वास्तविक जीवन में जितना अशांत मन होता है मनुष्य उतना ही अपने कार्यों की पूर्णता को सम्पन्न नहीं कर पाता। मन की अशांति ही जीवन मार्ग की पूर्णता में दूरी बनाती है, जितने अशांत हम रहेंगे, उतना ही फासला बढ़ेगा। यदि आप शांत और निर्मल भाव से रहते हो तो कोई भी फासला नहीं है, Then There is no Diffrence तब उस परिस्थिति में आप परमात्मा के पास हैं, क्योंकि पास होना ही शांति है मन की प्रसन्नता है। जब आपकी ईश्वर या गुरु में आस्था होगी तभी आप कार्यों में सही तरह से लीन हो पायेंगे और आपका मन शांत रहेगा। तभी आपके जीवन के कार्य सही रूप से सम्पन्न होंगे। दूसरी स्थिति में आप लीन नहीं है, तो जहां दूरी हैं, वहां किसी न किसी स्तर पर फासला या अशांति बनी हुयी है। यदि नास्तिकता मिटानी है तो आस्तिकता में कुछ बदलाव स्वयं में करने पड़ेगे, इसीलिए नास्तिक नहीं मिट सकते। असल में सच्चा-आस्तिक, आस्तिक होने का दावा भी नहीं चाहता, क्योंकि उस दावें से नास्तिक ही पैदा होते हैं।
मन का अर्थ है, हमारे मनन और चिंतन की क्षमता का हमारी वाणी से कोई संबंध नहीं है, आज के युग में हमारी वाणी मशीन हो गई है। हम बोले चले जाते हैं, जैसे मशीन चल रही हो। एक शब्द शायद ही आप बोलते हो मन से। कई बार तो ऐसा होता है कि मन में कुछ ओर चलता है और वाणी में ठीक विपरीत बोलते है। किसी से आप कह रहे होते हैं कि मुझे बहुत प्रेम है आपसे और भीतर उसी आदमी को किसी षड्यंत्र में फंसाने का विचार कर रहे हैं या गर्दन काटने का। जेब काटना बहुत अतिशयोक्ति न हो जाए। मन में उसके प्रति घृणा चल रही होती है, क्रोध चल रहा होता है और आप प्रेम की बातें भी चलाते रहते हैं। आप मित्रता की बातें करते रहते हैं और भीतर शत्रुता चलती रहती है। ऐसा व्यक्ति अपने को कभी नहीं जान पायेगा। इस प्रकार की क्रियाओं को व्यवहार में लाकर व्यक्ति किसी को धोखा नहीं दे रहा होता बल्कि अपने आप को ही धोखा दे रहा होता है। जो हम चारों तरफ बोलते रहते हैं, वही कुछ समय के बाद धीरे-धीरे हमारा व्यक्तित्व बन जाता है। तुम बिना किसी गवाह के पक्के साबित नहीं हो सकते कि तुम जो बोल रहे हैं वह सही है या झूठ।
मनुष्य का चिंतन होना चाहिये कि उसकी वाणी उसके मन में स्थिर हो जाए, वाणी उसके मन के अनुकूल हो जाए, मन से अन्यथा वाणी में कुछ न बचे। जो मेरे मन में हो, वही मेरी वाणी में हो। मेरी वाणी मेरी अभिव्यक्ति बन जाए। मैं जैसा भी हूं, अच्छा या बुरा। वही मेरी वाणी से प्रकट हो। मेरी तस्वीर मेरी ही हो, किसी और की नहीं। मेरा चेहरा मेरा हो, किसी और का नहीं। मैं प्रामाणिक हो जाऊं। मेरे शब्द मेरे मन के प्रतीक बन जाएं। बहुत मुश्किल लगता है। जीवन भर हमारी कोशिश रहती है अपने आप को छिपाने की। और जब हम बोलते हैं तो यह क्यों जरूरी नहीं कि कुछ बताने को बोलते हों। बहुत बार तो झूठ भी बोलते हैं।
