इससे दुःखी होकर इन्द्र ने रेवा क्षेत्र में पहुँच कर भगवान शिव को अपने तप से प्रसन्न किया। तब भगवान शिव बोले-‘‘मैं तुम्हारे द्वारा स्थापित शिवलिंग में सदा विराजमान रहूंगा और जो भी इस शिवलिंग की पूजा करेगा, उसे सभी महापातकों से मुक्ति मिलेगी।’’ बाद में इन्द्र ने नर्मदा तट पर शिवलिंग स्थापित कर उसकी साधना की और ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हुए।
जब देवताओं से भी पाप हो जाते है, तो मनुष्य से तो हो ही सकते है, होते ही है, स्वाभाविक भी है। परन्तु एक बात निश्चित है, कि जब तक इन पापों का, इन दोषों का शमन नहीं हो जाता है, तब तक जीवन हर प्रकार से अशान्त बना ही रहता है। प्रत्येक व्यक्ति ने जाने अनजाने में, इस जन्म में अथवा पूर्व जन्मों में कई ऐसे कार्य किये होते है, जिनसे अन्य आत्माओं को कष्ट अथवा क्लेश पहुँचा हो। ऐसे ही कार्य पाप कहलाते है और जिन आत्माओं को कष्ट पहुँचने से पाप लगा है, जब तक उन आत्माओं का वर्चस्व है, तब तक वे पाप पीछा नहीं छोड़ते और रोगों के रूप में, अपमान के रूप में, निराशा के रूप में, दैन्य के रूप में, तनाव के रूप में, व्यक्ति के स्वयं के ही पाप सामने प्रकट होते रहते हैं और उसके जीवन को अस्त-व्यस्त कर देते है।
इन दोषों का शमन दो प्रकार से किया जा सकता है-या तो उस आत्मा को प्रसन्न कर लिया जाए, जिसकी वजह से पाप लगा है, या दूसरा तरीका साधना का है, साधना के माध्यम से, तपोबल के माध्यम से पापमुक्ति का प्रयास हो, जैसा कि देवराज इन्द्र ने किया था। साधक के लिये पहला कार्य यह होता है, कि वह अपने जीवन का आंकलन करे और यह ढूंढने का प्रयास करे, कि क्या मैं सभी पाप-दोषों से मुक्त हो सकां हूँ और यदि नहीं हो सका हूँ, तो मैं ‘इन्द्रेश्वर शिव साधना’ सम्पन्न करूंगा। जिससे मेरा जीवन मार्ग निष्पाप हो सके, निर्दोष हो सके, निष्कलंक हो सके और मै उच्चतर साधनाओं में सफलता प्राप्त कर जीवन को पूर्णता दे सकूं, और साथ ही भौतिक क्षेत्र में भी अपनी सभी कामनाओं को पूर्णता के साथ पूरा कर सकूं ।
यह एक सहायक साधना है, इस साधना की अनुभूति किसी परालौकिक दृश्यादि के रूप मे तो नहीं होती, परन्तु जब कार्यो में आ रही रूकावटें समाप्त होने लगती है, मन शांत होने लगता है, साधनाओं में सफलता मिलने लगती है, इष्ट में मन रमने लगता है, तो यही सब प्रमाण होता है, कि यह साधना बेकार नहीं गई है। पाप-दोषों की अधिकता से सफलता किसी भी क्षेत्र में नहीं मिल पाती, इसलिये सर्वप्रथम इन्द्रेश्वर साधना सम्पन्न करनी ही चाहिये।
इस साधना को सोमवार से प्रारम्भ किया जा सकता है। अपने सामने गुरू चित्र एवं शिव चित्र स्थापित कर लें। दैनिक साधना विधि के अनुसार गुरू पूजन कर गुरू मंत्र की एक माला जप लें। फिर अपने सामने एक सफेद कपड़े पर काले तिल से एक त्रिकोण बना ले। त्रिकोण के मध्य में ‘दिव्य शिव यंत्र’ को स्थापित करें। यंत्र का कुंकुंम, अक्षत, बिल्व पत्रादि से पूजन करे। दाहिने हाथ की मुट्टी में अक्षत के कुछ दाने लेकर सर्व पाप दोष से मुक्ति की प्रार्थना करें, फिर तीन बार मुट्ठी को सिर पर से घुमाकर दक्षिण दिशा की ओर फेंक दें इसके बाद यंत्र के बाई ओर अक्षत की एक ढेरी बनाकर उस पर ‘इन्द्रायण’ को स्थापित कर दें। फिर ‘इन्द्रेश्वर महादेव माला’ से निम्न मंत्र की 7 माला जप 5 दिन तक नित्य करें-
साधना समाप्ति होने के एक दिन बाद समस्त सामग्री को किसी निर्जन स्थान में जमीन में जाकर दबा दें।
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