गुरु ईश्वर का वह प्रतिबिम्ब है, जिसे तुम साकार अपनी आंखों के सामने देख सकते हो, ईश्वर को तुमने भले ही न देखा हो पर गुरु के माध्यम से ईश्वर को पहचान सकते हो। परन्तु उसके लिए तुम्हारे हृदय में प्रेम की धारा हो, आंखों में अश्रु की सरिता हो।
आंखों के आंसू अपने आप में दर्द की दास्तान है, प्रेम की कहानी है, विरह के अनबोले बोल हैं।
मैं तुम्हारा ही तो हूं, तुम्हारी ही धड़कनों का स्पन्दन हूं, तुम्हारे हृदय की ही तो सुवास हूं, तुम्हारे आंसुओं की ही भाषा हूं। फि़र मुझे ढूंढने की जरूरत ही कहां पड़ी है।
जिस क्षण गुरु तुम्हें दीक्षा देता है, गुरु तुम्हें अपना लेता है और गुरु तुम्हें अपने मुंह से शिष्य कहता है, ठीक यही क्षण तुम्हारा जन्म का होता है, वही क्षण तुम्हारे जीवन का स्वर्णिम प्रभात होता है।
और प्रभात तो हो ही चुका है, अब तो तुम्हें आकाश में सूर्य बनकर चमकना है और समाप्त कर देना है अंधकार को, पाखण्ड को, अंधविश्वास को, क्योंकि मैंने अपने रक्त के एक-एक कतरे से तुम्हें सींचा है। तुम्हारे अन्दर भी वही तेजस्विता होनी चाहिए जो तुम्हारे गुरु में है।
जो काम तुम्हारी कई-कई पीढि़यो ने नहीं किया, वह तुम्हें करना है, नया इतिहास रचना है। क्योंकि मैं तुम्हारे साथ हूं, तुम्हारे बाजुओं की शक्ति हूं।
शिष्य के लक्षण, शिष्य का चिन्तन, शिष्य का विचार, शिष्य बनकर सेवा ‘मैंने की है। इसलिए मैं गर्व के साथ शिष्य के लक्षण और शिष्य के चिन्तन सुना सकता हूं, समझा सकता हूं। तुम्हारे पास केवल तीन रास्ते हैं, जिससे तुम लोहे से कुन्दन बन सकते हो, और वह है सेवा, समर्पण और श्रद्धा और इन सबका समन्वय है प्रेम।
प्रेम का प्रादुर्भाव होता है विरह से, तड़फ़ से, बेचैनी से—- एक खोया-खोया सा जीवन हो जाता है, शून्य में आंखें एकटक तकती रहती है और आंखों में आंसू छलछला आते हैं—-और कुछ पता नहीं चलता कि क्या हो रहा है।
प्रेम चाहता है, कि मैं सब कुछ प्रदान कर दूं—-दे दूं, अपने आप को उत्सर्ग कर दूं, न्यौछावर कर दूं। यह न्यौछावर करने की क्रिया प्रेम है, यह अपने आपको फ़ना कर देने की क्रिया प्रेम है, और जब तुम प्रेम की परिभाषा समझ सकोगे, तभी जीवन के आनन्द को अनुभव कर सकोगे।
जीवन का मूल धर्म और चिन्तन प्रेममय हो जाना है—- प्रेममय हो जाना ही जीवन है, किन्तु जीवन के इस लक्ष्य तक पहुंचने का जो मार्ग है, वह प्रेम पंथ अति कठिन है।
ध्यान लगाने से आत्मा परमात्मा में विलीन नहीं हो सकती। आत्मा मंत्र जप से परमात्मा में लीन नहीं हो सकती, क्योंकि आत्मा का परमात्मा तक पहुंचने का जो रास्ता है वह वेदना का है, तड़फ़ का है, विरह का है, समुद्र में डूब जाने का है।
संसार में जितने भी काव्य रचे गए हैं, उनमें से अधिकतर विरह के काव्य ही अमर हुए।
करोड़ों-करोड़ो ग्रन्थ, पुस्तकें, करोड़ों-करोड़ों चिन्तन केवल विरह के हैं, जुदाई के हैं, पर मिलन के नहीं।
प्रेम तो मछली की तरह होना चाहिए, कि पानी से अलग हुई और समाप्त। अब ज्योंहि मैं अपने प्रियतम के चिन्तन से एक क्षण भी अलग होऊं, मेरे प्राण निकल जाने चाहिए। समर्पण की चरम सीमा तो मछली से सीखी जा सकती है।
जब भी कभी तुम्हारे अन्दर विरह की अग्नि उत्पन्न हो, जब भी कभी तुम्हारे दिल में छटपटाहट उठे, तो समझना कि तुमने गुरु को देखने की नजर पा ली। जब आंखों की कोरें भीगने लगें, तब समझना कि तुमने थोड़ा-थोड़ा गुरु को पहचानना शुरु कर दिया।
सद्गुरु के चरण कमल का एक रजकण भी संसार सागर के पार उतार सकने में पूर्ण सक्षम है। गुरु चरणों की धूलि ही सर्वस्व प्रदान करने में समर्थ है, शिष्य को ऐसा ही भाव मन में रखना चाहिए।
शिष्य के पास जो भी चिंताएं हैं, दुख हैं, परेशानियां हैं, बाधाएं हैं उन सबको गुरु चरणों में समर्पित कर देना हैं।
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