मन और वाणी में कोई संयोग नहीं है। पता नहीं कि सोचूं कुछ ओर और कहूं कुछ ओर, निकल जाए कुछ ओर। कुछ भी दृढ़ नहीं है। इसलिए सब ठीक से तैयार कर लेना है और वाणी पर व्यवस्था बिठा लेनी है। क्योंकि कहीं शुद्ध मन, वाणी के बीच में आ जाए तो सब अस्त व्यस्त हो जाएगा। वाणी छंट जाये उतनी ही रह जाए जितनी मेरे मन के साथ सच-सच प्रामाणिक ताल-मेल बना सके। मेरी वाणी मेरे मन में ठहर जाए, दूसरी बात ये है कि मेरा मन मेरी वाणी में ठहर जाए। फिर मेरा मन भी मेरी वाणी में स्थिर हो जाए। मैं अपने मन का तभी उपयोग करूं, जब मुझे वाणी की जरूरत हो। मैं तभी तूलिका उठाऊं जब मुझे चित्र बनाना हो। और मैं वीणा का तार भी तभी छेडूं, जब मुझे गीत गाना हो।
मन का वाणी में ठहरने का अर्थ यह है कि जब मैं बोलना चाहूं तब मेरे भीतर मेरा मन हो! और जब मैं न बोलना चाहू तो मन भी ना रहे। जब आप चलते हैं तभी आपके पास पैर होते हैं। आप कहेंगे, नहीं जब नहीं चलते हैं तब भी पैर होते हैं। लेकिन उस समय उनको पैर कहना सिर्फ कामचलाऊ है। पैर वही है जो चलता है। आंखे वही है जो देखती है। कान वही है जो सुनता है। तो जब हम किसी को कहते है कि वह अन्धा हैं तो हम बड़ा गलत शब्द का उपयोग करते हैं, क्योंकि अंधी आंखों का कोई मतलब ही नहीं होता। अंधे का मतलब है, बिना आंखों वाला व्यक्ति नहीं। लेकिन जब आप आंखें बंद किये होते हैं तब भी – आप आंखों का उपयोग न कर रहे हों तो – उस समय आप बिना आंखों की अवस्था में पहुंच जाओगे। आंख का उपयोग होता है तभी आंख आंख है।
मन अभिव्यक्ति करने का माध्यम है। जब तुम बोल नहीं रहे होते, प्रकट नहीं कर रहे होते, तब मन की कोई भी जरूरत नहीं होती है। लेकिन हमारी आदत बन गई है सोते, जागते, बैठते मन चल रहा है। पागल मन है हमारे भीतर। आप अपने मालिक इतने भी नहीं कि तुम्हारी आंख आपकी मर्जी से देखे जो अनिवार्य हो उसे देखें, तो आपकी आंख का जादू बढ़ेगा ही देखने की दृष्टि बदल जाएगी। व्यक्तित्व में क्षमता और शक्ति का प्रवाह होगा। साधक को ध्यान रखना चाहिये कि जहां भी अर्थ होगा, वही पर सीमा आ जाती है। अर्थ का अर्थ ही सीमा होता है। जब भी अर्थ होता है, तो उसके विपरीत भी अर्थ हो सकता है। सभी शब्दों के विपरीत शब्द होते हैं। ऊँ के विपरीत कोई शब्द ही नहीं है? जीवन है तो मृत्यु है, अंधेरा है तो प्रकाश है, अद्वैत है तो द्वैत है और मोक्ष है तो संसार है। ऊँ सब का प्रतीक है, जिसे शब्दों में बताया नहीं जा सकता। ऊँ शब्द में कोई भी अर्थ नहीं है। ऊँ तो अनाहत नाद है, इसमें कोई भी अर्थ नहीं है। वह तो अस्तित्व की गूंज है वह मात्र ध्वनि नहीं है।
