गुरु का कर्त्तव्य है कि बराबर शिष्य पर प्रहार करे, और शिष्य के पास एकमात्र विकल्प है कि उस प्रहार को सहन करे। शिष्य में सहन करने की क्षमता नहीं है तो वह शिष्य नहीं बन सकता है और गुरु में प्रहार करने की क्षमता नहीं है तो वह गुरु नहीं बन सकता।
शिष्य के सामने यदि कोई गुरु पर प्रहार कर लेता है—-शब्दों के माध्यम से या प्रश्न के माध्यम से, और वह चुपचाप सुन ले या यदि गुरु की निन्दा हो रही हो और वह सुन ले तो उससे बड़ा पापी इस संसार में कोई नहीं।
शिष्य की पूंजि केवल तीन चीजें होती हैं, चौथी अगर शिष्य के पास है तो वह शिष्य नहीं है। शिष्य के पास चौथी चीज होनी ही नहीं चाहिए, उसके पास केवल समर्पण होता है, उसके पास सेवा होती है, उसके पास श्रद्धा होती है।
गुरु जैसा करे वैसा तुम्हें करने की जरुरत नहीं है, गुरु जैसा कहे वैसा करने की जरुरत है। गुरु ऐसा क्यों कर रहा है, तुम उसे अभी समझ नहीं पाओगे।
श्रद्धा के साथ अपने आप को पूर्ण रुप से समर्पित करने की क्रिया का भी भान होना चाहिए, इसलिए नहीं कि तुम्हारे समर्पण करने से गुरु को तहानता मिलती है, गुरु की महानता तो उसके ज्ञान से है।
शिष्य में समर्पणता होनी आवश्यक होती है, शिष्य को गुरुत्व प्राप्त करने के लिए समर्पण का होना आवश्यक है—-और समर्पण का अर्थ है ‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेवं समर्पये’ ‘‘मैं’’ कुछ हूं ही नहीं।
गुरु कहे और शिष्य करे, वह तो मामूली मनुष्य है, और गुरु कहे शिष्य करे ही नहीं वह राक्षस है, गुरु नहीं कहे और शिष्य इशारा समझ कर करे, वह देवता है।
यह गुरु ज्यादा जानता है कि तुम्हें क्या काम सौंपना है इसलिए यह तुम पर निर्भर है कि तुम पादपद्म बन सको, तुम विवेकानन्द बन सको, यह तुम्हारे हाथ में है, गुरु तो एक जगह खड़ा है।
जिस क्षण शिष्य के जीवन में तरंग आती है, जिस क्षण उसके जीवन में आनन्द की हिलोर आती है, तो वह निरंतर अग्रसर होता रहता है, क्योंकि लहर रुकती नहीं। पत्थर या लकड़ी एक जगह रुक सकती है, लहर नहीं रुक सकती।
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