सामान्य तौर पर व्यक्ति दोहरी जिन्दगी जीता है, उसके बाहरी हाव-भाव, व्यवहार, वेशभूषा को देख कर उसके आन्तरिक विचारों के बारे में अनुमान लगाना अत्यन्त कठिन है। व्यक्ति चाहे पुरुष हो अथवा स्त्री, सामाजिक नियमों के अन्तर्गत चलते हुए, समाज में रहते हुए उसे अपनी भावनाओं को दबाना पड़ता है, इच्छाओं को बार-बार मारना पड़ता है। बेमेल जोडे़ बनते हैं, न तो पति को पत्नी से वास्तविक दृष्टि से प्रेम है और न ही पत्नी को पति से, पर निभाये चले जा रहे हैं, एक दूसरे के साथ एक दिखावा करते हुए। इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी, कि इस समाज में व्यक्ति अपने प्रेम भाव को, अपनी इच्छाओं को, अपने आकर्षण को, अपनी कामनाओं को, अपने विचारों को स्पष्ट रूप से बता ही नहीं सकता, मन ही मन ताने बाने बुनता है और तिनकों की नगरी बसाता है।
प्रेम तो वह दिव्य भाव है, जो स्वतः ही उत्पन्न होता है, यह प्रेम किसी के प्रति भी हो सकता है और प्रेम का पहला अध्याय है आकर्षण। यदि प्रेम है तो आकर्षण बल के द्वारा वह अपने आपको खींच लेगा, यह प्रेम स्वयं की पत्नी के प्रति हो सकता है, किसी अन्य स्त्री के प्रति हो सकता है, किसी मित्र के प्रति हो सकता है, अपने गुरु के प्रति हो सकता है, जहां मन को तृप्ति का अनुभव हो, जहां मन की सभी सुप्त शक्तियां जागृत हो उठें, वहां समझो प्रेम प्रकट हो गया।
प्रेम में बड़ी शक्ति होती है और यह शक्ति साधारण व्यक्ति को महामानव बना सकती है। प्रेम कामवासना से जुड़ा हुआ नहीं है, वह क्रिया तो एक शारीरिक क्रिया है, जब कि प्रेम तो पूरे कुण्डलिनी चक्र को जागृत कर देने की क्रिया है, भाव है। जो साधनाएं प्रेम भाव से करने के लिए होती हैं, उन्हें इसी श्रेष्ठ भाव के साथ सम्पन्न करना चाहिए। जब प्रेम प्रकट हो जायेगा, तो वह दूसरे को आपकी ओर अवश्य ही खींच लेगा।
प्रेम-साधना में एक शक्ति भाव, अधिकार भाव जुड़ा रहता है, जिसमें इच्छा शक्ति का प्रधान स्थान है। रो-रो कर दीनता से कोई भी साधना नहीं की जा सकती। प्रेम आपका अधिकार है और इसे इसी रूप में प्राप्त करना आवश्यक है।
सहायता किसी सहयोगी से ही मांगी जा सकती है और सच्चा सहयोगी ही संकट, पीड़ा, बाधा के समय अपना पूर्ण सहयोग देकर मित्रता को मजबूत बनाता है। इसी में मित्रता की सार्थकता है और अप्सरा ही साधक की श्रेष्ठ सहभागी है।
रम्भा, ऊर्वशी, मेनका, तिलोत्तमा, सुकेशी, इत्यादि अप्सराओं के सम्बन्ध में उल्लेख सारे ग्रंथों में तोड़-मरोड़ कर लिखा हुआ है, लेकिन ‘मदनाक्षी’ के सम्बन्ध में बहुत कम वर्णन है, क्योंकि इस साधना की विशेष प्रक्रिया है। इसके कुछ विशेष गुण हैं, इसकी साधना पूरे वर्ष नहीं की जा सकती।
अन्य देव योनी अप्सराओं से मदनाक्षी के लक्षण, गुण, अलग हैं, जो निम्न प्रकार से हैं-
