जीवन का मूलभूत तात्पर्य ही विरह है और विरह के माध्यम से ही एक शिष्य पूर्ण रूप से अपने गुरू में आत्मसात् हो सकता है। गुरू तक पहुँचने के लिये शिष्य के अन्दर एक वेग, एक तीव्रता होनी चाहिये, मन में एक ज्वार होना चाहिये।
गुरू को तुम भले ही भौतिक रूप में देखों परन्तु वह तो होता है प्राणों का धनी भूत स्वरूप, जहां से होता है जीवन का नवीन सृजन। इसीलिये गुरू को माता और पिता दोनों कहा गया है।
बिना गुरू स्पंदन के तुम्हारा शरीर एक खोखला, प्राण रहित रक्त मज्जा का पिंड मात्र है। ऐसा शरीर जीवित तो है परन्तु उसमें आनन्द नहीं है। तुम्हारे इस दुनिया के पास आनन्द का स्त्रेत नहीं है जहां जाकर तुम आनन्द में डूब सको।
शिष्य जिस धरातल पर खड़ा होता है उसके बराबर अवस्था में ही आकर ज्ञान प्रदान किया जा सकता है। अतः शिष्य जिस स्थिति में होता है गुरू भी उसी स्थिति में आते है।
नदी कभी नहीं रूकती, बहती रहती है, जब तक समुद्र में विलीन नहीं हो जाती, दौड़ती चली जाती है और समुद्र में पूर्णता से विलीन होती है। उसको नदी कहते है, उसको शिष्यता कहते है, उसको पात्रता कहते है।
जब शिष्य अपने गुरू या इष्ट से प्रेम करना सीख जाता है तो उसके जीवन के अणु-अणु में जीवन के कण-कण में, रोम-रोम में, जीवन के प्रत्येक कार्य में आनन्द का एहसास आ जाता है, एक सुगन्ध आ जाती है, एक तंरग सी आ जाती है।
मैं प्रतिपल तुम्हारे साथ बहता हुआ समुद्र के उस किनारे तक पहुँचाने के लिये तैयार खड़ा हूँ। मुझे विश्वास है कि तुम अवश्य ही पार हो सकोगे और एक बार पुनः आशीर्वाद प्रदान करता हूँ कि तुम जीवन में प्रेम और आनन्द को प्राप्त कर सको।
साधक का मन कल्पतरू है। मन के समुद्र में उठती हुई भावनाएं, आत्मिक शक्ति में परिवर्तित हो जाती है। यदि साधक का मन पूर्ण विश्वास, निर्भय, आस्था और कल्याणकारी भावों से भरा होता है तो उसे अनंत वरदान मिलते है। यदि वह विपरित स्थितियों से भयभीत हो जाता है और अमूलय विश्वास खो बैठता है तो वह स्वयं को ही खो देता है तथा सदा के लिये नष्ट हो जाता है।
सुबह से रात्रि तक अथक परिश्रम की दिनचर्या ही साधना है। केवल होठों से मंत्र बुद-बुदाने से साधना नहीं होती।
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