शुभाशीर्वाद
सफलता पाने अथवा उसकी भावनाएं सुनिश्चित बनाने के लिए आवश्यक है कि किसी भी आवश्यक त्याग तथा बलिदान के लिए सदा तत्पर रहा जाए। आत्मविश्वास एवं स्वावलंबन से हीन व्यक्ति की कोई सहायता-सहयोग भी नहीं करता। नियम है कि लोग उसी की सहायता किया करते हैं, जो अपनी सहायता आप किया करता है और जिसका हृदय आत्म-विश्वास की भावना से ओत-प्रोत है। जो देता है, वही पाता है यदि कोई चाहे कि वह संसार में पाता तो सब कुछ चला जाएं, किन्तु देना कुछ भी न पड़े, तो ऐसा स्वार्थी तथा संकीर्ण भावना वाला व्यक्ति इस आदान-प्रदान पर चलने वाले संसार में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता।
जीवन में कुछ भी असम्भव नहीं। हम अपनी कमजोरी से, अपनी अज्ञानता से कार्य को कठिन या असम्भव बना लेते हैं। आप को जीवन में एक चीज की आवश्यकता है विश्वास की यह एक ऐसी शक्ति है जो आपके हर कार्य केा सम्भव बना सकती है। फिर किसी भी कार्य में असम्भवता व्याप्त नहीं होती है।
हनुमान को अपने भगवान राम में विश्वास था। हनुमान ने अपने भगवान को दिल में बसाया है। हनुमान हर कार्य में जय श्रीराम की ध्वनि से गुंजरित करने के बाद ही कार्य प्रारम्भ करते थे। हनुमान को भी अपनी शक्ति का बोध उनके भगवान जय श्रीराम बोल कर वे अद्भुत कार्य कर सके क्योंकि उन्हें अपने भगवान कि शक्ति का बोध था। ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे। जिससे व्यक्ति ने अपने ऊपर व अपने गुरु की शक्ति पर विश्वास रखा और विजय प्राप्त की।
आपके मन के भीतर बैठा विश्वासरूपी गुरु साधना, तप और तेज द्वारा ये शक्ति दे सकता है, आपको एक मार्ग दिखा सकता है। आपको आवश्यकता है एक शक्ति की, अपने अन्दर के विश्वास को जगाने की। मैं आपको पथ दिखाऊंगा आप का पथ निश्चित करूंगा। जिससे आप अपनी शक्तियों को ज्ञात कर उस मार्ग पर चल सकोगें और सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुंचोगे। सभी पुराने धर्म, आचरण, क्रियायें पतन के गर्त में गिरते हुए नष्ट होती जा रही हैं और इससे पूर्व वे नष्ट हो जाएं और पूरी मनुष्यता एक प्रश्नचिन्ह बन जाए, पूरी पृथ्वी पर चारों ओर फैल जाना चाहिए। इससे पहले पुराना घर गिरकर बिखर जाये, तुम्हें नया घर बना लेना है। सिद्ध और साधक के बीच जो फर्क है, वह शराबी और उसके होश में आने के बीच का फर्क है। सुबह जागकर तुम भी पाओगे कि तुम सिद्ध हो। वह फासला ऐसा नहीं है कि कुरूपता जैसा हो कि सुबह भी वैसी ही रहेगी- चाहे तुम जागो, चाहे तुम सोओ। स्मरण का हल्का-सा झोंका तुम्हारे सारे संसार को बहा ले जायेगा। इस संसार की जगह तुम पाओगे- एक स्वच्छ आकाश। इसलिए पहली बात तो यह याद रख लें कि सिद्ध और साधक के बीच कोई अंतर नही है। शिष्य और गुरु में रती भर का फासला नहीं है और अगर फासला है, तो वह शिष्य के खयाल में है, गुरु के खयाल में नहीं है। वह शिष्य की ही भ्रांति है।
