उपनिषद् में दृष्टव्य है, कि भगवान् सूर्य से किंचित गुह्य रूप में भी याचना की गयी है कि वे साधक को केवल अपनी प्रखर रश्मियों से दग्ध ही न करें वरन् उसके भीतर समाहित होकर साधक को तेजवान भी बनायें। क्योंकि सूर्य का तेज कभी शांत नहीं हो सकता, किन्तु साधक द्वारा उसे समाहित कर लेने के उपरांत वह ‘शांत’ हो सकता है, तब साधक का व्यक्तित्व भी सूर्यवत् प्रखर हो जाता है। साधनाओं का जन्म मुख्य रूप से हिमालय की तराई वाले प्रदेश में ही हुआ, इसका प्रबल प्रमाण यह है कि किसी भी हिन्दू के उत्सवों का दीपावली के उपरांत एक प्रकार से अवसान हो जाता है, जो पुनः माघ माह में पड़ने वाले पर्व मकर संक्रान्ति से जाग्रत हो जाता है।
यद्यपि इन तीन माह में भी वे ऋषि-मुनि सर्वथा प्रसुप्त नहीं हो जाते थे, वरन् आध्यात्मिक जीवन से संबंधित, कुण्डलिनी जागरण से संबंधित उच्चकोटि की गहन क्रियाएं करते ही रहते थे। हिमाचल प्रदेशों में रहने के कारण कार्तिक शुक्ल पक्ष से प्रारम्भ कर प्रायः माघ की अमावस्या तक उनका जीवन प्राकृतिक विसंगति से भरा हुआ होता था तथा माघ माह की शुक्ल पक्ष के आरम्भ के साथ शीत की भीषणता में कमी आने से पुनः उनका उल्लास मदता का मूल स्वभाव भी जाग्रत हो उठता था। उन्होंने ऋतुओं के जो भेद किये उसमें से अधिकांश शीत ऋतु के ही विभिन्न भेदों से सम्बन्धित हैं, यथा-ग्रीष्म, वर्षा, हेमंत, शिशिर, शरद एवं वसंत। इनमें से चार भाग अर्थात् हेमंत से वसंत तक क्या शीत ऋतु के ही विभिन्न चरण नहीं?
ऐसी स्थिति में यह स्वभाविक ही था, कि जब प्रचंड शरद ऋतु के उपरांत भगवान सूर्य के दर्शन हो, तो उनमें नवजीवन और आह्लाद का संचार हो। यद्यपि ऊपर ऋतुओं के अनुसार भेद दिये हैं, किन्तु हमारे पूर्वज जो मुख्यतः प्रकृति पूजक ही थे, उनकी गणना सूर्य की गति से होती थी तथा वे अपनी विशिष्ट गणना पद्धति से यह पूर्वानुमान कर लेते थे, कि कब सूर्य का मकर राशि में संक्रमण होगा और वही अवसर उनके लिए नव वर्ष का अवसर होता था।
सूर्य के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। सूर्य ही वह परम तत्व है, जो संसार के समस्त तेज, दीप्ति और कान्ति के निर्माता तथा इस जगत की आत्मा कहे गये हैं। सूर्य ही वह विराट पुरूष, आदि देव है, जिनकी साधना-उपासना से समस्त रोग, नेत्र-दोष और ग्रह बाधा दूर होती हैं, क्योंकि सूर्य ही अपनी शक्ति न केवल पृथ्वी को अपितु चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि आदि को उचित मात्रा में प्रदान कर इस सृष्टि का संचालन करते हैं।
सूर्य के सम्बन्ध में ‘शिव पुराण’ में लिखा है, कि-
ब्रह्मा, विष्णु व रूद्र सूर्य के ही अभिन्न अंग स्वरूप हैं, सूर्य में ये तीनों देव स्थित हैं।
यह पूर्ण सत्य है कि किसी पौधे को कुछ दिनों के लिए अन्धकार में रख दिया जाये। जहां सूर्य का प्रकाश बिल्कुल ही न पहुंचे, तो वह पौधा मृत हो जायेगा, यही स्थिति मनुष्य की है, यदि मनुष्य को सूर्य-तत्व निरन्तर प्राप्त न हो तो उसे विभिन्न प्रकार के त्वचा रोग, नेत्र-रोग तथा पेट सम्बन्धी बीमारियां हो जाती हैं।
सूर्य ग्रहराज हैं और कभी वक्री नहीं होते। सदैव मार्गी ही रहते हैं। सिंह राशि के स्वामी हैं और स्थिर स्वभाव के, क्षत्रिय वर्ण, विद्या, व्यक्तित्व, तेज, प्रभाव, स्वाभिमान के कारक ग्रह हैं, सूर्य के चन्द्र, मंगल, बृहस्पति मित्र ग्रह तथा शुक्र, शनि शत्रु ग्रह हैं। सूर्य सभी ग्रहों के दोष-प्रभाव का शमन कर सकते हैं, परन्तु शनि, जो कि सूर्य पुत्र माने गये हैं, सूर्य नष्ट करने में समर्थ हैं।
मकर संक्रान्ति के अवसर पर सूर्य साधना का लोक व्यवहार में सदा से महत्व रहा है। अंतर केवल इतना है, कि जहां सामान्य व्यक्ति केवल पूजन के द्वारा अपनी श्रद्धा भगवान सूर्य को निवेदित करते हैं, वहीं साधक उनके वरदायक प्रभाव को किसी विशिष्ट साधना के द्वारा अपने शरीर में उतारने का प्रयास करते हैं, जिसके फलस्वरूप उनके जीवन के विविध पाप-दोष एवं जड़तायें समाप्त हो सकें।
सूर्य की साधना का महत्व एक छोटे से उदाहरण से ही समझा जा सकता है, कि जिस प्रकार एक छोटी-सी खिड़की खोलने पर कमरे का अंधकार पूरी तरह से समाप्त हो जाता है तथा उजाले का संचार हो जाता है, उसी प्रकार उचित साधना के द्वारा एक छोटी-सी खिड़की खोलने भर से ही जीवन की दरिद्रता, जड़ता, आलस्य, मलिनता और चिंता आदि का अंत होने की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। क्या आप अपने नववर्ष का आरम्भ इसी रूप में नहीं करना चाहेंगे?
