एक दुर्लभ, गोपनीय और प्रत्येक साधक के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साधना——-
यह एक सरल साधना है, पर सिद्ध होने पर समस्त शत्रुओं को तहस-नहस कर डालती है—- एक दुर्लभ, गोपनीय और प्रत्येक साधक के लिए महत्वपूर्ण साधना। साधना पथ के अनुगामी छिन्नमस्ता महाविद्या साधना सम्पन्न करना अपने जीवन की श्रेष्ठता ही समझते हैं। छिन्नमस्ता साधना दस महाविद्याओं की श्रेष्ठ साधना है, सर्वोच्च साधना है।
यद्यपि यह साधना अत्यन्त दुष्कर एवं दुर्बोध है, साधारणतः कोई भी गुरु इसे देने के पक्ष में नहीं रहते हैं क्योंकि यह अति तीक्ष्ण, शीघ्र प्रभावी व तेजस्वी साधना है। यह साधना सिद्ध करने के बाद उसे किसी भी अन्य साधना को सिद्ध करने में कोई समय नहीं लगता है। संभवतः इस साधना की तीक्ष्णता के कारण ही कोई भी गुरु इसे अपने शिष्यों को शीघ्रता से नहीं दे पाते थे। अपने शिष्यों को अत्यन्त कठिन परीक्षाओं की कसौटियों पर कस कर ही वे किसी एक शिष्य को यह साधना प्रदान करते और फिर वह शिष्य अत्यन्त तेजस्वी बनता ही था और अपने जीवन में सर्वोच्चता को प्राप्त करता ही था।
इसी प्रकार से पूज्य गुरुदेव अपने किसी एक विशेष शिष्य को ही नहीं, वरन समस्त शिष्य समूह को सूर्य के समान प्रभाववान बनाना चाहते हैं। वे उन्हें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वोच्चता प्रदान करा देना चाहते हैं और इसी प्रक्रिया को पूर्णता देने के लिए वे यह साधना आप सभी शिष्यों को प्रदान कर रहे हैं।
गृहस्थ साधकों के लिए भी यह साधना अत्यन्त श्रेयस्कर है, यद्यपि वे गृहस्थ हैं, परन्तु उनकी समस्याएं कम नहीं हैं। उन्हें भी जीवन की विभिन्न परिस्थितियों से जूझना पड़ता है, स्वयं को समाज में स्थापित करने के लिए स्वयं को स्थापित करने का प्रयत्न वे जितना अधिक करते हैं, उनको विफल करने का प्रयत्न उतने ही अधिक उनके शत्रु उनके समक्ष उपस्थित होकर करते हैं। कभी-कभी तो शत्रु इतने अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं, कि वे व्यक्ति को समाज से समूल समाप्त करने तक की तैयारी कर लेते हैं।
परन्तु यह साधना सिद्ध करने के बाद आपके समस्त शत्रु आपके सामने खड़े नहीं हो पायेंगे, क्योंकि यह साधना तो त्रैलोक्य विजयनी देवी की साधना है, जिसके फलस्वरूप वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर पूर्णता प्राप्त कर ही लेता है, चाहे वह राजनीति का क्षेत्र हो या व्यापार का। छिन्नमस्ता देवी स्वयं ही साधकों को पूर्णता देने में समर्थ हैं, इनकी करुणा के बारे में एक प्रसंग को उद्धत कर रहा हूं – एक बार छिन्नमस्ता अपनी दो सखियों जया और विजया के साथ स्नान करने गईं। वहां पर उनकी सखियां क्षुधा से अत्यन्त पीडि़त हो गई और उन्होंने देवी से प्रार्थना की, कि वे उनकी क्षुधा को शांत करने का कुछ उपाय करें। देवी ने उन्हें कुछ देर शांत रहने को कहा, परन्तु कुछ देर बाद वे फिर व्यग्र हो उठी। देवी ने पुनः उन्हें प्रतीक्षा करने को कहा।
