अगर व्यक्ति में या शिष्य में समर्पण नहीं है, प्रेम नहीं है, तो दीक्षा का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यह इतना संवेदनशील आदान प्रदान है, जो कि दो प्रेमियों के बीच ही घटित हो सकता है और गुरु शिष्य के संबंध का आधार प्रेम ही तो है।
गुरु तो हर क्षण सब कुछ लुटाने, सब कुछ दे देने के लिए तत्पर है, यह तो शिष्य पर निर्भर है कि वह कितना ग्रहणशील है। जितना वह खुला होगा, ग्रहणशील होगा, समर्पण युक्त होगा, उतनी ही गुरु की चैतन्यता उसमें प्रवेश कर पाएगी।
आज के युग में जब सर्वत्र भयावह स्थिति बनी हुई है, कब क्या घटना हो जाये, ऐसी स्थिति में दीक्षाएं प्राप्त करनी चाहिए ताकि व्यक्ति विषम से विषम परिस्थितियों में सुरक्षित अनुभव कर सके तथा सफ़लता प्राप्त कर सके।
अगर व्यक्ति समय-समय पर श्रेष्ठ गुरु से उचित दीक्षाएं प्राप्त करता रहे तो असफ़लता एवं बाधाएं उसके जीवन में व्याप्त हो ही नहीं सकती तथा यह निरन्तर उच्चता एवं श्रेष्ठता की ओर बढ़ता रहता है।
ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जब मात्र गुरु की सामीप्यता से आत्मोपलब्धि हो गई। परन्तु ऐसा तब होता है जब शिष्य अहंकार रहित हो, बुद्धि से पूर्ण चैतन्य हो और आत्मज्ञान प्राप्त कर लेना ही जिसके जीवन का मुख्य ध्येय हो।
जब व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से गुरु सेवा करता है तो उसके और गुरु के बीच ब्रिज बनता है, एक दूसरे के निकट आने की क्रिया बनती है, पूर्ण रूप से समाहित होने की क्रिया बनती है और ऐसा होने पर गुरु अपनी चैतन्यता शिष्य में उडे़ल देता है।
सामान्य तौर पर गुरु और शिष्य के बीच एक बहुत बड़ा गैप है। जब तक वह दूर नहीं हो जाता तब तक शिष्य आध्यात्मिक उच्चता की स्थिति तक नहीं पहुंच सकता और यह गैप, यह दूरी कम करने का साधन हैं केवल दीक्षा और गुरु सेवा।
केवल शिष्य के कान में मंत्र फ़ूंक देना ही दीक्षा नहीं होती। शिष्य के जीवन में पाप ताप को समाप्त कर उसे बंधन मुक्त करना, जन्म मृत्यु के चक्र से छुड़ाना ही दीक्षा है। नर से नारायण, पुरूष से पुरूषोत्तम बनाने की क्रिया दीक्षा है।
दीक्षा परमेश्वर की कृपा का साकार स्वरूप है, जो कि जीव को प्राप्त होती है गुरु के माध्यम से हृदय को शुद्ध, निर्मल, पवित्र एवं दिव्य बनाना तथा गुरु के साथ जुड़ने की क्रिया को ही दीक्षा कहा है।
सभी महान पुरूष चाहे वह तुलसी हो, सूर हो, बुद्ध हों या महावीर हो सभी ने कठिनाइयां झेली, ठोकर खाई— पर ठोकर खाने के बाद वे और मजबूत होकर उठे। वे सामान्य मनुष्य ही थे पर आध्यात्म की उतनी ऊंचाइयों तक पहुंचे! तुम भी पहुंच सकते हो अगर तुममें जूझने की शक्ति है तो।
तुम स्वयं नीद से नहीं उठ सकते। अगर तुम गुरु की परीक्षाओं से घबराते हो तो तुम दुर्भाग्यशाली हो। वास्तव में तो गुरु वह है जो शिष्यों को ठोकर मारकर नींद से जगाएं, समाज की रूढि़यों पर बिजली बनकर के टूटे, जो शिष्य को बताए कि जो जीवन वह जी रहा है वह आत्म साक्षात्कार का सही पथ नहीं है।
गुरु तो चाहते हैं कि शिष्य दिव्यता के मार्ग पर अग्रसर हो, पूर्णता के रास्ते पर अग्रसर हो और शिष्य ऐसा करता है तो उसे पहली बार एहसास होता है कि संतोष क्या है, आनन्द क्या है, पूर्णता क्या है, जीवन की उमंग, उल्लास क्या है।
तुम भी अपनी असली प्राकृतिक छवि को जाग्रत कर सकते हो। अपना स्वयं का आत्म साक्षात्कार कर तुम बुद्धत्व को प्राप्त कर सकते हो और यह सत्य है कि हर शिष्य बुद्ध बन सकता है, कृष्ण बन सकता है अगर वह सद्गुरु के बताए मार्ग पर चले।
जिस प्रकार एक कुम्हार बाहर से चोट करता हुआ एवं अंदर का सहारा देता हुआ एक घड़ा तैयार करता है उसी प्रकार गुरु भी शिष्य को अपना आध्यात्मिक बल देकर उसे कठोर परीक्षाओं से गुजारता है ताकि शिष्य अत्यधिक उच्च एवं श्रेष्ठ आध्यात्मिक स्तर तक पहुंच सके।
कोई नहीं कह सकता कि किस शिष्य में, किस साधक में चेतना की कौन सी भावभूमि छिपी है। केवल सद्गुरु ही शिष्य की क्षमता को जानकर उसे सही मार्ग पर अग्रसर कर पूर्णता तक पहुंचा सकते है।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,