गुरू शिष्य को अपने समकक्ष बनाने का सदैव प्रयास करते हैं, इसी कारण से उन्हें स्वयं सर्वप्रथम शिष्य के अनुरूप स्वरूप धारण करना पड़ता है, परन्तु यह शिष्य की अज्ञानता होती है जो वह गुरू को सामान्य रूप में देखता है, उसके लिये ऐसा चिंतन दुर्भाग्यपूर्ण है।
गुरू के लिये प्रिय और अप्रिय शब्द नहीं होता उनके लिये सबसे महत्वपूर्ण शब्द शिष्य ही होता है और जो शिष्य बन गया, वह कभी अपने गुरू से दूर नहीं होता। क्या परछाईं को आकृति से अलग किया जा सकता है? शिष्य तो गुरू की परछाई की तरह होते है।
गुरू की आलोचना या निंदा करना या सुनना सच्चे शिष्य के लक्षण नहीं। गुरू एक उच्च धरातल पर होते है इसीलिये उनके व्यवहार को समझ पाना संभव नहीं। शिष्य का तो धर्म है कि वह इस ओर ध्यान न दे कि गुरू क्या कर रहे हैं अपितु इस बात पर जोर दे कि गुरू ने उसे क्या करने को कहा है।
यह आवश्यक नहीं कि कोई समस्या हो अथवा जीवन में कोई बाधा हो, तभी गुरू चरणों में पहुँच कर साधना सम्पन्न किया जायें। गुरू के दर्शन मात्र से ही शिष्य का सौभाग्य एवं पुण्य कर्म जाग्रत होते हैं, इसलिये शिष्य को निरन्तर गुरू से सम्पर्क बनाये रखना चाहिये।
गुरू के पास बैठे रहने मात्र से ही साधक के हृदय में ज्ञान का प्रकाश होने लगता है जिसको ब्रह्म प्रकाश कहा गया है, जिससे मन के समस्त प्रकार के भ्रम व चिन्तायें स्वतः ही भाग जाती है। अतः शिष्य को चाहिये कि वह गुरू की निकटता के लिये निरन्तर प्रयत्न करे। जिस प्रकार एक दीपक से दूसरा दीपक पास लाने मात्र से ही जल जाता है, उसी तरह गुरू के सानिध्य मात्र से ही शिष्य का कल्याण हो जाता है।
गुरू से बड़ा मित्र, गुरू से श्रेष्ठ सलाहकार, गुरू से अच्छा मार्गदर्शक और गुरू से अच्छा स्वजन शिष्य को कोई अन्य प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि गुरू से अच्छा मार्गदर्शक और गुरू बिना स्वार्थ के चिंतन करता है, आज्ञा देता है। इसलिये शिष्य को सदा गुरू के शब्दों का पालन करना ही चाहिये। वही उसके लिये श्रेयस्कर है, श्रेष्ठ है।
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