आज के युग में डॉक्टरों ने ‘परखनली शिशु’’ का आविष्कार करके एक नवीनतम उपलब्धि हासिल की है। किन्तु इसकी सफ़लता का प्रतिशत बहुत कम है। साथ ही यह विधि अत्यन्त महंगी है, जिसे मध्य वर्गीय परिवार के लोग आसानी से नहीं अपना सकते है। परखनली विधि के द्वारा उत्पन्न बच्चा जब परिवार से निकलकर समाज में पैर रखता है, तब उसे अत्यन्त आश्चर्यजनक वस्तु मानकर लोग उसके साथ विचित्र व्यवहार करते हैं। ऐसी स्थिति में इसके साथ होने वाले व्यवहार के कारण, बच्चा मानसिक रूप से परेशान रहने लगता है, साथ ही उसके मां-बाप को भी मानसिक व्यथाओं का सामना करना पड़ता है।
विज्ञान अब इस कोशिश में लगा है कि पुत्रहीन दम्पत्ति को प्राकृतिक विधि के द्वारा ही संतान उत्पन्न हो। अनन्त है साधना का क्षेत्र – जिन प्रश्नो का उत्तर विज्ञान के पास नहीं है, उनका ही उत्तर तो हमारे तंत्र, मंत्र, शास्त्र, साधनाओं में निहित है। हमारे ऋषि, मुनियों ने जो तपस्याएं की, उनमें उन्होंने सिर्फ भगवान के नाम की मालाएं ही नहीं फ़ेरी, उन्होंने मानव जीवन को पूरा महत्व देते हुए, उसकी प्रत्येक समस्या का समाधान ढूंढा। उनकी तपस्या का मुख्य उद्देश्य रहा कि समाज में रहने वाले व्यक्ति के जीवन को कैसे साधारण से श्रेष्ठ और श्रेष्ठतम बनाया जाय। इसके लिए नक्षत्रों का अध्ययन किया, प्रयोग किये, उनकी प्रामाणिकता को परखा और जब पूर्ण रूप से आश्वस्त हो गये तो उसे संहिता बद्ध कर समाज के सामने प्रस्तुत किया।
रामचरित मानस में वर्णन है कि महाराज दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए साधना सम्पन्न कराई प्रौढ़ावस्था प्राप्त करने तक, जब दशरथ के घर संतान उत्पन्न नहीं हुई तो उन्हें इस बात की अत्यन्त चिंता हुई कि उनके बाद इस राज्य को कौन संभालेगा ? उनकी मृत्यु के बाद कौन पिण्ड दान देगा ?अपनी इस समस्या को उन्होंने अपने गुरू वशिष्ठ से बताया। महर्षि वशिष्ठ ने उस समय के मंत्रों के ज्ञाता श्रृंगी ऋषि को इस समस्या के समाधान हेतु बुलाया और उनके द्वारा पुत्रेष्टि प्रयोग सम्पन्न कराया। सर्वविदित है कि इस प्रयोग के बाद दशरथ के घर चार योग्य श्रेष्ठ कुलीन पुत्र रत्न उत्पन्न हुए। जिनकी वन्दना-आराधना आज तक लोग करते हैं।
द्वापर युग में भी दुर्वाशा ऋषि ने कुन्ती की सेवा से प्रसन्न होकर पुत्रेष्टि प्रयोग की साधना सिखाई थी, कालान्तर में इस प्रयोग के द्वारा ही कर्ण, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव कुन्ती तथा माद्री के गर्भ से जन्म लिये थे युग परिवर्तन के साथ-साथ यह प्रयोग भी काल के गर्भ में जा छुपा, किन्तु समाज के हितार्थ परम पूज्य सद्गुरूदेव ने अत्यंत कृपा करके पुनः इस प्रयोग को बताया। इसे पत्रिका पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करने में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है –
क्या संभव है कि कृत्रिम उपायों द्वारा, परखनली शिशु जैसी क्रिया द्वारा, जीवन में पूर्ण संतान सुख और संतुष्टि मिल सके ? आत्मीयता और सहजता पनप सके—–
यह प्रयोग पति-पत्नी दोनों को समन्वित रूप से सम्पन्न करना चाहिए। सर्वप्रथम पति-पत्नी सद्गुरू देव के पास आकर ‘‘मनोवांछित गर्भ निर्माण दीक्षा’’ प्राप्त करें फि़र गुरू आज्ञा प्राप्त करके यह प्रयोग सम्पन्न करें।
एक छोटी चौकी पर अष्ट दल कमल अंकित कर उसके ऊपर मिट्टी का कलश स्थापित कर कलश को शुद्ध जल से अच्छी तरह भर दें। इसके ऊपर एक दीप प्रज्ज्वलित करें। कलश के सामने त्रिगन्ध से स्वस्तिक का चिन्ह बना कर ‘‘पुत्रदा यंत्र’’ स्थापित करें। यंत्र के दाहिने तरफ़ पांच पुत्रदा फ़ल एक क्रम में स्थापित करें। इनके सामने पांच दीपक शुद्ध घी का जलायें। यंत्र का पंचोपचार पूजन करें। कलश स्थापन से पूर्व, गुरू चित्र स्थापित कर के संक्षिप्त गुरू पूजन सम्पन्न करें। त्रिगन्ध से यंत्र और पुत्रदा फ़ल पर तिलक करें। यंत्र के चारों ओर पुत्र जीवा माला रखें। एक नारियल मौली में बांध कर यंत्र के बायें तरफ़ स्थापित करें
पति-पत्नी दोनों ही हाथ जोड़ कर परम पूज्य गुरूदेव से विनती करे ‘‘हे गुरूदेव आप की आज्ञानुसार हम पुत्रेष्टि प्रयोग सम्पन्न करने जा रहे हैं, आप कृपा करके हमें भगवान कृष्ण और भगवान राम की तरह श्रेष्ठ पुत्र प्रदान करें। इसके बाद क्रमशः पति और पत्नी दोनों पुत्र जीवा माला के क्रमशः निम्न मंत्र की पांच – पांच माल मंत्र जप करें और दूसरा साथ में बैठ कर मानसिक जप करें –
पांच दिन तक इसी प्रकार प्रयोग सम्पन्न करें। रोज मिट्टी के दीपक बदलते रहें, अंतिम दिन प्रयोग पूर्ण होने पर नारियल को फ़ोड़कर उसकी कुछ गिरी पूजा स्थान पर ही पति-पत्नी दोनों खा लें।
प्रत्येक रविवार को पुत्रजीवा माला से मंत्र जप सम्पन्न करें। ऐसा 11 रविवार तक करें। प्रत्येक रविवार को सिर्फ फ़ल या दूध ही आहार के रूप में ग्रहण करें। ग्यारहवें रविवार के बाद पुत्रदा यंत्र को सिद्ध सूत्र में पिरोकर पत्नी धारण कर ले। पुत्रदा फ़ल को एक स्वच्छ कपड़े में बांधाकर सुरक्षित जगह में रखें। इस प्रकार यह प्रयोग सम्पन्न करके फ़ोन द्वारा या पत्र द्वारा अथवा स्वयं आकर पूज्य गुरूदेव से आशीर्वाद प्राप्त करें।
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