अक्षय तृतीया को नवान्न पर्व भी कहा जाता है। यही भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतरण दिवस है और प्रखर भगवान परशुराम की जयन्ती भी है। सर्वथा पहली बार अक्षय तृतीया और सद्गुरूदेव के अवतरण दिवस का संयुक्त विशेष सिद्धि योग दिवस भी बन रहा है।
अक्षय तृतीया तो मानव जीवन का सौभाग्य है। इस दिन जो भी कार्य किया जाए जो भी साधना की जाए वह अक्षय होता है अर्थात उसके शुभ फलों में कोई न्यूनता नही आती। जीवन का आधार धन-सम्पदा, श्री, वैभव एवं लक्ष्मी के स्वरूप से युक्त होता है और अक्षय तृतीया तो माँ भगवती लक्ष्मी एवं भगवान नारायण का संयुक्त फलदायक दिवस है।
लक्ष्मी का तात्पर्य है, सौभाग्य, समृद्धि, धन वैभव, सफलता, सम्पन्नता, प्रियता, लावण्यता, आभा, कान्ति तथा राजकीय शक्ति। ये सब लक्ष्मी के स्वरूप हैं, और जो इनको प्राप्त कर लेता है, वही वास्तविक रूप से लक्ष्मीपति है।
लक्ष्मी तो अथक प्रयत्न के द्वारा प्राप्त गहनतम् साधनाओं का वह सुन्दर परिणाम है, जो साधक को उसकी साधनाओं के, उसके कार्यों के श्रीफल के रूप में प्राप्त होती है, साधनाओं के माध्यम से अभावों और न्यूनताओं को समाप्त कर लक्ष्मी को अपने पास स्थायी भाव से रखा जा सकता है। आवश्यकता है पूर्ण मनोभाव और श्रद्धा के साथ साधना संपन्न करने की।
वीर सिद्धि दिवसः अक्षय तृतीया जो मूल रूप से परशुराम जयंति अर्थात वीर सिद्ध दिवस है, इस दिन वीरभाव प्राप्ति हेतु बाधाओं और शत्रुओं का समूल नाश करने के लिए यदि कोई संकल्प लिया जाता है तो वह संकल्प अवश्य ही पूर्ण होता है। बाधाओं और शत्रुओं पर निश्चित रूप से विजय प्राप्त होती है।
सौभाग्य सिद्धि दिवसः अक्षय तृतीया तो सौभाग्य सिद्धि दिवस है इस कारण स्त्रियां इस पर्व पर व्रत आदि करती हैं जिससे सुख, समृद्धि सौभाग्य की वृद्धि हों पारिवारिक सुख-शान्ति के लिए पूर्वजों का आशीर्वाद और पुण्यात्माओं से परिवार वृद्धि की कामना करती हैं।
कोई भी तिथि क्षय हो सकती है लेकिन यह तिथि कभी भी क्षय नहीं होती। यह पूर्णता के साथ आती है, कई बार नवरात्रि में तिथि क्षय हो जाती है, दीपावली, अमावस्या के स्थान पर चर्तुदशी को सम्पन्न करनी पड़ती है, लेकिन अक्षय तृतीया की तिथि कभी भी क्षय नहीं होती।
इस वर्ष अक्षय तृतीया और निखिल जन्मोत्सव के संयुक्त योग से अक्षय सम्पन्नता स्थापन सिद्धि का विशेष दिवस निर्मित हुआ है। जो प्रत्येक शिष्य और साधक के जीवन का स्वर्णिम क्षण है। जब शिष्य के प्राण गुरू के प्राण से जुड़ेंगे, जब शिष्य का चिन्तन पूर्ण गुरूमय होगा, जब शिष्य अक्षय भाव के साथ गुरूत्व ऊर्जा को आत्मसात कर सकेगा। जिससे जीवन सुगन्ध युक्त, अत्यन्त दैदीप्यमान तेजस्वी और सर्व सम्पन्नता से युक्त हो सकेगा। अद्वितीयता, पवित्रता और श्रेष्ठता आ सकेगी। जो अक्षय रूप से जीवन में सदैव बनी रहेगी।
शिष्य जब समर्पण भाव में आ जाता है और वह गुरू के साथ एकाकार होने के लिए मन मस्तिष्क और हृदय से दृढ़ हो जाता है, तो गुरू शिष्य में आत्म लीन होकर उसमें अपना सम्पूर्ण प्यार उड़ेल देते हैं।
एकलव्य गुरू द्रोण के आश्रम से काफी दूर जंगलों में रहता था, उसने वहां गुरू की मूर्ति स्थापित कर अभ्यास जारी रखा। गुरू द्रोण सदैव उस मूर्ति में प्राण स्वरूप में विराजमान रहते थे और एकलव्य को प्रेरणा दिया करते थे, यह रहस्य केवल एकलव्य और गुरू द्रोण ही जानते थे। सशरीर रूप में कभी सामने न आकर भी एकलव्य को मात्र धनुर्विद्या में नहीं अपितु अपना सर्वस्व ज्ञान देकर पूर्ण कर दिया।
