माघ शुक्ल सप्तमी का अर्थ है रथ सप्तमी। इस वर्ष तिथि के अनुसार रथ सप्तमी 28 जनवरी को है। यह दिन सूर्यनारायण की पूरी श्रद्धा से पूजा करने का और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है। प्रत्येक वर्ष मकर संक्रांति पर आयोजित होने वाला हल्दी-कुमकुम समारोह रथ सप्तमी के दिन संपन्न होता हैं। हिन्दू संस्कृति में इस दिन का विशेष महत्व है
रथ सप्तमी वह दिन है जब सूर्य देव हीरे से जडि़त सोने के रथ में विराजमान हुये। सूर्यदेव को स्थिर रूप से खड़े रह कर साधना करते समय स्वयं की गति संभालना संभव नहीं हो रहा था। उनके पैर दुखने लगे और उसके कारण उनकी साधना ठीक से नही हो रही थी । तब उन्होंने परमेश्वर से उस विषय मे पूछा और बैठने की व्यवस्था करने के लिये कहा। मेरे बैठने के उपरांत मेरी गति कौन संभालेगा? ‘ऐसा उन्होंने परमेश्वर से पूछा’। तब परमेश्वर ने सूर्यदेव को बैठने के लिये सात घोड़े वाला हीरे से जड़ा हुआ सोने का एक रथ दिया। जिस दिन सूर्यदेव उस रथ पर विराजमान हुये, उस दिन को रथसप्तमी कहते हैं। इसका अर्थ है ‘सात घोड़ों का रथ’। सूर्य देव के रथ में सात घोड़े सप्ताह की सात दिनों का प्रतिनिधित्व करते हैं। रथ के बारह पहिये बारह राशियों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
माघ शुक्ल पक्ष सप्तमी को ‘रथ सप्तमी’ कहा जाता है। महर्षि कश्यप और देवी अदिति के गर्भ से सूर्य देव का जन्म इसी दिन हुआ था। श्री सूर्यनारायण, भगवान श्री विष्णु के एक स्वरूप ही है। सम्पूर्ण विश्व को अपने महातेजस्वी स्वरूप से प्रकाशमय करने वाले सूर्यदेव के कारण ही पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व है। सूर्य की ऊर्जा से ही पृथ्वी पर जीवन चालायमान है,
रथसप्तमी एक ऐसा त्योहार है जो सूचित करता है कि सूर्य उत्तरायण में मार्गक्रमण कर रहा है। उत्तरायण अर्थात उत्तर दिशा से मार्गक्रमण करना। उत्तरायण यानी सूर्य उत्तर दिशा की ओर झुका होता है। ‘श्री सूर्यनारायण अपने रथ को उत्तरी गोलार्ध में घुमा रहे हैं’, इस स्थिति मे रथसप्तमी को दर्शाया गया है। रथसप्तमी किसानों के लिये फसल का दिन और दक्षिण भारत में धीरे-धीरे बढ़ते तापमान का दर्शक है एवं वसंत ऋतु नजदीक आने का प्रतीक माना गया है।
जीवन का मूल स्रोत है सूर्य सूर्य जीवन का मूल स्रोत है। सूर्य की किरणें, विटामिन ‘डी’ जीवनसत्व प्रदान करती हैं, जो शरीर के लिए आवश्यक है। समय का मापन सूर्य पर निर्भर होता है। सूर्य ग्रहों का राजा है और इसका स्थान नवग्रहों में है। यह स्थिर है और अन्य सभी ग्रह इसकी परिक्रमा करते हैं। सूर्य स्वयं प्रकाशमान है और अन्य ग्रह उसका प्रकाश प्राप्त करते हैं।
हिंदू धर्म में सूर्य देव की पूजा का बहुत महत्व है। प्रतिदिन प्रातः काल सूर्य को अर्घ्य देने से, सूर्य देव अपनी तेजस्विता व शक्ति से अंधकार का नाश कर जगत को प्रकाशमान करते हैं, साथ ही सूर्य देव की चेतना को आत्मसात कर मनुष्य अपने व्यक्तित्व में सूर्य के समान तेजस्वी गुणों का विस्तार कर सकता है, जिससे उसके व्यक्तित्व में सम्मोहन आकर्षण के गुणों का समावेश होने लगता है।
ज्योतिष शास्त्र अनुसार रवि (अर्थात् सूर्य) आत्मकारक है। मानव शरीर का जीवन, आध्यात्मिक शक्ति और चैतन्य शक्ति इनका बोध रवि के माध्यम से होता है, यह उसका अर्थ है। किसी की जन्मकुंडली में सूर्य जितना बलवान होगा, उसकी जीवन शक्ति और प्रतिरोधक क्षमता उतनी ही बेहतर होगी। राजा, मुखिया, सत्ता, अधिकार, कठोरता, तत्वनिष्ठ, कर्तृत्व, सन्मान, प्रसिद्धि, स्वास्थ्य, वैद्यकशास्त्र आदि का कारक रवि है।
सूर्यदेव से प्रार्थना करें और भक्ति के साथ आदित्य हृदयस्तोत्रम, सूर्याष्टकम् और सूर्य कवचम् में से किसी एक स्त्रोत का पाठ करें या सुनें।
रथसप्तमी पर किये जाने वाले सूर्यदेव की पूजा विधि यह दिन सूर्यदेव की अभ्यर्थना-आराधना करने का सुश्रेष्ठ अवसर है, इस दिन सुर्योदय से पूर्व स्नान कर सूर्यदेव के 12 नाम ले कर कम से कम 12 सूर्य नमस्कार करें, अब अपने पूजन स्थान में आसन ग्रहण कर सूर्य देव का पूजन करें और विशेष रूप से आदित्य हृदयस्तोत्रम् का पाठ अवश्य ही करें। इसके पश्चात् गुरू आरती व सूर्य आरती सम्पन्न करें और दूध से बना हुआ प्रसाद परिवार के सभी सदस्य ग्रहण करें।
।। आदित्यहृदय स्तोत्रम् ।।
।। पूर्व पीठिका ।।
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्।।1।।
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपगम्याब्रवीद् राममग्रस्त्यो भगवांस्तदा।।2।।
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्मं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे।।3।।
आदित्य हृदयं पुण्यं सर्वशत्रु विनाशनम्।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्।।4।।
सर्वमंगल मागल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोक-प्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्।।5।।
विनियोग- ॐ अस्य श्री आदित्य हृदय स्तोत्रस्यागस्त्य ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः आदित्यहृदय भूतो भगवान् ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वशत्रुक्षयार्थ पूर्वकं सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः।
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