मकर संक्रान्ति के पर्व को यदि ‘प्राणश्चेतना के पर्व’ की संज्ञा दी जाए, तो सर्वाधिक उचित होगा और यह भी सत्य है, कि जब तक जीवन में प्राणश्चेतना का प्रवाह नहीं होता, तब तक न तो व्यक्ति स्वस्थ हो सकता है, न सुखी और न ही आध्यात्मिक। इन अर्थों में मकर संक्रान्ति की साधना चतुर्विध प्रभाव प्रदान करने में समर्थ है, जो मूलतः सूर्य साधना ही है।
यदि इस जगत में अविराम गति की किसी प्रकार से उपमा की जा सकती है, तो निश्चय ही एक मात्र सूर्य के माध्यम से ही की जा सकती है। यद्यपि धरा के किसी भी भूभाग पर सूर्य का आविर्भाव मात्र बारह घंटे के लिए होता है और शेष बारह घंटे वही भूभाग सूर्य के अस्त हो जाने के पश्चात् अंधकार में डूब जाता है, किन्तु यह तो एक चक्र अथवा गति पर कोई अंतर नहीं पड़ता है, क्योंकि वह तो निरन्तर धरा के समस्त भूभागों को क्रमशः अपना संस्पर्श प्रदान करता ही रहता है और इसी कारण वश भारतीय चिंतन में ही नहीं वरन् इस विश्व के अनेक धर्मों व संस्कृतियों में सूर्य को मात्र एक प्रकाशमान पिण्ड अथवा ऊष्मा के स्त्रोत के रूप में ही स्वीकार न करके साक्षात् देवतुल्य ही माना गया है।
सूर्य को ऐसे स्वीकार करने में कोई अतिरेक भी नहीं है, क्योंकि जो भी जीवन में ऊष्मा व प्रकाश को लाये उसे स्वतः ही स्तुत्य माना जाना चाहिए। कदाचित् यही हमारे पूर्वजों, महान ऋषियों की अंतर्भावना रही और इसी कारणवश उन्होंने कालपुरूष की कल्पना भी सूर्यरूप में की। सूर्य का पूजन दूसरे रूप में काल चक्र का ही तो पूजन है और इस जगत में क्या चर और क्या अचर है, जो काल चक्र से आबद्ध न हो?
