं सभी साधनाओं के स्रोत हैं, सभी देवी-देवता उन्हीं की इच्छा से कार्य करते हैं, यह शिष्य स्मरण रखें। वह हमेशा याद रखें कि जो कुछ दिव्यता उसे प्राप्त होगी वह सद्गुरूदेव की कृपा से ही प्राप्त होगी।
सद्गुरूदेव क्षण में सब प्रदान कर सकते हैं। इसीलिये शिष्य साधना के प्रारंभ और अंत में गुरू मंत्र जप एवं ध्यान अवश्य करें, इस भावना के साथ कि हे गुरूदेव यह साधना आपको ही समर्पित है तथा आप ही हममें पूर्णता दिलाने में समर्थ है।
जीवन की सबसे बडी साधना है हर क्षण सद्गुरूदेव को स्मरण रखना तथा अपना प्रत्येक कर्म उनको समर्पित करना। जब शिष्य हर कर्म इस भावना से करता है कि सद्गुरूदेव ही उसे निर्देशित कर रहे हैं तो फि़र उससे जीवन में कोई गलत कार्य हो ही नहीं सकता।
जहां अन्य देवी-देवता वरदान एवं सिद्धियां प्रदान करने में समर्थ हैं, वहीं सद्गुरूदेव कर्मगत दोषों को भी समाप्त करने में सक्षम हैं। इसीलिये शिष्य सद्गुरूदेव को ही अपना इष्ट मानता है तथा उनकी पूजा अर्चना करता है।
गुरू तो स्वयं शिव हैं, यही भाव लेकर अगर शिष्य चलता है तो एक दिन स्वयं शिवतत्व उसमें समाहित हो जाता है। गुरू का यही उद्देश्य है कि शिष्य को शिवत्व प्रदान करें। इसलिये इसी चिंतन के साथ शिष्य को गुरू का स्मरण करना चाहिये।
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