प्रकृति वही रहती हुई (हमारे – आपके शब्दों में जुड़ी रहती हुईद्ध भी प्रतिक्षण अपनी ओर आकर्षित करने में पूर्ण समर्थ होती ही है। ऐसा इसलिए कि उसमें क्षण-क्षण परिवर्तित हो जाने की कला घुली-मिली है। पत्ती एक क्षण एक ढ़ंग से झूमती है और ठीक अगले ही पल दूसरे ढ़ंग से, चांद का प्रकाश एक दिन कुछ और होता है और दूसरे दिन कुछ और, आसमान की रंगत कभी किसी रंग में जाती है और दूसरे ही दिन नए ढ़ंग में, मन इसी से प्रकृति को निहारते हुए भी कभी थकता नहीं। एक नारी की तरह प्रकृति अपने वस्त्र और नूतन रंग से बदलती ही रहती है।
सद्गुरु भी ठीक प्रकृति के समान ही प्रतिक्षण अपना स्वरूप परिवर्तित करने में समर्थ होते हैं, प्रकृति से एक रस होते हैं, प्रकृति उनकी चेरी होती है। उनकी आंखों में स्वच्छ आकाश की नीलिमा फ़ैली होती है, तो सारे शरीर से दिव्य गन्ध मलय पवन की भांति प्रतिक्षण निःसृत होती रहती है। उनके हास्य में सरस, सघन, लचीली टहनियों की कोमलता होती है, तो पुष्प की पंखुडि़यों की भांति जिनके श्रीमुख से आशीर्वचन भी शिष्य पर बरसते ही रहते हैं।
कभी वे पिता रूप में दिखाई देते है तो अगले ही क्षण मातृ रूप में वात्सल्य से भरे हुए। कभी हंसकर सखा बनकर हालचाल भी पूछते चलते हैं और बन्धु बनकर जीवन के गोपनीय पक्षों में सलाहकार व सहायक भी बन जाते हैं और ठीक उन्हीं क्षणों में गुरु स्वरूप में आगे-आगे मार्ग बताते चलते हैं, पीछे से सहायक बनकर साथ-साथ चलते हुए हौसला और ढ़ाढस भी देते जाते हैं, जीवन के पथ पर भी और आध्यात्मिकता की खड़ी चढ़ाई पर भी।
इसी से प्रत्येक व्यक्ति यह कहते हुए तृप्त नहीं होता कि गुरुदेव को केवल और केवल वहीं वास्तविक रूप से जानता है, क्योंकि पूज्य गूरुदेव का व्यक्तित्व ही प्रकृति के समान इसी प्रकार से है, जो प्रत्येक को आश्वस्ति व संतोष देने में सहायक है। समाज के अनेक वर्गों के व्यक्ति उन्हें अलग-अलग ढ़ंग से देखते आए हैं और जिसके मानस में जो छवि बनी उससे अलग हटकर वे दूसरे रूप की कल्पना भी नहीं करना चाहते।
वस्तुतः गुरुदेव से हम अपने मन वृत्तियों के अनुसार ही साक्षात्कार करते हैं और यह उनकी पूर्णता है कि प्रत्येक को अपनी मनचाही छवि उनसे मिल जाती है। किसी ने उनमें कृष्ण को देखा और किसी ने उनमें साक्षात् शिव को। एक व्यक्तित्व की विराटता का इससे अधिक और क्या प्रमाण हो सकता हैं ? प्रकृति भी इसी प्रकार सभी को अपने आपमें समेट लेती है जिस प्रकार समुद्र पूर्ण सूखे तट को अपने हृदय से लगा लेना चाहता है उसी प्रकार गुरु की फ़ैली हुई बांहे भी अपने प्रत्येक शिष्य को सीने से लगाने के लिए, उसको भिगो देने के लिए निरन्तर उमड़ती-घुमड़ती ही रहती हैं। उनके सारे शरीर और आंखों से इन्ही मौन तरंगों का वेग आकर प्रकृति के समान सरस और चैतन्यता देने वाला होता है।
