मनुष्य का शरीर अपने आपमें सृष्टि के सारे क्रम को समेटे हुए है और जब यह क्रम बिगड़ जाता है, तो शरीर में दोष उत्पन्न होते हैं, जिसके कारण व्याधि, पीड़ा, बीमारी का आगमन होता है। इसके अतिरिक्त शरीर की आन्तरिक व्यवस्था के दोष के कारण मन के भीतर दोष उत्पन्न होते हैं, जो कि मानसिक शक्ति, इच्छा शक्ति को हानि पहुंचाते हैं। व्यक्ति की सोचने-समझने की शक्ति, बुद्धि क्षीण हो जाती है। इन सब दोषों का नाश सूर्य तत्व को जाग्रत कर किया जा सकता है।
क्या कारण है कि एक मनुष्य उन्नति के शिखर पर पहुंच जाता है और एक व्यक्ति पूरे जीवन सामान्य ही बना रहता है। दोनों के भेद शरीर के अन्दर जाग्रत सूर्य तत्व का है, नाभि चक्र, सूर्य चक्र का उद्गम स्थल है और यह अचेतन मन के संस्कार तथा चेतना का प्रधान केन्द्र है, शक्ति का स्त्रोत बिन्दु है। साधारण मनुष्यों में यह तत्व सुप्त होता है, न तो इनकी शक्ति का सामान्य व्यक्ति को ज्ञान होता है और न ही वह इसका लाभ उठा पाता है। इस तत्व को अर्थात भीतर के मणिपुर सूर्य चक्र को जाग्रत करने के लिए बाहर के सूर्य तत्व की साधना आवश्यक है। बाहर का सूर्य अनन्त शक्ति का स्त्रोत है और इसको जब भीतर के सूर्य चक्र से जोड़ दिया जाता है, तो साधारण मनुष्य भी अनन्त मानसिक शक्ति का अधिकारी बन जाता है। जब यह तत्व जाग्रत हो जाता है, तो बीमारी, पीड़ा, बाधाएं उस मनुष्य के पास आ ही नहीं सकती हैं।
बाहर यह सूर्य तो साल के 365 दिन जाग्रत है, लेकिन इसके द्वारा भीतर के समस्त तत्व को कुछ विशेष मुहूर्तों में तत्काल जाग्रत किया जा सकता है और इसके लिए मकर संक्रान्ति से बढ़ कर कोई सिद्ध मुहूर्त नहीं है।
मकर संक्रान्ति और महालक्ष्मी
मकर संक्रान्ति के दिन ही भगवती लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ। जब लक्ष्मी की उत्पत्ति देवासुर संग्राम के अवसर पर समुद्र मंथन के द्वारा हुई, तब वह कन्या थी और इसलिए जिस स्थान पर समुद्र मंथन हुआ, जिस स्थान पर समुद्र के गर्भ से लक्ष्मी की उत्पत्ति हुर्ह, उस स्थान को आज ‘‘कन्याकुमारी’’ कहते हैं, जो भारत वर्ष के दक्षिणी छोर पर है। यह एक ऐसा स्थान है, जहां तीन समुद्र एक साथ मिलते हैं और यहीं पर कन्या कुमारी का पवित्र और श्रेष्ठ मंदिर है।
हजारों-लाखों लोग प्रति वर्ष भारतवर्ष के दक्षिण में कन्या कुमारी स्थान पर जाते हैं और उसकी प्राकृतिक छटा देखते हैं। समुद्र का पारस्परिक मिलन और तीन समुद्रों का संगम देखते हैं, जहां का सूर्योदय विश्व प्रसिद्ध है। जो भी कन्याकुमारी जाता है, वह प्रातः उठ कर छत पर खडे़ हो कर सूर्योदय को देखने की अभिलाषा मन में अवश्य रखता है, क्योंकि कन्याकुमारी का सूर्योदय अपने आपमें अन्यतम है, ऐसा लगता है कि जैसे समुद्र में से धीरे-धीरे स्वर्ण कलश बाहर निकल रहा हो, चारों तरफ अगाध समुद्र है, जहां तक दृष्टि जाती है समुद्र की लहरें दिखाई देती हैं। यह तो अपने आपमें एक अद्भुत और अनिवर्चनीय दृश्य होता है।
समुद्र मंथन के उपरान्त जो चौदह रत्न निकले, उन चौदह रत्नों में लक्ष्मी भी एक रत्न थी, मगर वह कन्या थी, अविवाहित थी, कुंवारी थी और इस के प्रतीक स्वरूप उस स्थान पर कन्याकुमारी का मंदिर का निर्माण किया गया। एक पवित्र भूमि का आविर्भाव हुआ और आज भी श्रद्धालु लोग उस कुंवारी लक्ष्मी के विग्रह को देखने के लिए हजारों-हजारों की संख्या में जाते हैं।
इसके कुछ ही समय बाद भगवान विष्णु अवतरित हुए और उस समुद्र के किनारे लक्ष्मी को पत्नी रूप में स्वीकार किया और यही समय मकर संक्रान्ति पर्व कहलाता है जब कुंवारी कन्या का पाणिग्रहण भगवान विष्णु के साथ होता है। इसीलिए इस दिन का विशेष महत्व है।
जो साधक मकर संक्राति के विधान को पूरी तरह से सम्पन्न करता है, इस विशेष मुहूर्त पर लक्ष्मी की आराधना करता है, सूर्य की आराधना करता है, तो जहां एक ओर उसके जीवन के दोष दूर होते हैं, पीड़ा, व्याधि, बीमारी का निवारण होता है, वहीं लक्ष्मी साधना से जीवन की दरिद्रता, दुर्भाग्य, कर्ज का नाश होता है और लक्ष्मी का स्थायी निवास बन जाता है।
मकर संक्राति महापर्व को तीन भागों में बांटा जा सकता है। इसके तीन दिवस हैं, इसमें प्रथम दिवस लक्ष्मी साधना सम्पन्न की जाती है, दूसरे दिवस को विष्णु साधना और तीसरे दिवस को सम्पूर्ण बनने की सूर्य साधना सम्पन्न की जाती है। इन तीनों साधनाओं को एक साथ सम्पन्न करने का पूरे वर्ष में मकर संक्रन्ति के अलावा और कोई मुहूर्त ही नहीं है।
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