1- मदनाक्षी की उत्पत्ति चौदह रत्नों से पहले मानी जाती है और यह लक्ष्मी तत्व युक्त अप्सरा है।
2- रूप-सौन्दर्य में अन्य अप्सराओं से पूर्णतः अलग है, इसीलिए इसे सर्वांग सुन्दरी माना जाता है।
3- मदनाक्षी में इच्छानुसार रूप परिवर्तन की विशेष शक्ति है, अतः यह किसी भी रूप में प्रकट हो सकती है।
4- मदनाक्षी में त्रैलोक्य आवागमन की अबाध शक्ति है, इस कारण यह अपने सहयोगी साधक के आह्नान पर कभी भी, किसी भी समय आ सकती है।
5- लक्ष्मी तत्व प्रधान होने के कारण यह साधक को धन प्राप्ति के नये उपाय प्रस्तुत करती है, आकस्मिक धन प्राप्ति, गड़े हुए धन के ज्ञान हेतु इसकी साधना विशेष रूप से की जाती है।
6- मदनाक्षी काम स्वरूपा अप्सरा है और इसकी सिद्धि साधक के व्यक्तित्व में काम भाव पूर्ण रूप से भर देती है, जिससे उसका सौन्दर्य आकर्षण युक्त हो जाता है।
7- दूर श्रवण और परिचयानुसंधान अर्थात दूसरों के मन की बात जानने की सिद्धि केवल मदनाक्षी साधना से ही प्राप्त हो सकती है।
8- संन्यासी साधकों के लिए यह साधना पूर्णतया वर्जित है।
साधक यह साधना जहां तक हो एकान्त स्थान में सम्पन्न करे और साधना के सम्बन्ध में किसी से चर्चा नहीं करे। सिद्धि प्राप्त होने से पूर्व ही साधना के सम्बन्ध में रहस्य प्रकट करने से फल प्राप्ति नहीं होती।
यह साधना पांच दिवसीय है। इसे लक्ष्मी मास कार्तिक मास में बुधवार 13 नवम्बर से सूर्यास्त के पश्चात प्रारम्भ करें। एक बार साधना प्रारम्भ करने के बाद बीच में अधूरी नहीं छोड़नी चाहिए। प्रत्येक दिन का अलग मंत्र व तंत्र विधान है, उसी के अनुसार कार्य करते रहने की आवश्यकता है।
साधक स्नान कर, सुन्दर वस्त्र धारण कर लें, अपने कपड़ों पर इत्र इत्यादि सुगन्धित द्रव्य अवश्य लगाएं। अपने सामने एक पात्र में लाल वस्त्र बिछा कर उसके मध्य में ‘मदनाक्षी चैतन्य गुटिका’ स्थापित करें। सुगन्धित धूप, दीप जलायें और पूजा स्थान का द्वार बन्द कर साधना प्रारम्भ करें। स्वयं को सिन्दूर का तिलक लगायें, अपने हाथ में जल लेकर संकल्प करें कि, मैं (अमुक) अपनी मनोकामनाओं की पूर्णता हेतु, लाल वस्त्र धारण किये हुए, रत्न आभूषणों से अलंकृत, प्रसन्न वदना, अरूण आभा-युक्त, सुन्दरतम त्रिपुर मदनाक्षी का ध्यान करते हुए, साधना सम्पन्न करता हूं।
अब इत्र से मदनाक्षी गुटिका को स्नान कराएं, फिर उसे पुनः स्थापित करते हुए, उस पर सिन्दूर का लेपन करें। तत्पश्चात सुगन्धित पुष्प चढ़ायें, स्वयं सुगन्धित पुष्पों की माला पहनें।
अब ‘नव चेतना प्राकाम्य’ स्थापित करें और उसके चारों ओर ‘अष्ट अप्सरा सिद्धि रत्न’ रखें, ये रत्न त्रिपुर मदनाक्षी की आठ सहयोगी अप्सराओं के प्रतीक हैं। ये आठ सहयोगी अप्सराएं हैं- 1- उर्वशी, 2- मेनका, 3- रम्भा, 4- धृताची, 5- पुंजकस्थला, 6- सुकेशी, 7- मंजुघोषा, 8- महारंगवती। प्रत्येक के आगे एक-एक पुष्प रखते हुए इनका आह्नान करें-
