तदोपराद् देवेशि! गुरु मंत्र सु दुर्लभं। मंत्रणां सारभूतं यत् कथयामि महेश्वरि।।
कैलाश पर्वत के शिखर पर भगवान शंकर ने कहा – हे महेश्वरी! तुम्हारे आग्रह से तंत्रे के सार-भूत अति दुर्लभ ‘गुरु मंत्र’ को बताता हूं, जिसके पढ़ने व समझने से दिव्य ज्ञान मिलता है।
न गुरोरधिाकं शास्त्रः न गुरोरधिकं तपः, न गुरोरधिकं मंत्रः न गुरोरधिकं फ़लं।
न गुरोरधिकं देवो न गुरोरधिक शिवः, न गुरोरधिका मुक्तिर्न गुरोरधिकं जपः।।
गुरु से बढ़कर न शास्त्र है, न तपस्या, न मंत्र और न ही स्वर्गादि फलक। गुरु से बढ़कर न देवी है, न शिव, गुरु से बढ़कर न ही मोक्ष या मंत्र जप। एक मात्र सद्गुरु ही सर्वश्रेष्ठ है।
गुरुसेवा प्रकुर्वाणो शिव लोकं स गच्छति। समुक्तः सर्व पापेभ्यः शिव लोकं स गच्छति।।
गुरुदेव की सेवा करता हुआ जो मरता है, वह समस्त पापों से छूटकर शिव-लोक में जाता है।
अज्ञानात पामरो लोके विश्वासं न गुरौ भवेत्, तस्य कल्याणि! मंत्रदौ मम वाक्ये कथं रतिः।
हे देवेशि! अज्ञान के कारण इस संसार में लोगों की बुद्धि भ्रम में पड़ जाती है और उन्हें कोई सिद्धि नहीं मिल पाती। उन्हें गुरु की बातों पर विश्वास नहीं हो पाता, ऐसी दशा में उन्हें मेरे वचनों और मंत्रें पर भी विश्वास नहीं होता है।
गुरु सेवामकृत्वा तु ये भक्ताः कुल सेविनः, तेषां मंत्रश्च देवाश्च प्रसीदन्ति न सर्वदा।
गुरुदेव की सेवा किए बिना जो भक्त कुल धर्म का पालन करते हैं उनसे मंत्र और देवता कभी प्रसन्न नहीं होते। अतः वाणी, मन और शरीर तीनों से ही सदा गुरु कार्यों में तत्पर रहना चाहिए।
क्रोसः मधये स्थितो नित्यमेक वारं समाचरेत्, योजनान्तः स्थितः शिष्यों वर्षे वार त्रयं नमेत्।
जो शिष्य गुरु स्थान के निकट रहता हो (एक कोस की दूरी पर), उसे प्रतिदिन एक बार जाकर गुरुदेव को प्रणाम करना चाहिए। परन्तु यदि कोई शिष्य अनेक योजन अथवा काफी दूर रहता हो, तो भी उसे वर्ष में तीन बार और नहीं तो एक बार तो जाकर गुरुदेव को अवश्य प्रणाम करना चाहिए।
देवी पूजा गुरोः पूजा तृप्तिश्च गुरु तर्पणम्, गुरोः पादाब्ज्योरादौ दद्यात् पुष्पांजलि त्रयम्।
गुरु की पूजा करने से ही इष्ट की पूजा हो जाती है, गुरु का तर्पण करने से और गुरु भक्ति करने से ही इष्ट का तर्पण व भक्ति हो जाती है। गुरु वन्दना करने से ही सर्व देव-देवियों की स्तुति सम्पन्न हो जाती है। ऐसा ही शिष्य को समझना चाहिए।
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