पुरूष वह है जो अपना नया रास्ता नापे, नया रास्ता बनाए, नया विचरण करे। वह पुरूष होता है जो हिमालय के तफ़ूान को सीने पर झेले, वह पुरूष होता है जो तफ़ूानों को अपनी मुट्ठी में दबोचे और आकाश में यमराज से आंखों से आंखे मिलाकर छाती पर पांव रख कर कहे कि ‘‘मैं हूं’’ और मेरे सामने तुम कुछ भी नहीं हो, वह पुरूष कहलाता है, पौरूष कहलाता है।
मैं आप सब का पिता हूं, आपकी माता हूं, बहन हूं, आपका रखवाला हूं और रहूंगा, कहीं भी मन में हिचकिचाहट लाने की जरूरत नहीं, कोई भी चिंता करने की जरूरत नहीं है।
आप साधना करें, नहीं करें, आप सिद्धियां प्राप्त करें अथवा नहीं करें, इस बात की कोई मुझे इच्छा है ही नहीं। मुझमें ज्ञान, तेजस्विता का अंश होगा, तो आप जैसे भी हों, जिस स्थिति में भी हों आपको ले करके कंधो पर बिठाकर भी लेकर चला जाऊंगा, इस बात की गारण्टी है, क्योंकि मेरे अन्दर ब्रह्मत्व है और जाग्रत अवस्था में है।
ये चेतना, ये ज्ञान पूरे आर्यावत में व्याप्त करना चाहिए हमें, हमें एहसास करना चाहिए, शेर की तरह अगर एक पांव आगे बढ़ाएंगे तो हाथी अपने आप हिल जाएगा, पहाड़ रास्ते से अपने आप हट जाएगा और ऊफनती नदी भी रास्ता छोड़ देगी—-बस एक पैर आगे बढ़ाने की जरूरत है।
जो कायर और बुजदिल है उनके सफ़ेद बाल भी आ जाएंगे, वे एक तरफ़ बैठे भी रहेंगे और मुत्यु को भी प्राप्त जाएंगे। वह जीवन नहीं, वह चेतना नहीं है, वह बुद्धिवादिता है, न्यूनता है, अल्पज्ञता है, अपौरूषता है।
विष्णु को सहत्राक्षि कहा गया है, उनके हजार हाथ हैं, हजार आंखे है और आप भी, कोई मेरे हाथ हैं, कोई पांव हैं, कोई नेत्र हैं, कोई नासिका हैं, और आपके शरीर के प्रत्येक अंग, आप से मिलकर के एक गुरू बनता है, जिसका नाम निखिलेश्वरानन्द है।
कभी कोई क्षण ऐसा आए, जब आपकी आंख भीगे, कभी ऐसा क्षण आए जब ‘गुरूदेव’ शब्द सुनते ही तुम्हारा हृदय गद्गद् हो जाय, कभी ऐसा क्षण आए जब आप रह ही न सकें, गुरु आपके पास से जाएं और आप रूक जाएं, आपके हाथ रूक जाएं, आपका शरीर रुक जाए तो आप शिष्य क्या हुए?तो आपमें पात्रता क्या हुई?- –मैं गुरुदेव को देखूं और उनके पीछे एक मील दौड़ता हुआ उनके चरणों से न लिपट जाऊं तो मेरी शिष्यता क्या चीज है ?—–फि़र ऐसा शिष्य होना धिक्कार है, ऐसा शिष्य मैं तुम्हें नहीं बनाना चाहता।
नदी कभी नहीं रुकती, बहती रहती है, जब तक समुद्र में विलीन नहीं हो जाती—- दौड़ती चली जाती है और समुद्र में पूर्ण रूपेण विलीन होती है। उसको ही नदी कहते हैं, उसको ही शिष्यता कहते हैं, उसी को पात्रता कहते हैं—–।
तुम्हारी जिन्दगी में आनन्द तभी हो सकता है जब बुद्धि को एक तरफ़ करके, श्रद्धा के द्वारा जुड़ोगे। देवताओं के प्रति, मंत्र के प्रति, तीर्थ के प्रति, और गुरू के प्रति श्रद्धा से जुड़ोगे, तभी फ़ल मिलेगा।
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