क्लीं उर्वशी आवाह्यामि, क्लीं मेनका आवाह्यामि, क्लीं
रम्भा आवाह्यामि, क्लीं धृताची आवाह्यामि, क्लीं
पुंजकस्थला आवाह्यामि, क्लीं सुकेशी आवाह्यामि,
क्लीं मंजुघोषा आवाह्यामि, कलीं महारंगवती आवाह्यामि
अब साधक वीर मुद्रा में बैठकर 21 वाग्भय बीजों (सुपारी) से त्रिपुर मदनाक्षी की शक्ति, सोलह योगिनियों और पांच बाणों का आह्नान करें, यह आह्नान साधना में प्रमुख है। इन शक्तियों की स्थापना होने पर जरा, पीड़ा, अकाल मृत्यु, भय, भूत-प्रेत की बाधा का पूर्ण नाश हो जाता है और साधना में किसी प्रकार का विघ्न नहीं होता है। तत्पश्चात पांच बाणों का आह्नान करना चाहिए, जिससे साधक शक्ति सम्पन्न होने की क्रिया प्रारम्भ कर देता है। इन सोलह योगिनियों का पूजन निम्न प्रकार से करते हुए, अपने सामने एक-एक वाग्भय बीज स्थापित करना है-
ऐं गजाननायै नमः ऐं सिंहमुख्यै नमः
ऐं वाराह्यै नमः ऐं विकटलोचनायै नमः
ऐं विकटाननायै नमः ऐं सुराप्रियायै नमः
ऐं शुष्कोदर्यै नमः ऐं सुरप्रियायै नमः
ऐं रक्ताक्ष्यै नमः ऐं पाशाहस्तायै नमः
ऐं प्रचण्डायै नमः ऐं चण्डविक्रमायै नमः
ऐं पापहन्त्रयै नमः ऐं तापिन्यै नमः
ऐं विद्युत्प्रभायै नमः ऐं कामाक्ष्यै नमः ।।
अब मदनाक्षी के पांच बाणों का आह्नान किया जाता है, इन बाणों की शक्ति ही मदनाक्षी की शक्ति है।
इन बाणों का मंत्र जप होने से साधक में द्रावण, शोषण, तापन, मोहन तथा उन्मादन तत्व आ जाता है, एक सुगन्ध वातावरण में छा सी जाती है।
अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए ऊपर वर्णित बाण मंत्र का ग्यारह-ग्यारह बार जप करना चाहिए।
।। द्रां द्रावण बाणाय नमः, ब्लूं मोहन बाणाय
नमः, द्रीं शोषण बाणाय नमः, सः उन्मादन
बाणाय नमः, क्लीं तापन बाणाय नमः ।।
यह पूजन क्रम पूरा हो जाने के पश्चात मदनाक्षी का मंत्र जप सम्पन्न करें। शास्त्रों में बताया गया है कि किसी विशेष इच्छा पूर्ति हेतु भी यह साधना सम्पन्न की जा सकती है।
इस मंत्र का योगिनी माला से नित्य एक माला जप वीर मुद्रा में ही करना है और फिर जब मंत्र जप अनुष्ठान पूरा हो जाये तो नेत्र बन्द कर अपने हाथ ऊंचे कर चुपचाप ध्यान मुद्रा में बैठे रहने पर कुछ विशेष चैतन्य क्रियाओं का अनुभव होता है और यह सब साधना में सफलता का प्रतीक हैं।
यह पूजा क्रम पांच दिन इसी तरह से करना है, प्रतिदिन ताजे पुष्प लायें। जब मदनाक्षी अप्सरा साक्षात रूप से प्रकट हो जाये तो उसी समय उससे वर मांग लें। एक बार मदनाक्षी सिद्ध होने पर साधक जब भी इस पूजा विधान को दोहराता है, मदनाक्षी अपनी समस्त सहयोगिनी अप्सराओं, योगिनी शक्ति तथा बाणों के साथ उपस्थित होती है और साधक के जीवन को रस से सराबोर कर देती है।
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