तब तुम कह सकोंगे कि हे स्वयं प्रकाश आत्मा मेरे सम्मुख तुम प्रकट हो। लेकिन तभी, जब तुम्हारी वाणी शांत हो जाये, तुम्हारा मन मौन हो जाये। क्योंकि उससे पहले अगर परमात्मा आपके सामने प्रकट हो भी जायेगा तो पहचान नहीं पाओंगे। गुरु चौबीस घंटे आपके सामने प्रकट है, लेकिन आप पहचान नहीं पाते हैं। वह तो पहचान आप तभी कर पाओंगे जब शांत और निर्मल दर्पण की तरह बन जाओंगे। जब मन मौन होगा और वाणी शून्य होगी, तब तुम अचानक पाओंगे कि गुरु तो सदा से मौजूद था, मैं ही मौजूद नहीं था कि उसे देख पाऊं, पहचान पाऊं, अनुभव कर पाऊं। वह सब तरफ मौजूद था। इसलिए जब तुम ऐसे बनोगे तभी गुरु को अपने भीतर देख सकोगे, प्रकट होते हुए भी तुम गुरु को पहचान नहीं पा रहे हो। उस जीवन का क्या अर्थ होगा जब तक अपने इष्ट को पहचान नहीं पाओंगे। मन और वाणी के प्रति भी शत्रुता नहीं है, ऐसा भाव नहीं है कि वे मित्र हैं।
इस जगत में जिन्होंने वास्तव में गहरी यात्राएं की है, उन्होंने उस सब को जो भी मार्ग में बाधा बना, अपनी सीढ़ी बना लिया है। यह तुम पर निर्भर है। तुम्हारे रास्ते में पत्थर पड़ा है। और तुम छाती पीटकर चिल्ला रहे हो, रो रहे हो। परन्तु जो जानता है जिसने अपने मन और वाणी पर नियंत्रण कर मन, वाणी और मस्तिष्क को एक कर लिया है, वह उस पत्थर पर पैर रखकर पार हो जाता है या फिर उस पत्थर को अपने बाहु बल से हटा देता है। जो उसे पत्थर के नीचे से कभी भी दिखाई नहीं पड़ा, वह पत्थर के ऊपर चढ़कर दिखाई पड़ जाता है। स्तर बदल जाता है। जीवन में अविद्या, द्वैष, अस्मिता, राग, अभिनिवेश और इसी से निर्मित दैहिक दैविक भौतिक तापो से साधक को महाविद्या तारा शक्ति पीठ मुक्त करने में सहायक है। सद्गुरु जन्मोत्सव के पावन पर्व पर शक्ति स्वरूपा वन्दनीय माताजी और सद्गुरुदेव के सानिध्य में बंगाल की चैतन्य तांत्रेक्त भूमि पर 52 शक्ति पीठों में श्रेष्ठतम तारा शक्ति की तपोभूमि पर नील तारा शक्ति पीठ साधाना महोत्सव 17, 18 जनवरी आसनसोल (W.B) में सम्पन्न होगा। साथ ही स्व-रूद्राभिषेक भी सम्पन्न कराया जायेगा। जिससे साधक धन, यश, सुख-समृद्धि से युक्त हो सकें।
सद्गुरुदेव को पूर्ण आनन्द मग्न और प्रसन्नता देने वाले ज्योतिर्लिंग स्वरूप स्थान बहुत ही श्रेष्ठ लगते है वहां की रज-रज में सृष्टि की पूर्णता कर्ता भगवान सदाशिव स्वयं साक्षात् रूप में विराजमान है ऐसे दिव्य ज्योतिर्लिंगों पर साधक अपने आप को शिव स्वरूप स्थितियों को प्राप्त करने की इच्छा सदैव ही रहती है और ऐसा ही महोत्सव महाशिवरात्रि के दिव्य दिवसों पर प्राप्त होता है। जिससे कि शिव भक्त अपने जीवन के समस्त पाप दोषों का शमन कर सकें और स्वयं को शिव-गौरीमय बनाने की क्रिया की ओर अग्रसर हो सके। इसी हेतु महाशिवरात्रि महापर्व पर द्वादश ज्योर्तिलिंग और नर्मदा के उद्गम स्थल पर महादेव की तेजमय भूमि अमरकंटक में शिवगौरी शक्ति महाशिवरात्रि महोत्सव 15, 16,17 फ़रवरी को सम्पन्न किया जायेगा। जिससे आपको इस नूतनवर्ष में नर्मदा उद्गम