जीवन में सब कुछ तो दुबारा भी प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु वह क्षण जो बीत गया उसे दुबारा वापस प्राप्त नहीं कर सकते। नक्षत्रों और ग्रहण का जो संयोग इस बार बन रहा है, वह बीत गया तो दुबारा नहीं आ सकेगा। सूर्य ग्रहण तो आएगा पर जो नक्षत्र संयोग इस बार हैं, वे दोबारा इस प्रकार से नहीं होगे। आपको अपने जीवन काल में दस सूर्य ग्रहण का लाभ उठाने का अवसर मिले, परन्तु जो अवसर एक बार चूक गया तो जीवन में मात्र नौ ही ग्रहण बचेंगे और कौन जाने कल कैसी परिस्थिति हो, इसलिए श्रेष्ठ साधक वही हैं जो क्षण के महत्व को पहचान कर निर्णय लेते है।
साधना की प्रक्रिया उतनी कठिन नहीं होती, महत्व तो उस क्षण विशेष का होता है, भारतीय ऋषियों ने काल ज्ञान और ज्योतिष पर इतने अधिक ग्रंथ लिखे हैं तो उसके पीछे मंतव्य यही है कि काल बहुत बलवान होता है। अवतारों के जीवन में भी ग्रहण की महत्ता के प्रसंग देखने को मिलते हैं। भगवान राम ने अपने गुरू से दीक्षा ग्रहण के समय ही प्राप्त की थी, इसी प्रकार भगवान कृष्ण ने भी सान्दीपन से दीक्षा जब प्राप्त की थी, तो समय ग्रहण काल चल रहा था क्योंकि ग्रहण के समय ही तपस्यांश को, दीक्षा या साधनात्मक प्रवाह को पूरी तरह ग्रहण किया जा सकता है।
महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने जा रहा था। उधर कौरवों की सेना सुसज्जित हो चुकी थी, भीष्म, द्रोणाचार्य, कौरव सभी अपने-अपने रथों पर आरूढ़ थे। इस ओर पाण्डवों की सेना तैयार खड़ी थी कि कब युद्ध का बिगुल बजे और युद्ध प्रारम्भ हो। पाण्डवों नें श्रीकृष्ण से युद्ध को प्रारम्भ करने की स्वीकृति मांगी परन्तु कृष्ण ने उन्हें रोक दिया। कृष्ण ने कहा यदि अभी युद्ध आरम्भ हो गया तो विजय किसकी हो निश्चित नहीं कहा जा सकता है, परन्तु अभी कुछ देर में ही सूर्य ग्रहण लगने वाला है, यदि तब युद्ध का शंखनाद किया जाए, तो विजय निश्चित ही पाण्डवों के हाथ लगेगी। कृष्ण ग्रहण के इन सिद्ध क्षणों को समझ रहे थे और निश्चित समय पर जब पाण्डवों ने युद्ध प्रारम्भ किया तो इतिहास साक्षी है, कि एक-एक कर सारे कौरव काल के गर्त में समाते चले गए और पाण्डवों को कुछ भी नहीं हुआ, विजयश्री पाण्डवों के हाथ लगी।
हर व्यक्ति की मूलभूत निम्न इच्छाएं होती हैं।
1- आकर्षक दिखना, सम्मोहन युक्त, तेजस्वी व्यक्तित्व, वाक्चातुर्य एवं कुशाग्र बुद्धि।
2- शत्रु पर पूर्ण विजय तथा स्वास्थ्य उल्लसित जीवन।
3- कार्य में प्रतिष्ठा, सम्मान एवं अपने क्षेत्र, समाज वे देश में पूर्ण ख्याति प्राप्त करना।
4- इच्छित जीवनसाथी, आज्ञाकारी बालक, परिवारिक सुख और समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति।
5- ऐश्वर्य युक्त जीवन के साथ साथ आत्म-कल्याण। ऐसे ही ये सब सूर्य में ही निहित है।
साधक लाल वस्त्र धारण करें, लाल आसन पर पूर्व दिशा की ओर मुख कर बैठें और अपने सामने लाल वस्त्र से ढके बाजोट पर सूर्य यंत्र स्थापित करें। यंत्र का पंचोपचार पूजन करें तथा ‘रवि तेजस माला’ से निम्न मंत्र की 11 माला मंत्र जप करें-
साधना की पूर्णता के बाद यंत्र व माला को गुरुचरणों में अर्पित कर दें। इस साधना से जन्मकुण्डली में जनित दोष समाप्त हो जाते हैं और बालारिष्ट योग का प्रभाव न्यून होकर दीर्घायु की प्राप्ति होती है।
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