जैसे राह में, सांझ के अंधेरे में पड़ी हुई रस्सी आपको सांप दिखाई पड़ गयी है। यह जो सांप आपको दिखाई पड़ गया है, यह है या नहीं है? काश, सरलता होती और हम स्पष्ट कह सकते कि नहीं है, या कह सकते कि है, तो उलझाव कोई भी नहीं था; लेकिन रस्सी में जो सांच दिखाई पड़ गया है, वह एक अर्थ में नहीं है, क्योंकि खोजने पर रस्सी हाथ आती है, सांप हाथ में नहीं आता। लेकिन एक अर्थ में है, क्योंकि दिखाई पड़ा है। और दिखाई पड़ा है ऐसा ही नहीं, जिसे दिखाई पड़ा है वह भागेगा भी, गिर भी सकता है, चोट भी खा सकता है, हृदय की धड़कन उसकी बढ़ जायेगी, पसीने से तर-बतर हो जायेगा और अगर कभी लौटकर न आये और खोजे न, तो सदा इसी ख्याल में जियेगा कि सांप था।
तो जो नहीं था, उसके कारण आदमी दौड़ सकता है क्या? जो नहीं था उसके कारण पसीना बह जाता है। जो नहीं था, भय से हृदय कंप जाता है। जो नहीं था, क्या उससे भी ऐसी घटनाएं घट सकती हैं? अगर घट सकती हैं तो उसे किसी अर्थ में होना तो मानना ही पड़ेगा; क्योंकि जिसके न होने पर भी होने में घटनाएं घट जाती हैं, उसके अस्तित्व को एकांततः इनकार करना असंभव है।
रात सपने में देखते हैं आप एक भयानक स्थिति। नींद खुल जाती है और जान लेते हैं कि सपना था, लेकिन हृदय की धड़कन इससे कम नहीं हो जाती; हाथ-पैर कंपते ही चले जाते हैं। माना कि सपना था और अब तो जान भी लिया कि सपना था, लेकिन वास्तविक हृदय अभी भी कंपा जा रहा है और घबराहट जारी है और नींद के लौटने में थोड़ा समय लगेगा।
तो जो अवास्तविक होकर भी वास्तविक पर प्रभाव डाल पाता है, उसे ऋषि कहते हैं कि हम बिलकुल ऐसा कह दें कि वह नहीं है तो अनुचित होगा और मजे की बात यह है कि वह जो यह तीसरी बात है, वह इतनी प्रभावी है कि सारा जीवन उसी से ओतप्रोत है; इसलिए उसे इनकार नहीं किया जा सकता। यह जो तीसरी बात है, इतनी महत्त्वपूर्ण है कि सारा जीवन हमारा उसी के इर्दगिर्द निर्मित होता है और चलता है।
माया न तो सत् है, न असत्; माया दोनों के मध्य में है। वह एक अर्थ में नहीं है और एक अर्थ में है। माया उसे नाम दिया है इसीलिए क्योंकि माया का अर्थ वस्तुतः होता है- जैसे एक जादूगर एक वृक्ष को बड़ा करता है। आँखों के सामने, हजारो आँखों के सामने वृक्ष बड़ा होने लगता है। हजारों आँखों के सामने क्षण भर में ही उसमें फल लगने लगते हैं, फल बड़े हो जाते हैं। जो देख रहे हैं वे सभी जानते हैं, यह हो नहीं सकता; यह है नहीं और फिर भी दिखाई तो पड़ता है!