स्थल पर समर्पित भक्त और पूर्णता प्रदान कर्त्ता सद्गुरु का साहचर्य हो तो इस संयोग से गौरी शक्ति, विघ्नहर्त्ता गणपति, पराक्रमी कार्त्तिकेय, ऋद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ—-की श्रेष्ठता प्राप्ति होती ही है। गुरु के सानिध्य में साधक समस्त पाप ताप दोषों का शमन कर अपना जीवन-पथ शिवस्वरूप गुरु के सानिध्य में नूतन चेतना से जीवन को जोश, आनन्द और शक्ति से युक्त कर सकेगा।
अपने आप में पूर्ण चैतन्य युक्त एवं सिद्धिप्रद रामेश्वरम् की रज को कोई मनुष्य अपने शरीर पर लगाता है तो जितने रेत के कण उसके शरीर को स्पर्श करते हैं और दिव्यतम ज्योतिर्लिंग पर 21 दिव्य तीर्थों के जलाभिषेक द्वारा स्नान कर साधक साधना में प्रवृत होता है। तो इसके फलस्वरूप कई-कई जन्मों के पापों के शमन के साथ-साथ भक्त शिव स्वरूप बनने की ओर अग्रसर होता है इसके प्रभाव से जीवन में सभी रूपों में धर्म, अर्थ, काम की पूर्णता के साथ साधनात्मक उच्चता भी आनी प्रारम्भ होती है। सद्गुरुदेव स्वामी सच्चिदानन्द जी महाराज के पूर्ण आशीर्वाद से ऐसे दिव्य पवित्र स्थान पर नूतन वर्ष के प्रारम्भ में धन प्रदाता रामेश्वरम् शिव-गौरी ज्योतिर्लिंग साधना महोत्सव 14, 15 मार्च को सत्संग भवन, गोस्वामी मठ-2, सीता तीर्थ के पास, रामेश्वरम् में सम्पन्न होगा। आप सभी यहां की पावनतम भूमि पर सद्गुरुदेव का सानिध्य प्राप्त कर अपने जीवन को सत् प्रकाश और ज्योतिर्मय युक्त बना सकेंगे।
जीवन में अगर मलिनता और बोझिलता रहेगी तो जीवन नीरस ही रहेगा। अपने जीवन को आनन्द और सांसारिक क्रियाओं के साथ मन-विचार और भावों को अपने सद्गुरुदेव के चरणों में लीन करना और भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए सर्व श्रेष्ठ है। सुखी जीवन की आकांक्षा सभी को होती है, पर उसकी उपलब्धि तभी संभव है जब हम अपने दृष्टिकोण की त्रुटियों को समझें और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करें। सुधरा हुआ दृष्टिकोण स्वल्प साधनों और परिस्थितियों में भी शांत और संतोष को कायम रख सकता है। इस नूतन वर्ष मंगलमय हो यही मेरा आप सभी को हृदय भाव से आशीर्वाद है आप अपने घर में कोई भी शुभ कार्य हो तो सर्व प्रथम सद्गुरु का स्मरण कर कार्य सफलता का आशीर्वाद प्राप्त करे। जिससे आपका आने वाला नूतन वर्ष हर दृष्टि से पूर्णरूपेण श्रेष्ठ बन सके। 1 जनवरी कैलाश नारायण धाम में नूतन जीवन निर्माण की विशेष क्रियायें सद्गुरुदेव और वन्दनीय माता जी के सानिध्य में सम्पन्न होगी। आप सभी का हृदय भाव से स्वागत है। एक सूत्र सदैव स्मरण रखे-
चुस्त रहिये, व्यस्त रहिये और मस्त रहिये
मेरे सभी मानस पुत्र-पुत्रियों को नूतन वर्ष की शुभकामनाओं के साथ मंगलमय आशीर्वाद
Happy New Year 2015
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