केवल काल चक्र के बंधन से मुक्त होकर जीवन मुक्त होने के लिए ही नहीं, अपितु तेजस्विता की तो इस जीवन में पग-पग पर आवश्यकता पड़ती ही है, चाहे वह अर्थोपार्जन का विषय हो अथवा समाज में अपना एक वर्चस्व युक्त प्रभाव बना कर सम्मानजनक जीवन जीने का। दुर्बल व्यक्ति की गति न तो इस लोक में हो पाती है और न ही इस लोक से इतर या किसी अन्य लोक में, ऐसा ही शास्त्रों का भी प्रमाण है।
गायत्री मंत्र में भी मूल रूप से यही व्याख्या है, कि हे सविता (सूर्यदेव) आप हमें अपनी तेजस्विता प्रदान करें, लेकिन संक्रमण काल में सूर्य का आह्वान किस प्रकार किया जाये, यह महत्वपूर्ण है। मूल रूप से संक्रमण का अर्थ है परिवर्तन। जीवन में सन्धि काल-संक्रमण काल आता ही रहता है। संक्रमण शुभ से अशुभ की ओर हो सकता है और अशुभ से शुभ की ओर भी। लेकिन क्या हम संक्रमण में भी स्थिर चित्त से जीवन को निरन्तर शुभ की ओर गतिशील कर सकते हैं? क्या ऐसा सम्भव है? संक्रमण काल में सूर्य साधना से यह सम्भव हो सकता है।
सूर्य भगवान के विषय में भविष्य पुराण के ब्रह्म पर्व में कथा वर्णित है। वही अव्यक्त ईश्वर भगवान सूर्य के रूप में दृश्यमान होते हुए इस गगन मण्डल पर अभिव्यक्त अथवा प्रकट होते हैं, जिन्होंने सभी देवताओं तथा प्रजा की सृष्टि करने के उपरान्त अदिति के गर्भ से बारह रूपों में जन्म लिया और इस जगत में द्वादश आदित्यों के रूप में विख्यात हुए। भगवान आदित्य के द्वादश नाम इस प्रकार हैं- इन्द्र, धाता, पर्यन्य, त्वष्टा, अर्यमा, भग, विवस्वान् अंशु, विष्णु, वरूण, एवं मित्र।
अन्य देवताओं को तो साधना-उपासना द्वारा, उनके स्वरूप को भीतर ही भीतर, भावना के द्वारा ही समझे जा सकते है, लेकिन सूर्य देव तो नित्य-प्रति प्रत्यक्ष होने वाले, साधक के सामने ही स्थित हैं, तो इनको क्यों न सिद्ध किया जाय? सूर्य की साधना साधक के भीतर ज्ञान और क्रियाशीलता का उद्दीपन करती है, यह तेज कभी शांत नहीं होता, सूर्य की शक्ति संज्ञा, कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया का प्रारम्भ नहीं, अपितु प्रारम्भ से पूर्णता तक है। नेत्र सूर्य के ही स्वरूप हैं और नेत्र सम्बन्धी सभी प्रकार के रोगों-दोषों को दूर करने के लिए सूर्य की साधना ही की जाती है।
यदि पौराणिक शैली में किए गये भगवान सूर्य के इस वर्णन को गूढ़ता से परखें, तो वास्तव में उन्हें ही समस्त जगत का नियंता और पालनकर्ता वर्णित करने की ही तो चेष्टा की गई है और जो सूक्ष्म बात है वह यह कि इस प्रकृति के समस्त उपादानों की क्रियाशीलता अथवा तेजस्विता का आधार भगवान सूर्य को ही घोषित किया गया है। आज विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार कर चुका है कि इस पृथ्वी का समस्त चक्र केवल सूर्य की उपस्थिति के कारण ही सम्भव है। कदाचित् यही कारण है जिसका हजारों वर्षों पूर्व उपनिषदकारों ने अनुभव कर सूर्य को साक्षात् प्राण की ही संज्ञा दी थी।
सूर्य की उपासना में प्राण की ही उपासना है क्योंकि प्राण ही अध्यात्म व भौतिक जगत, दोनों का आधार है। भगवान सूर्य सम्पूर्ण ग्रहों के राजा हैं। जिस प्रकार घर में प्रकाशित दीपक ऊपर-नीचे-सम्पूर्ण घर को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार अखिल जगत के अधिपति सूर्य हजारों रश्मियों से ब्रह्माण्ड के सभी भागों को प्रकाशित करते हैं। मकर संक्रान्ति का पर्व हिन्दू परम्परा में प्राचीन काल से ही अत्यन्त श्रद्धा से मनाया जाने वाला पर्व है। इस पर्व को नूतन वर्ष के मंगलमय होने के स्वरूप में भी सम्पन्न किया जाता है। सामान्य व्यक्ति केवल पूजन के द्वारा अपनी श्रद्धा भावना भगवान सूर्य को निवेदित करते हैं, वहीं साधक उनके वरदायक प्रभाव को किसी विशिष्ट साधना के द्वारा अपने शरीर में उतारने का प्रयास करता है इस हेतु इस पर्व पर तांत्रोक्त, मांत्रोक्त अथवा किसी भी पद्धति की कोई भी साधना सम्पन्न की जाए तो उसका निश्चय ही शीघ्रगामी फ़ल प्राप्त होता है।
साधना हेतु दिसम्बर माह की प्राचीन मंत्र-यंत्र विज्ञान सूर्य गायत्री साधना सम्पन्न करे। इस हेतु सूर्य गायत्री यंत्र, भास्कर सिद्धि गुटिका और संक्रान्ति शक्ति माला आवश्यक रहती है। जिसके फलस्वरूप उसके जीवन के विविध पाप-दोष एवं जड़तायें समाप्त हो सकें। नूतन वर्ष को पूर्ण मंगलमय बनाने हेतु भुवन-भास्कर शक्ति दीक्षा और साधना सामग्री उपहार स्वरूप प्रदान की जायेगी।
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