कुछ समय बाद वे पुनः कातर स्वर में वन्दना करती हुई बोलीं – देवी! आप तो अत्यन्त करुणामयी हैं, आप अपने भक्तों की प्रार्थना तुंरत स्वीकार करती हैं। उनके इस कथन पर देवी ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उनकी क्षुधा को शांत करने के लिए स्वयं का ही मस्तक काट दिया और फिर उनके धड़ से जो रक्तधारा प्रवाहित हुई उससे जया और विजया ने क्षुधा शांत की। उनके धड़ से तीन रक्त धाराएं प्रवाहित हुई, जिसमें से दो उनकी सखियां जया और विजया ने ग्रहण किया तथा तीसरी स्वयं उन्होंने अपने मस्तक में, जिसे उन्होंने अपने हाथ में पकड़ रखा था, धारण किया। यदि कोई साधक छिन्नमस्ता साधना सम्पन्न करता है, तो वह अपने समस्त शत्रुओं का संहार कर, साधनात्मक रूप से आने वाली बाधाओं, उसके विकारों आदि को समाप्त कर वह अन्य साधनाओं की सफलता हेतु सुदृढ़ स्थिति तैयार कर लेता है तथा शीघ्र ही वह अन्य साधनाओं में सफलता प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है।
साधनात्मक अवस्थाओं में छिन्नमस्ता साधना मुख्यतः साधक स्वयं के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को दूर करने और शत्रुओं को मार्ग से हटाने तथा स्वयं का मार्ग निर्विघ्न बनाने के लिए सम्पन्न करते हैं। छिन्नमस्ता साधना सम्पन्न करने से साधक सभी दृष्टियों से सम्पन्न होकर सुखी रहता है, वह स्वयं में इतना प्रभावी और सक्षम बन जाता है कि शत्रु उसके सामने खड़े नहीं हो पाते, वह शत्रुओं पर सदैव हावी रहता है। छिन्नमस्ता उग्र स्वरूप के साथ-साथ अत्यन्त करुणामयी स्वरूप को भी धारण की हुई है, जिसके कारण वे गृहस्थ साधकों को भी धारण किये हुऐ है, जिसके कारण वे गृहस्थ साधकों के प्रति अत्यन्त वात्सल्य भाव से युक्त होती है। इनके सौम्य स्वरूप को सिद्ध करने पर भी साधक अपने समस्त शत्रुओं को तहस-नहस करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, देवी अपने साधक को पूर्ण रूप से सहायता प्रदान करती हैं।
साधना विधान
इस साधना में आवश्यक सामग्री है – ‘छिन्नमस्ता यंत्र’ व ‘काली हकीक माला’ है। यह 21 दिवसीय साधना है। यह साधना किसी भी शनिवार से प्रारम्भ की जा सकती है। साधक स्वच्छ वस्त्र धारण कर साधना में बैठें। बाजोट पर शुद्ध वस्त्र बिछाकर छिन्नमस्ता यंत्र को स्थापित करें तथा यंत्र का पूजन करें। उसके सामने निरन्तर तेल का दीपक जलता रहना चाहिए।
देवी का ध्यान करें-
भास्वन्मण्डल मध्यगां निजशिश्छित्रां विकिर्णालक,
स्फरास्यं प्रतिबदृगलात्स्वरूधिरं वामे करे विभतीम्।
याभास्क्तरतिस्मरोपतितां सख्यों जिने गकिनीः
वार्णिन्यौ परिदृश्ममोद कलितां श्री छिन्नमस्तां भजे।।
यंत्र पर कुंकुंम लगाते हुए छिन्नमस्ता के मूल मंत्र का पांच बार उच्चारण करते हुए अक्षत चढ़ाते हुए मंत्र जप करें –
21 दिनों तक नित्य 1 माला मंत्र जप करें। साधना समाप्ति के 21 दिन बाद समस्त सामग्री, यंत्र व माला, दोनों को नदी में प्रवाहित कर दें।
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