केवल व्यक्तित्व के ही नहीं, ज्ञान-विज्ञान के भी अनेक पक्ष उनके व्यक्तित्व में यों समाहित होते हैं कि व उनके द्वारा ही अद्भूत प्रतीत होते है, चाहे वह ज्योतिष की बात हो या तंत्र की, मंत्र विज्ञान की जटिलताएं हों या आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र। भारतीय ज्ञान के तो अनेक पक्ष हैं और वे सभी पूज्य गुरुदेव के विराट ज्ञान रूपी शरीर में अंगों की ही भांति स्पष्ट होते हैं।
पूज्यपाद गुरुदेव तो सजीव ग्रन्थ हैं उनके एक-एक दृष्टिपात और शब्द का कुछ अर्थ होता है। प्रतिपल मौन रहते हुए वे इतना कुछ कहते हैं जिससे उसके शिष्य रूपी ग्रंथों में पृष्ठ दर पृष्ठ जुड़ते जाते हैं – पूज्यपाद गुरुदेव की कल्पना के जीवित ग्रंथ! लेकिन यह हम सभी की पात्रता नहीं है कि उनके मौन को समझ सकें । उनके इंगितों को यथावत् समझ सकें, उनके द्वारा उच्चारित शब्दों को उस रूप में समझ सकें जिस रूप में उन्होंने उसे प्रकट किया है।
जल में घट-घट ही में जल है, बाहर भीतर पानी
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यह तथ कहयो गियानी
सद्गुरु की पैनी अन्तर्दृष्टि शिष्य में सन्निहित संभावनाओं का अवलोकन कर उसमें नर से नारायण बनने का मार्ग प्रशस्त करती है। ‘गुरु गुड़, चेला शक्कर’ रूपी परिणाम सद्गुरु को गौण नहीं वरन् नित्य वन्दनीय बना कर शिष्य के हृदय में श्रद्धा की अजस्र धारा को मूर्त्त रूप प्रदान करता है –
गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरु: साक्षात् परबह्म्र, तस्मै श्री गरुवे नमः।।
गुरु सृष्टि का रचनाकार ब्रह्मा पालन पोषण करने वाला विष्णु तथा प्रलयंकर शिव का संयुक्त स्वरूप है, वहीं दृश्यमान एवं साक्षात् परब्रह्म परमात्मा है अतः इस धरा पर परम शक्ति परम तत्व सर्व शक्तिमान ईश्वर की अनुभूति का सुनिश्चित सोपान ‘गुरू’ ही है।
इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि जो जिज्ञासु अपनी तपस्या एवं साधना के बल से सिद्धि प्राप्त कर सिद्ध हो जाते हैं वे मुक्त तो हो ही जाते हैं परन्तु सांसारिकता से घोर निर्लिप्त एवं तटस्थ होकर लोकमंगल की भावना से युक्त होकर पीडि़त मानवता के कल्याण की भावना से अपने शिष्यों से आत्मीयता पूर्ण समान व्यवहार का उन्हें सन्मार्ग की ओर उन्मुख करते हैं । शिष्य जब अज्ञान व भ्रम का शिकार होकर ईश्वर को ढूंढने की असफ़ल चेष्टा करता है तो गुरु का स्नेहपूर्ण दिशा बोध ही उसे उचित लक्ष्य की ओर उन्मुख करता है।
‘‘गुरु गोविंद दोनों खडें काके लागू पावं ?
