मनुष्य, मनुष्य की हत्या कर सकता है, या उसे पीड़ा पहुंचा सकता है, या उसके लिए परेशानियां पैदा कर सकता है। पर मनुष्य के अलावा इतर योनियां न तो विश्वासघात कर सकती हैं, न धोखा देती हैं, न उसके लिए किसी प्रकार की परेशानियां उत्पन्न करती हैं, वे तो उल्टे मनुष्य के लिए सहायक और उपयोगी हैं।
जिस प्रकार से हम अपने घर के दरवाजे पर गेटमैन या चौकीदार रखते समय इस बात का ध्यान रखते हैं कि वह लम्बा-चौड़ा कद्दावर और बलिष्ठ हो, उसका चेहरा रौबीला और प्रभाव वाला हो, जिससे कि बाहरी व्यक्ति खौफ खाये और नुकसान पहुँचाने की चेष्टा न करे। जिस प्रकार हमारा चौकीदार या अंग रक्षक हमें हानि नहीं पहुँचा सकता, उलटा हमारी विपरीत तत्वों से रक्षा करता है, उसी प्रकार से साधना से हमारी रक्षा होती है और बाहरी दुश्मनों से हमें सुरक्षा मिलती रहती है।
यद्यपि ऐसा करना कठिन अवश्य होता है, परन्तु असम्भव नहीं। कठिन इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि मानव अपने द्वारा बनाई हुई सीमा रेखाओं से निकलना नहीं चाहता है। वह स्वयं को उसी सांसारिक मोह की परिधि के अन्दर बांध कर प्रसन्न रहने का प्रयत्न करता है—-फिर भी प्रसन्नता नहीं मिल पाती, क्योंकि वह अनेक कारणों से दुःखी रहता है, तब वह अपने परिवार में सिमट कर रह जाता है, साथ ही वह अपने परिवार के प्रति पूर्ण कर्त्तव्य निर्वाह नहीं कर पाता है और व्यथित बना रहता है।
नील पिशाचिनी साधना इन्हीं कर्त्तव्य को सम्पूर्णता के साथ निर्वाह करने की साधना है, जिसे सम्पन्न कर आप प्रत्येक प्रकार की परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना सकते हैं।
साधारणतः मनुष्य जीवन की कुछ ऐसी समस्याएं होती ही हैं, जिनसे वह पूर्णतः निजात पाना चाहता है-
1- वह चाहता है, कि वह पूर्णतः रोगमुक्त रहे। उसका पूरा परिवार भी पूर्णतः स्वस्थ रहे, रोग शारीरिक हो या किसी अन्य प्रकार से हो, व्यक्ति उनसे उबरना चाहता ही है, वह रोग को महीनों तक नहीं झेलना चाहता। चाहे वह कितना ही छोटा से छोटा या बड़ा रोग क्यों न हो, वह स्वयं को तथा पूरे परिवार को पूर्णतः रोगमुक्त करना ही चाहता है। क्योंकि जब व्यक्ति रोगमुक्त हो सकेगा, तभी वह अपने परिवार तथा स्वयं के लिए भी रचनात्मक कार्य कर सकेगा, फिर वह उच्चता को प्राप्त करने के लिए भी सोच सकेगा।
2- ऋणी व्यक्ति जब तक ऋण-ग्रस्त रहता है, तब तक वह किसी न किसी कारण तनाव में रहता ही है, क्योंकि ऋणी व्यक्ति के जीवन में यश, प्रतिष्ठा, सम्मान आदि धूमिल हो जाता है, वह चाहे कितना भी सज्जन हो, सभ्य हो, सौम्य हो, परन्तु उसकी छवि एक ऋणी व्यक्ति के समान ही रहती है। इसीलिए जब तक वह अपने ऊपर लदे ऋण-बोझ को समाप्त नहीं कर लेता, तब तक वह अपने समाज में अपने अनुकूल परिस्थितियां निर्मित नहीं कर पाता है। नील पिशाचिनी साधना पूर्णतः ऋणमुक्त होने की भी साधना है।
3- व्यक्ति की सामाजिक स्थिति में उसके जीवन सहयोगी का पूर्णतः प्रभाव पड़ता ही है, क्योंकि सामाजिक रीतियों के अनुसार वह उसके हर कार्य में सहयोगी होता है और यदि इन दोनों (पति-पत्नी) के मध्य कटुता आ जाए, तो उसका प्रभाव उसके परिवार पर अवश्य पड़ता है, जिससे उसके परिवार का वातावरण मधुर नहीं रहता और व्यक्ति अपने सामान्य से कार्यो को भी पूरा नहीं कर पाता है यदि घर में ऐसी स्थिति उत्पन्न होने लगे या निर्मित हो गयी हो, जिससे पूरा परिवार प्रभावित हो रहा हो और व्यक्ति यदि नील पिशाचिनी साधना सम्पन्न कर लें, तो वह इस समस्या को आसानी से हल कर सकता है।
4- राजकीय कार्यों में संलग्न व्यक्तियों या व्यापार से सम्बन्धित व्यक्तियों को अधिकतर राज्यभय व्याप्त रहता है। राज्य भय का अर्थ यह नहीं कि राज्य के सैनिक आयें और आपको प्रताडि़त करें। राज्यभय का तात्पर्य है- जिस राज्य में आप रह रहें हों, उस राज्य में आप के कार्यों में राज्य के द्वारा हस्तक्षेप से व्याप्त भय। आज के युग में तो व्यक्ति हर क्षण राज्य भय से ग्रस्त है ही, न जाने कब कौन सा शत्रु किस क्षण झूठी सूचना देकर आपके व्यापार को प्रतिबंधित करवा दे या झूठा ही इन्कमटैक्स का छापा पड़वा दे या आप पर झूठा गबन का आरोप लगा कर फंसा दिया गया हो और आपकी नौकरी छूटने का खतरा बढ़ गया हो। यह सब राज्यभय का ही स्वरूप है। नील पिशाचिनी साधना सम्पन्न कर आप इस प्रकार के सभी राज्य भय से पूर्णतः निर्मुक्त हो सकते हैं।