प्रस्तुत ‘अक्षय सम्पन्नता स्थापन साधना’ विश्वामित्र प्रणीत राजा दशरथ को दी गई साधना का परिवर्द्धित रूप है, जिससे साधक गुरू कृपा प्राप्ति के लिए तीव्रता से अग्रसर हो सकें और विश्वामित्र युक्त ब्रह्मास्मि शक्ति को प्राप्त कर सके। एकलव्य ने भी साधना के द्वारा ही गुरू द्रोण की सूक्ष्म उपस्थिति को साकार किया था, आवश्यकता है तो मात्र इस साधना को पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास से सम्पन्न करने की।
यह साधना 21 अप्रैल अक्षय तृतीया को अथवा किसी भी मास की 21 तारीख, से प्रारम्भ की जा सकती है। स्नान आदि से निवृत्त होकर उत्तराभिमुख हो पूजा स्थल में एक पीला वस्त्र बिछाकर सद्गुरूदेव का चैतन्य चित्र स्थापित करें। चित्र ऐसा हो, जिसे आप स्नान करा सकें, विधिवत पूजन कर सकें, तिलक लगा सकें, ऐसा भव्य चित्र स्थापित रहे। उसके बाद सद्गुरूदेव के ललाट, कान, कण्ठ, हृदय स्थान, नाभि, दोनों भुजाओं पर चन्दन से तिलक करें।
यह तिलक बिन्दी स्वरूप हो, तत्पश्चात गुरू चित्र पर सुगन्धित माल्यार्पण करें। इस पूजन के साथ ही सिद्धाश्रम चेतना युक्त ‘अहम् ब्रह्मास्मि शक्ति यंत्र’ स्थापित करें। तदनन्तर निम्न मंत्र का 108 बार उच्चारण करते हुए गुरू चित्र पर अक्षत चढ़ाते हुए गुरूदेव का आवाहन करें।
अब आप एक कटोरी में चन्दन लेकर उसे अपने शरीर के अंगो (ललाट, कान, कण्ठ, हृदय स्थान, नाभि, दोनों भुजाओं) पर लगाएं ओर निम्न मंत्र का उच्चारण के साथ ही गुरूदेव को अपने हृदय स्थान पर विराजमान होने का भाव रखें-
ऊँ कूर्माय नमः, ऊँ आधार शक्तये नमः, ऊँ
पृथिव्यै नमः, ऊँ धर्माय नमः, ऊँ ज्ञानाय नमः, ऊँ
सवित्रालाय नमः, ऊँ ऐश्वर्याय नमः, ऊँ
विकारमकेशरेभ्यो नमः, ऊँ पंचाशर्णाबीजाढ्या
कर्णिकायै नमः, ऊँ वैराग्याय नमः, ऊँ अनेकश्वर्याय
नमः, ऊँ अनन्ताय नमः, ऊँ सर्वतत्वात्मकाय नमः, ऊँ
आनन्दकन्द कन्दाय नमः, ऊँ प्रकृतमयपत्रेभ्यो नमः।
मंत्र जप से पूर्व गुरू मंत्र की 4 माला जप करें।
इसके बाद ‘अहं ब्रह्मास्मि स्थापन मंत्र’ की ‘सम्पन्नता माला’ से 16 माला जप करें।
यह 11 दिन की साधना है और इसे प्रातः काल अथवा रात्रि में ही सम्पन्न करना चाहिए। 21 दिन के बाद माला को जल में प्रवाहित कर दें तथा यंत्र को पूजा स्थान में स्थापित कर दें। साधना समाप्ति के पश्चात् भी दस मिनट मंत्र जप करना चाहिए धीरे-धीरे साधक को गुरूदेव की उपस्थिति का अनुभव होने लगेगा, आपके मन में उमड़ रहे प्रश्नों का उत्तर भी मिलने लगेगा, जीवन में साहस ओर निडरता आ जाएगी।
पाण्डवों के ज्येष्ठ भ्राता महाराज युधिष्ठिर पूर्णतः सद्विचार रखने वाले और सदाचारी थे, धर्म के क्षेत्र में उन्होंने पूर्णता कायम की थी और कठिन से कठिन संकट आने पर भी उन्होंने धर्म का त्याग नहीं किया, फिर भी प्रारब्धवश राजा होने के नाते जुए में अपना राज्य धन, ऐश्वर्य सब कुछ गंवा बैठे, यहां तक कि अपनी पत्नी भी दांव पर लगा दी और उसे भी हार गये। फलस्वरूप उन्हें बारह वर्षों का वनवास भोगना पड़ा। इन बारह वर्षों में उन्होंने कठिन से कठिन दुःख झेले, उनके साथ उनके चार भाई अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव और पत्नी द्रोपदी भी थी।