माया का मौलिक अर्थ हैः भ्रांति की कला। माया का मौलिक अर्थ है जादू। उसका अर्थ है कि जो नहीं है वह भी दिखाई पड़ सकता है, इसकी संभावना है और इससे उल्टी संभावना भी है कि जो है, वह नहीं दिखाई पड़ सकता, इसकी भी संभावना है। जो है वह छिप सकता है और जो नहीं है वह प्रगट हो सकता है। माया जो है, वह सदा है। उसका कोई आदि नहीं है, उसका कोई प्रारंभ नहीं है और उसका कोई अंत भी नहीं है, क्योंकि वह सदा रहेगा। जो नहीं है, नितांत नहीं है, उसका भी कोई आदि नहीं, क्योंकि जो है ही नहीं उसका प्रारंभ कैसे होगा और उसका कोई अंत भी नहीं होगा; क्योंकि जो है ही नहीं उसकी समाप्ति क्या होगी! माया का प्रारंभ नहीं है, लेकिन इसका अंत है। यह जो माया है, यह एक विस्तीर्ण स्वप्न है। स्वप्न की एक खूबी है कि जब वह होता है तो वास्तविक मालूम होता है। जब तक होता है तब तक वास्तविक मालूम होता है। हम सभी ने स्वप्न देखे हैं और हर सुबह हमने पाया है कि स्वप्न झूठा था, लेकिन फिर आज रात जब स्वप्न देखेंगे तो देखने में स्वप्न पुनः वास्तविक हो जायेगा। स्वप्न में कभी याद नहीं आती कि जो देख रहे हैं वह झूठा है। आ जाये तो स्वप्न टूट जाये। स्वप्न की एक आंतरिक खूबी है कि जब वह होता है तब बिलकुल वास्तविक होता है, वास्तविक प्रतीत होता है; रंचमात्र भी शक पैदा नहीं होता; जरा सा भी संदेह नहीं उठता। बड़े-बड़े संदेहशील लोगों में भी, जो जगत पर संदेह कर सकते हैं कि है या नहीं, स्वप्न पर संदेह नहीं कर पाते।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मकड़ी स्वयं की जाल में स्वयं फंस जाती और निकलना मुश्किल हो जाता । कभी जाल उलझ जाता है। हवा के किसी झोंके में मकड़ी के ऊपर ही पड़ जाता है। कभी जाल टूट जाता है और मकड़ी अधर में लटक जाती है। उसके ही पेट से निकला था सब और उसी को डुबा लेता है और कभी ऐसा हो जाता है कि मकड़ी ऐसी फंस जाती है अपने ही जाल में कि बाहर नहीं निकल पाती; वही जाल जो उसका जीवन था, किसी दिन उसकी मौत बन जाता है।
माया का अर्थ हैः मनुष्य के मन की क्षमता-अपने चारों ओर एक स्वप्न जगत निर्मित करने की। इस स्वप्न में सुख भी बहुत है, अन्यथा हम निर्मित न करते; इस स्वप्न में दुःख भी बहुत है अन्यथा क्यों कोई बुद्ध, क्यों कोई महावीर इसे तोड़ने चले? इस स्वप्न में सुख है उतना ही, जितना देर तक हम इस स्वप्न को देख पाते हैं। लेकिन बड़े मजे की बात है कि जिस पर हम यह सपना देखते हैं वही सपने को तोड़ने का कारण बनना शुरू हो जाता है। क्योंकि वह हमारे सपने के अनुकूल कतई नहीं है; उसका अपना अस्तित्व है, उसके अपने सपने हैं।
ऐसा हम समझें कि एक ही परदे पर दो प्रोजेक्टर लगाकर दो लोग दो तरह की फिल्में चला रहे हैं- एक ही परदे पर। सो मुश्किल होनेवाली है और सब गढ़बड़ भी हो जानेवाला है, कुछ दिखाई पड़नेवाला नहीं है। मगर यहां मामला दो का नहीं है, यहाँ वैसा मामला है कि एक-एक परदे पर दस-दस, पन्द्रह- पन्द्रह, बीस-बीस लोग फिल्में चला रहे हैं। सब कन्फ्यूजन हो जाता है, सब विभ्रम हो जाता है; कुछ हाथ नहीं पड़ता; दुःख ही दुःख हाथ पड़ता है। सब सपने भंग हो जाते हैं। स्वप्न – भंग के अतिरिक्त, हाथ में राख के अतिरिक्त, टूटे हुए जालों के अतिरिक्त अंत में आदमी की संपदा कुछ भी नहीं होती। क्योंकि जो है वहां वस्तुतः, वह एकदम तुच्छ है, न कुछ है, हम उसे बहुत कुछ बना लेते हैं। इसलिये जब स्वप्न टूटता है तो व्यक्ति, जिस पर हमने स्वप्न को फैलाया था, एकदम फीका हो जाता है, बेरस हो जाता है। व्यक्ति वही है, सिर्फ हमने अपना स्वप्न वापिस ले लिया। तुच्छ है जो चारों तरफ हमारे फैला हुआ है। जिस पर हम अपनी माया को खड़ा करते हैं, बिलकुल तुच्छ है; न कुछ है। वह ठीक वैसे ही फिल्म के परदे जैसा। उसमें कुछ भी नहीं है, सिर्फ सफेद कोरा है।
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