किसी न किसी जीवन में, कभी न कभी तुमसे जरूर वायदा किया होगा कि मैं तुम्हें अमृतत्व का पान कराऊंगा—-और इसी वायदे को निभाने के लिए मैं इस धरती पर आया हूं— और आवाज दे रहा हूं तुम्हें अपने पास बुलाने के लिए जिससे मेरे द्वारा किया गया वायदा पूरा हो सके।
जीवन का मर्म है गुरूत्व का बोध प्राप्त कर लेना! उसी गुरूत्व का जिसका परिचय श्री गुरूदेव से मिलने के बाद ही बोध हो सकता है, जीवन को परिपूर्णता देने के मार्ग का, सत-असत के व्यर्थ द्वन्द्वों से मुक्त हो उस धर्म का धारण करने का, जो युग धर्म हो— और आज का युगधर्म है-पौरूष तीव्रता ओज बल और साहस।
यदि वास्तव में हम इस विषम परिस्थिति से उबरना चाहते हैं, तो हमें गुरूओं और ऋषियों के चरणों को पकड़ना होगा, उनके चरणों में साष्टांग होना होगा, क्योंकि गुरू की शरण के बिना कल्याण संभव नहीं है। हमें गुरूः परम दैवताम् भावना की पुनर्स्थापना करनी होगी, हमें सद्गुरू की शरण लेनी होगी।
गुरू जीवन की सर्वस्व है, पूर्णत्व का आधार है, श्रेष्ठता का प्रतिरूप है, आकाश से भी अनन्त और पृथ्वी से भी विशाल उनकी महिमा है और जिसके जीवन में गुरू स्थापित हो जाते हैं, जिसके रक्त के कण-कण में गुरू की प्रतिस्थापना हो जाती है, उसका जीवन धन्य हो जाता है, उसे जीवन में पूर्णता और सफ़लता प्राप्त हो जाती है और किसी प्रकार की न्यूनता तुच्छता नहीं रह पाती——
आपको आरती करके, भजन गाकर मानसिक सन्तुष्टि मिल सकती है, लेकिन आपकी जो मूलभूत आवश्यकताएं हैं वह पूर्ण हो नहीं सकेंगी। उनको पूरा करने के लिए आपको स्वयं साधना के मार्ग पर गतिशील होना पड़ेगा, उस मार्ग पर गतिशील होना पड़ेगा जहां आपको अपने प्रयास से अपनी आवश्कताओं को पूरा करना पड़ेगा।
यदि आपके हृदय में प्रेम का संचार हो और फि़र आप साधना करें, तो आप स्वयं अनुभव कर सकेंगें कि प्रत्येक साधना आपके लिए सहज सुलभ हो गयी है और साधना में सफ़लता आपके लिए आधार स्तम्भ बन गई है।
शिष्य को ज्ञान प्रदान करने के लिए शिव ही मानव शरीर धारण कर, उसे पूर्णता प्रदान करते हैं। शिष्य जिस धरातल पर खड़ा होता है उसकी बराबर अवस्था में ही आकर ज्ञान प्रदान किया जा सकता है। अतः शिष्य जिस स्थिति में होता है गुरू भी उसी स्थिति में आते हैं।
सद्गुरू के समीप बैठने से ही मन आनन्दपूर्ण हो जाता है। गुरू का शरीर साधारण प्राणियों के शरीर तपस्या की ऊर्जा से परिपूर्ण होता है कि जो साधक उनकी समीपता प्राप्त करता है आनन्दमय हो जाता है।
शिष्य अज्ञानतावश जन्म मृत्यु को अपने ऊपर आरोपित कर दुख भोगता है। गुरू ऐसे मिथ्या ज्ञान को समाप्त करके शिष्य को उसके स्वरूप से परिचित कराते हैं।
गुरू शिष्य के लिए सदैव वंदनीय है, उसके आराध्य देव हैं। इस जीवन में कोई संबंध सत्य और स्वार्थ रहित है तो गुरू शिष्य संबंध है।
गुरू सदैव अत्यंत करूणा से शिष्य के हित के लिए युक्त होते हैं। शिष्य अनेक जन्मों से भटकता हुआ और संतृप्त है। गुरू ही उसे अध्यात्म की ओर प्रेरित करते हैं।
जब साधक समर्पण की सीमा पर पहुंचता है तब गुरू के अतिरिक्त संसार में उसे कुछ भाता नहीं, सारे सांसारिक संबंध गौण हो जाते हैं। गुरू शिष्य का संबंध तो देवताओं के लिए दुर्लभ है।
जब संसार में सभी संबंधी विपत्ति आने पर शिष्य का साथ छोंड़ देते हैं तो गुरू ही उसके लिए सहायक सिद्ध होते हैं। यही सबसे अधिक उनके पहिचान का स्वरूप है।
गुरू का निरन्तर चिन्तन करने से साधक की बुद्धि गुरू के प्राणों से जुड़कर पवित्र हो जाती है। तभी गुरू का ब्रह्ममय स्वरूप प्रकट होकर शिष्य का कल्याण करता है।
पुरूष वह है जो अपना रास्ता नया नापे, नया रास्ता बनाए, नया विचरण करे, वह पुरूष होता है जो हिमालय के तफ़ूान को सीने पर झेले, वह पुरूष होता है जो तफ़ूानों को अपनी मुट्ठी मे दबोचे और आकाश में यमराज से आंखों से आखें मिलाकर छाती पर पांव रखकर कहे कि मैं हूँ और मेरे सामने तुम कुछ भी नहीं हो, वह पुरूष कहलाता है। पौरूष कहलाता है।
मैं आप सब का पिता हुँ, आपकी माँ हूँ, आपका भाई हूँ, बहन हूँ, आपका रखवाला हूँ और रहूँगा, कहीं भी मन में हिचकिचाहट लाने की जरूरत नहीं, कोई भी चिंता करने की जरूरत नहीं है।
आप साधना करें नहीं करे आप सिद्धियाँ प्राप्त करें अथवा नहीं करें। इस बात की कोई मुझे इच्छा है ही नहीं। मुझमें ज्ञान, तेजस्विता का अंश होगा, तो आप जैसे भी हो, जिस स्थिति मे भी हो आपको ले करके कंधो पर बिठाकर भी लेकर चला जाऊगाँ, इस बात की गारण्टी है, क्योंकि मेरे अन्दर ब्रहात्व है और जाग्रत अवस्था में है।
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