वास्तव में हमारी संस्कृति ने हमारे संस्कारों ने हमें यह सिखाया है कि हिमालय, गंगा, पीपल, फल, पशु, पक्षी, गोमाता, नाग, हाथी, अश्व, मगरमच्छ, पत्थर स्फटिकशिला, कीट-पतंग आदि जो भी हैं वह प्रभु से ही व्याप्त हैं। इसलिये उनमें पूज्य भाव रखने का साधु-संतो ने उपदेश दिया है। और कण-कण में उस दयावान परमात्मा की झांकी देखने की दृष्टि प्रदान की है।
इसीलिये काल विशेष में उनके प्रति विशेष श्रद्धा समर्पित करते हुए हर्षोल्लास मनाना चाहिये। नाग भी देव कोटि के प्राणी हैं, उनकी भी सृष्टि उन्हीं दयामय प्रभु ने की है जिन्होंने हम मनुष्यों को बनाया है। उनकी सृष्टि में निर्माण हमें हानि पहुंचाने के लिये नहीं हुआ है। वस्तुतः महादेव के भांति वे भी पर्यावरण में व्याप्त विषाक्त गैसों का रसपान कर स्वयं विषैले हो जाते हैं। परन्तु फिर भी निरन्तर अन्य जीव-जन्तु, मानव का विषाक्त गैंसो से रक्षा करते हैं। साथ ही पर्यावरण को भी संतुलित रखते हैं। उनके इस परोपकारी कृत्य के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रत्येक मानव में होना चाहिये। भारतीय शास्त्र में नित्य प्रातः सायं भगवद् स्मरण के समय नाग देवता का भी स्मरण करने का विधान है।
नाग अथवा सर्प की पूजा का स्वरूप पूरे भारतवर्ष में मिलता है, प्रत्येक गांव में एक ऐसा स्थान अवश्य होता है, जिसमें नाग देव की प्रतिमा बनी होती है और उसका पूजन किया जाता है। नागपंचमी के दिन को तो एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है इसके पीछे ठोस आधार है, कारण है। समय के अनुसार मूल स्वरूप को अवश्य भुला दिया गया है।
श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पंचमी का व्रत महोत्सव होता है, क्योंकि इस तिथि को ही नागों का प्रादुर्भाव हुआ, अतः यह तिथि उन्हें विशेष प्रिय है। महाराष्ट्र के सांगली जिले में तोरणा नदी के किनारे बत्तीस शिराळे नामक एक गांव है, जो केवल नाग पंचमी के त्योहार के लिये प्रसिद्ध हैं।
शास्त्रों के अनुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री कद्रू नागों की माता है। उनका निवास स्थान पाताल है। अनन्त और वासुकि ये दोनों नागराज कहे गये हैं। पुराणों में नागों से सम्बन्ध अनेक पवित्र आख्यान आते हैं। भारत में अनेक स्थानों पर नाग देवता के मन्दिर हैं, नाग सम्बन्धी अनेक तीर्थ हैं। कभी मथुरा नाग पूजा का केन्द्र हुआ करता था। मथुरा के पास सोंख के भूमि-उत्खनन में प्राचीन नाग मन्दिर एवं मूर्तियां प्राप्त हुयी थीं। नागपुर में नागवंशीय राजाओं ने राज्य किया तथा वहां के नदी का नाम भी नाग नदी है।
जिस प्रकार मनुष्य योनि होती है, उसी प्रकार नाग योनि भी होती है। पहले नागों का स्वरूप मनुष्य की भांति होता था, लेकिन नागों को विष्णु की अनन्य भक्ति के कारण वरदान प्राप्त होने से इनका स्वरूप बदल गया। नाग ही ऐसे देव हैं, जिन्हें विष्णु का साथ हर समय मिलता है, भगवान शंकर के गले में शोभा पाते हैं, सूर्य के रथ के अश्व नाग का स्वरूप हैं।
भय एक ऐसा भाव है, जो कि बली से बली व्यक्ति, बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति की शक्ति को भी नष्ट कर देता है कोई अपने शत्रुओं से भय खाता है, कोई अपने अधिकारी से भय खाता है कोई भूत-प्रेतों से भयभीत रहता है। भयभीत व्यक्ति उन्नति की राह पर कदम नहीं बढ़ा सकता है, भय का नाश, भय पर विजय प्राप्त करने से ही संभव है, और नाग देवता, सर्प देवता भय के प्रतीक हैं, इसीलिए इनकी पूजा का विधान हर जगह मिलता है।
आज कल नागपचंमी को स्त्रियों का पर्व ही माना जाता है, जो कि बिल्कुल गलत है, नाग वास्तविक रूप में कुण्डलिनी शक्ति के स्वरूप हैं। इस दिवस पर कुण्डलिनी जागरण, भय-बाधा निवारण, नाग कन्या, नागेश, नागार्जुन आदि साधनाये सम्पन्न की जाती हैं।
नागपंचमी के दिन प्रातः जल्दी उठ कर सूर्योदय से पहले शिव पूजन सम्पन्न कर नागों का ध्यान कर शिवलिंग पर दूध मिश्रित जल चढ़ायें और एक माला ‘ ऊँ नमः शिवाय’ मंत्र का जप अवश्य करें। उसके पश्चात् जो भी आपकी इष्ट साधना हो उसे सम्पन्न करें। विद्यार्थी नाग पंचमी पर बल, बुद्धि, एकाग्रता वृद्धि और साधिकायें श्रेष्ठ संस्कारी संतान प्राप्ति की साधना सम्पन्न करें।
श्रावण माह साधु, सन्यासी, योगी, गृहस्थ साधक प्रत्येक के जीवन का स्वर्णिम अवसर है जिस माह में साधना, दीक्षा व अभिषेक के माध्यम से जीवन को नवीन चेतना, उर्जा और सकारात्मक चिंतन से नवीन निर्माण की ओर अग्रसर हो सकते हैं। इस माह में जहां सन्यासी लोग शिव और शक्ति तत्व को आत्मसात करने हेतु साधनायें सम्पन्न करते हैं। वहीं गृहस्थ साधक सांसारिक जीवन की मनोकामनाओं की पूर्ति, गृहस्थ सुख, आर्थिक सुदृढ़ता, काम शक्ति, सौन्दर्य, सम्मोहन, आकर्षण हेतु रूद्राभिषेक सम्पन्न कर श्रेष्ठता के साथ भौतिक सुखों को भोग सकेंगे।
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