युधिष्ठिर का यह स्वभाव था कि बिना ब्राह्मणों को भोजन कराये वे स्वयं भोजन नहीं करते थे। वनवास के समय तो उनके खुद के भोजन के लिए भी परेशानी उत्पन्न हो रही थी, फिर अन्य ब्राह्मणों को भोजन कहां से कराते? उनके साथ ब्राह्मणों और संन्यासियों का पूरा दल रहता था। अतः एक दिन उन्होंने हाथ जोड़ कर ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि इस समय मैं वनवास भुगत रहा हूं, इसलिए अब मेरे लिए संभव नहीं रहा है कि मैं आप सब को उचित भोजन कराऊं, अतः आप सब अपने-अपने स्थान को लौट जाएं।
ब्राह्मणों ने दृढ़ता पूर्वक कहा कि जब सुख में आपके साथ रहे हैं तो दुःख में भी हम आपके साथ ही रहेंगे। मगर आप चिन्ता न करें, हम प्रयत्न करके कोई ऐसी साधना विधि ढूंढ निकालेंगे जिससे कि आपको भोजन का कष्ट जीवन में कभी भी व्याप्त नहीं होगा।
तब उनमें से विद्वान महायोगी स्वामी धौम्य ने अक्षय पात्र साधना का मूल रहस्य समझाते हुए युधिष्ठर से कहा कि आप इस साधना को सम्पन्न करें। इस साधना के द्वारा जीवन में कभी भी भोजन, वस्त्र और आवास की कमी नहीं रहती और उन्होंने इससे सम्बन्धित पूर्ण विधि समझा दी।
यह साधना अत्यन्त ही रहस्यपूर्ण है क्योंकि जब महर्षि धौम्य के कहने के अनुसार युधिष्ठर ने सूर्य से सम्बन्धित अक्षय पात्र साधना सम्पन्न की, तो धौम्य ने विशेष मुहुर्त में बनाकर एक अक्षय पात्र युधिष्ठर को दिया जो कि तांबे की बटलोई के आकार का था। जिसे सिद्धि होने पर भगवान सूर्य युधिष्ठर के सामने प्रकट हुए और उनके मन के भावों को समझ कर बोले- हे धर्मराज! तुम्हारा जो भी अभीष्ट है वह तुमको अवश्य ही प्राप्त होगा। युधिष्ठर वापिस संगठित होकर धन, द्रव्य से सम्पन्न हो युद्ध में कौरवों को हरा कर विजय प्राप्त की।
साधना के लिए तीन चीजों की आवश्यकता है – ‘मोती शंख’ जिसे अक्षय पात्र कहते हैं स्वर्ण खप्पर चेतना युक्त ‘’ह्रीं’’ यंत्र’ और ‘अक्षय धनदा माला’। यह साधना अक्षय तृतीया या किसी भी बुधवार के दिन प्रारम्भ किया जा सकता है। यह 11 दिवसीय साधना, जिसे मध्य रात्रि में सम्पन्न करना चाहिए।
सर्वप्रथम समस्त विघ्नों के नाश एवं पूर्ण सफलता हेतु भगवान गणपति का ध्यान करें। तदुपरान्त पंचोपचार गुरू पूजन सम्पन्न कर गुरू का ध्यान करें- फिर ‘मोती शंख’, ‘’ह्रीं’’ यंत्र’ एवं ‘अक्षय धनदा माला’ का पूजन कुंकुम, अक्षत, पुष्प, दूब तथा धूप, दीप से करें। शंख को जल से स्नान कराएं, फिर कुंकुंम से उस पर 21 बिन्दियां लगाकर यंत्र पर स्थापित करें। फिर अक्षय धनदा माला से निम्न मंत्र का 21 माला मंत्र जप करें-
इसमें ध्यान रखना है, कि बीजों के उच्चारण में ‘म’ की जगह ‘ग’ की ध्वनि आएगी, यानि ‘ऐं’ का उच्चारण ‘ऐंग’ होगा। फिर नित्य 11 दिनों तक 1 माला मंत्र जप करें और हर बार मंत्र बोलकर एक अक्षत मोती शंख में डालें, तो नित्य 108 अक्षत उस मोती शंख में आ जायेंगे। फिर 11 वें दिन अक्षत से भरे मोती शंख को लाल वस्त्र में इस तरह से बांधे कि उसमें से कोई दाना न गिरे। फिर उसे अपनी तिजोरी में या व्यापार स्थली पर या पूजा स्थान में रख दें। पर उचित होगा कि यह तिजोरी या रूपये-पैसे के साथ ही रहें, ताकि स्वर्ण युक्त अक्षयता प्राप्त हो सके।
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