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय’’
लेाक मंगल की महत्ता – वैदिक संस्कृति की परम्परा के अनुरूप मनुष्य जीवन की सार्थकता भगवद्प्राप्ति अथवा आत्म कल्याण है। इसे और सहज एवं व्यवहारिक बनाते हुए जीवन को चार आश्रम यथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वान एवं सन्यास आश्रम में इसलिए विभक्त किया गया ताकि मनुष्य सभी आश्रमों का कर्त्तव्य निर्वाह करते हुए अन्त में मोक्ष अथवा मुक्ति के लक्ष्य को प्राप्त कर परमात्मा स्वरूप होकर ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ के उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त कर ले । हमारा धार्मिक इतिहास ऐसे सिद्ध तपस्वियों से सुशोभित है जिन्होंने अपनी आत्मा को परमात्मा में विलीन कर अखिलेश्वर, सर्वेश्वर का अद्भुत शाश्वत आनन्द प्राप्त कर लिया तथा विशुद्ध रूप से परमात्मा तत्व के रूप में परिवर्तित हो गए तथापि अपने शेष जीवन का सदुपयोग ईश्वर द्वारा निर्मित इस संसार का कल्याण करने में ही किया । जैन धर्म के अन्तर्गत कैवल्य ज्ञान प्राप्त कर भगवान महावीर न जैन चेतना का अलख जगाया, भगवान बुद्ध ने सत्य का बोध कर दया व करूणा की भावना से तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों में दिशाहीन मानव समुदाय का दिशा निर्देश कर लोक कल्याण का कीर्तिमान स्थापित किया । भगवान कृष्ण द्वारा महाभारत के अवसर पर कुरुक्षेत्र के मैदान में मोह ग्रस्त अर्जुन को गीता का प्रदत्त ज्ञान मानव मात्र को निष्काम कर्मयोग की ओर उत्प्रेरित करने का मूल मंत्र है । स्वयं श्रीकृष्ण इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं कि जो व्यक्ति भौतिक, आध्यात्मिक क्षेत्र में सिद्ध एवं सर्वोच्च हो जाय उसे मानव-सेवा कर ईश्वरतुल्य कर्त्तव्य निर्वाह करना चाहिए ।
भारतीय ऋषियों, मुनियों, सिद्धों, महापुरुषों ने गुरु रूप मे अपनी भूमिका का निर्वाह कर इस गौरवमय परम्परा को निरन्तरता प्रदान की है। अतः गुरु देवतुल्य एवं परिपूर्ण ईश्वर ही हैं। गुरु के चरणाविन्द (चरणकमल) में शिष्य का भाव समर्पण ही लक्ष्य प्राप्ति की अनुकूल अवस्था है। सिद्ध सद्गुरु कुबेर तुल्य होकर मुक्त हाथों से जब अपनी ज्ञान गंगा प्रवाहित करते हैं तब भक्त की, शिष्य की, सामान्य जन की यह प्रतिक्रिया कितनी सटीक प्रतीत होती है कि जिस प्रकार उछलती, इतराती, छलांग लगाती हुई विभिन्न नदियां अपने स्वतंत्र अस्तित्व में होती हैं तब तक ही उनकी अलग-अलग भूमिकाएं होती हैं परन्तु जैसे ही वे समुद्र में विलीन होकर उसमें एकाकार जाती हैं तो उनकी स्वतंत्र सत्ता समाप्त हो जाती है तो वे धीर गंभीर मर्यादित समुद्र क अभिन्न अंग बन कर मानो कबीर की वाणी को सार्थक करती है –
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं।
शिष्य का असीम एकात्म भाव सद्गुरु की कृपा एवं आशीर्वाद से उसे संत तुलसी की परिकल्पना के अनुरुप उस अलौकिक लोक में पहुंचा देता है कि
सियाराम मय सब जग जानी
करहूं प्रणाम जोरिजुग पाणि
यद्यपि ईष्या त्याज्य है परन्तु एक जिज्ञासु साधक उस समय सुखद ईष्या का अनुभव करता है कि यदि उसके साथी को ऐसे गुरु का सान्निध्य एवं आशीर्वाद प्राप्त है जो क्यों न उसे भी सन्मार्ग की ओर उत्प्रेरित कर अज्ञात से ज्ञात, भौतिकता से आध्यात्मिकता तथा लौकिक से परलौकिक स्थिति का सर्वज्ञ बना कर उसमें सांगोपांग परिवर्तित कर दे। अतः हे प्रभो ! न केवल मुझे अपितु समस्त जिज्ञासु जगत को सद्गुरु के रुप में सौभाग्य प्रदान करें।