5- चिंता को चित्ता कहा गया है, चिंताग्रस्त व्यक्ति प्रतिदिन घुलता जाता है। वह इसे समाप्त करने के लिए अनेक उपाय करता है, लेकिन इससे पूर्णतः छुटकारा प्राप्त करने में अक्षम रहता है। नील पिशाचिनी साधना सम्पन्न कर साधक अपनी चिंता के मूल को समाप्त कर सकने में सफल हो पाता है।
ऐसी ही अनेक समस्याएं लगभग हर गृहस्थ के सम्मुख रहती ही हैं और वह इन समस्याओं को मूल से समाप्त करना चाहता है। नील पिशाचिनी साधना ऐसी ही सरल और सौम्य साधना है, जिसे सम्पन्न कर व्यक्ति पूर्णतः इन समस्याओं से छूटकारा पा सकता है। नील पिशाचिनी साधना सम्पन्न करने से व्यक्ति को किसी प्रकार की कोई हानि नहीं होती। प्रत्येक गृहस्थ व्यक्ति इसे सम्पन्न कर अपने जीवन की समस्याओं को समाप्त कर सुखमय जीवन प्राप्त कर सकता है।
नील पिशाचिनी को हमने राक्षसी माना है, पूरे हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में नील पिशाचिनी को कुलदेवी माना जाता है, वहां इसकी पूजा होती है पहाड़ी क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति नील पिशाचिनी की पूजा और साधना उसी प्रकार से करता है जिस प्रकार से हम जगदम्बा, शिव या विष्णु की करते हैं। अगर वह राक्षसी ही होती तो पहाड़ी लोग उसे कुलदेवी कैसे मानते?
साधना विधान
1- इस साधना में आवश्यक सामग्री ‘नील पिशाचिनी यंत्र’ ‘नील शक्ति माला’ और ‘आर्जय’, यह एक दिवसीय रात्रिकालीन साधना है।
2- साधक स्नान कर स्वच्छ सफेद वस्त्र धारण कर एक लकड़ी के बाजोट पर काला वस्त्र बिछाए, उस पर एक ताम्रपात्र में नील पिशाचिनी यंत्र रख कर उसका पंचोपचार पूजन करें।
3- तेल का दीपक और सुगन्धित अगरबत्ती लगायें और यंत्र के सामने ‘आर्जय’ स्थापित कर उस पर लाल कनेर के पुष्प और कुंकुंम चढायें तत्पश्चात् नील शक्ति माला से निम्न मंत्र की 21 माला मंत्र जप करें-
दूध का बना भोग लगावें। साधना को सम्पन्न कर ‘आर्जय’ को 21 दिनों तक धारण करें। 21 दिनों के बाद किसी शनिवार को यंत्र, माला और आर्जय किसी नदी, तालाब या कुंए में प्रवाहित कर दें।
ज्ञान का सदुपयोग परोपकार में हो सच्चा ज्ञानी व्यक्ति अपने ज्ञान की सीमा जानता है। इसी कारण उसमें अहंकार जन्म नहीं ले पाता है अल्पज्ञ अपने आपको सर्वज्ञानी समझकर अंहकारी हो जाता है। एक बार आदि शंकराचार्य समुद्र के किनारे बैठे हुए थे। उनकी शिष्य मंडली में से एक चाटुकार शिष्य उनके पास आया और कहने लगा- गुरुदेव, आपने इतना अधिक ज्ञान कैसे प्राप्त किया होगा? यह सोचकर मुझे आप पर आश्चर्य और गर्व होता है। शंकराचार्य ने उससे कहा- तुम्हें किसने कहा है कि मेरे पास ज्ञान का भंडार है।
शिष्य एकदम झेंप गया । यह वार्तालाप सुनकर अन्य शिष्य भी उनके पास आ गए। शंकराचार्य जी ने अपने शिष्यों को, अपने ज्ञान का अंहकार उत्पन्न न हो या समझाने के लिए अपने हाथ में एक पतली टहनी लेकर उसे समुद्र में डुबोया। कुछ देर बाद बाहर निकाला और शिष्यों से पूछा- इसने कितना पानी ग्रहण किया। कुछ शिष्यों ने कहा- कुछ नहीं। कुछ शिष्यों ने कहा-मात्र कुछ बूंद। शंकराचार्य ने कहा- मैं भी ज्ञान के सागर में डुबकी लगाता हूं और बाहर निकलने पर मुझे अनुभूति होती है कि मैं कितना कम जानता हूं। मैं लगातार ज्ञान ग्रहण करने की कोशिश करता रहता हूं।
मनुष्य के ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता का कभी अंत नहीं होता। ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। अल्पज्ञ व्यक्ति ज्ञान की कुछ बातों को जानकर अपने आपको सर्वज्ञ समझने की चेष्टा करते हैं। हमें हर समय कुछ न कुछ ग्रहण करते रहना चाहिए। मुझे भी अभी कुछ ग्रहण करना है। उनकी बातें सुनकर शिष्यों को शिक्षा मिल गई की ज्ञान एक ऐसा समुद्र है जिसमें जितना प्राप्त होगा उतना ही कम लगेगा। अतः ज्ञान का सदुपयोग परोपकार में हो, अहंकार उत्पन्न करने में नहीं।
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