सिद्धत्व को पाना मिटने की प्रक्रिया है, खोने की प्रक्रिया है। गंगा अलग है, यमुना अलग है। नर्मदा अलग है। मिल जाएं तो भी दोनों का पानी अलग दिखाई पड़ता है। कोई पश्चिम की तरफ बह रही है, तो कोई उत्तर की। ओर सबका ढंग अलग है, सबके किनारे-यात्रा-पथ अलग है। लेकिन सागर में- जहां नदियां मिल जाती हैं, वहां इन नदियों का रूप मिट जाता हैं, वहां कौन सा जल गंगाजल है। वहां गंगा, यमुना, और नर्मदा में भेद नहीं रह जाते। वे सभी समुद्र स्वरूप बन जाती है। अपने अस्तित्व को विशालता में समाहित करने की क्रिया से ही सागर रूपी श्रेष्ठता प्राप्त होती है। गुरु तत्व रूपी सागर में अपने आप को समाहित करने से ही जीवन में उच्चता प्राप्त की जा सकती है। वहां व्यक्तित्व शून्य होता है। इसलिए सांसारिक पथ कितने ही भिन्न हो परन्तु समर्पण का मार्ग तो एक ही होगा। तुम गुरु या ईश्वर के नाम अलग-अलग रख सकते हो, वह तुम्हारी मर्जी है। बस, नाम का ही भेद होगा, यथार्थ भिन्न नहीं हो सकता। लेकिन उस यथार्थ को कहने के ढंग भिन्न हो सकते हैं। परन्तु यथार्थ की प्राप्ति समाहित होने में ही है।
अगर कभी सद्गुरु मिल जाये, तो जहां तक बने उसी में डूब जाना उचित है। दूसरा सद्गुरु मिल जाये तो तुम्हारा कन्फ्यूजन और बढे़गा, घटेगा नहीं। क्योंकि दूसरा सद्गुरु दूसरी भाषा बोलेगा। पहली भाषा भारी पड़ गई थी। सद्गुरु ही समझ में नहीं आया। अब और मुसीबत हो गई। तुम पूछते फिरते हो, ईश्वर कहां है और तुमने ही उसे मार डाला है- दरवाजे पर ही अहंकाररूपी ईश्वर की हत्या है। क्योंकि अहंकार यह कह रहा है, ‘मैं हूं- तू नहीं और अगर तू भी है, तो मेरे लिए है।’ निरहंकार का अर्थ कि तू है, मैं नहीं। पानी पर आकृति बनाओ तो खिंचती है, मिट जाती है, पत्थर पर बनाओ, टिकती है। आकाश में बनाओ, न बनती है, न मिटने का कोई सवाल है। और सद्गुरु कहते है कि जिस दिन तुम और तुम्हारा अंहकार, तुम्हारी अस्मिता, तुम्हारा होना आकाश में खिंची हुई शून्य की आकृति की भांति हो जायेगा, उसी समय तुम पूरी धरा पर छा जाओगे। उसी दिन तुम बुद्ध हो जाओगे। बुद्ध तो तुम अभी भी हो। लेकिन तुमने खडि़या-मिट्टी से अपनी आकृति खींच ली है। पुरुषार्थी व्यक्ति को कार्य करते रहना चाहिए, बाधाओं का हंस कर सामना करना चाहिए,
काल का तात्पर्य है समय, वह समय जो मनुष्य को मृत्यु की ओर ले जाता है। काल के चक्रव्यूह में मनुष्य फंसता और फंसता ही चला जाता है। घर की दरिद्रता, रोग, कष्ट, बाधा, अकाल मृत्यु जैसी समस्याओं का सामना करते हुए मनुष्य अपने जीवन को नष्ट कर देता है और जीवन को जिस प्रकार से जीना चाहिए वह नहीं जी पाता। सांसारिक जीवन की समस्याओं को झेलता ही रहता है और एक समय आने पर वह काल के हाथों हार जाता है। काल मनुष्य पर विजय प्राप्त कर लेता है और समाप्त कर देता है मनुष्य को, उसके अस्तित्व को। काल पर विजय प्राप्त करना काल ज्ञान होने से ही सम्भव है जो केवल सद्गुरु की कृपा से ही होता है और सद्गुरु की शक्ति ‘काल भैरव महामृत्युजंय’ और उसी शिव शक्ति को पूर्णता के साथ आत्मसात कराने के लिये पूज्यपाद सद्गुरुदेव निखिलेश्वरानन्द जी महाराज की आज्ञा से इस नववर्ष पर्व 1, 2, 3 जनवरी 2014 को काल भैरव महामृत्युंजय शिव शक्ति साधना शिविर, त्रिवेणी भवन, व्यापार विहार, बिलासपुर, छतीसगढ़ में सम्पन्न होगा। जिससे धर्म, अर्थ, काम पर पूर्णता से आद्यिपत्य कर सके। जीवन को पूर्ण स्वच्छ निर्मल नूतनता युक्त बनाने की क्रिया प्रारम्भ हो सकेगी। छत्तीसगढ़ में आप सभी शिष्यों और साधकों से मिल कर खुशी होगी।
सभी पत्रिका परिवार के सदस्यों को नववर्ष की मंगलमय हार्दिक शुभकामनायें।
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