पूज्यपाद गुरुदेव के विविध स्वरूपों का परिचय पत्रिका के माध्यम से समय-समय पर प्रकाशित होता रहा क्योंकि उनके किसी एक अंश से भी कोई आकृष्ट हो सका, समझ सका कि ऐसा तो युगों-युगों में होता है कि इतना अधिक ज्ञान, इतनी अधिक चेतना, करुणा, अपनत्व और हजारों-लाखों को एक साथ ले चलने की क्षमता किसी एक में होती है, तो हमारा प्रयास सार्थक हो जाएगा। एक व्यक्ति का खड़ा होना भी उत्सवमयता प्रारम्भ होने की पूर्ण स्थिति है। टहनी पर जब एक पुष्प खिलता है तो बगल की अवगुंठित कली स्वयमेव ही निद्रा छोड़ खिलने की ओर बढ़ ही जाती है।
यही प्रकृति का शाश्वत नियम है।
गुरु का सही परिचय प्रकृति ही है।
प्रकृति के माध्यम से ही उनका सही परिचय प्राप्त किया जा सकता है। जब व्यक्ति अपनी सामान्य जीव-अवस्था से ऊपर उठता हुआ साधक बनता है, शिष्य बनता है, तभी उसे जीवन के और गुरु के विभिन्न रंग, विभिन्न आयाम देखने को मिलते हैं, निहारने की कला आती है और अपने गुरुदेव को समझने की शैली विकसित होती है, तब उसके लिए प्रकृति का सारा व्यापार उसी विराट पुरूष की प्रार्थना हो जाती है। वह देखने लगता है कि वह अकेला ही नहीं उसके साथ-साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड नित्य प्रार्थना में तल्लीन है और ऐसा देखने ऐसा अनुभव करना ही अनहद का श्रवण है। जो वृक्षों की झूमती टहनियों व बहते जल की कल-कल धवनि से अपने अन्दर की छुपी सुप्त वीणा को झंकृत कर देता है। तब उसकी दृष्टि सामान्य दृष्टि नहीं रह जाती, वह आम व्यक्ति की तरह जीवन की स्थितियों को नहीं देखता। वह गुरु को एक देह के रूप में नहीं देखता, वह उन्हें आत्म स्वरूप में देखता है। उसका द्वैत भाव समाप्त होने लगता है। वह गुरु के सामने खड़ा होता है तो उसे ऐसा आभास होता है मानो वह एक शुद्ध निर्मल दर्पण में अपना ही चेहरा देख रहा हो।
उसका व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है और गुरु का व्यक्तित्व बन जाता है। वह एक ऐसी उन्मुक्तता में विलीन हो जाता है जहां किसी भी पद या सम्बन्ध का अर्थ रह ही नहीं जाता, क्योंकि जिन पदों व सम्बन्धों के द्वारा हम कुछ बौने से सिद्ध होने लगते है और सम्बन्धों की संज्ञा की आवश्यकता रह भी कहां जाती है ?
सम्बन्ध तो जब दो होते हैं तभी व्यक्त किए जाते हैं, जहां केवल एक का ही अस्तित्व हो, जहां केवल गुरुदेव का व्यक्तित्व ही आकर व्याप्त हो गया हो, वहां शिष्य की संज्ञा भी आवश्यक नहीं रह जाती। जिस प्रकार प्रकृति स्पन्दित रहती हुई उसी विराट की अभ्यर्थना में सदैव तल्लीन रहती है, शिष्य भी उसी प्रकार प्रति क्षण अभ्यर्थना में तलीन हो जाता है, और यही जीवन की सर्वोच्च स्थिति है तब वह भी सौन्दर्यमय हो जाता है, रूपमय हो जाता है और अपने गुरु की तरह, प्रतिक्षण प्रकृति की तरह बदलने की कला आत्मसात् कर लेता है।
यह ऐसे ही प्रकृतिमयता के आन्दोलन को प्रारम्भ करने का वर्ष है। प्रकृतिमय लगेंगे, पुष्पों के खिलने की बात होगी और ऐसे हरे भरे विश्व पर ही आनन्द के पक्षी आकर कलरव का संगीत उन्मुक्त पंखों की फ़ड़फ़ड़ाहट शोर के साथ भर देंगे, जिसमें जीवन की धड़कन होगी। हम ऐसे ही विश्व की रचना करने में आपको आमत्रंण दे रहे हैं।
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