शंकराचार्य अपने आप में अलौकिक संन्यासी थे, उन्होंने कई सौ वर्षों बाद भारत की लुप्त विद्याओं को पुनर्जीवित करने का सफल प्रयास किया था और उन विद्याओं को ढूंढ़ निकाला था, जो लुप्त हो गई थी या जो पुस्तकों में ही सिमट कर रह गई थी, उन साधनाओं में परकाया प्रवेश, दिव्य दृष्टि साधना, दिव्य श्रवण साधना, मनः साधना आदि थी।
तंत्र एक मात्र ऐसा माध्यम है, जिसमें अनेक ऐसी विद्याएं, अनेक ऐसे प्रयोग है, जिनका ज्ञान यदि व्यक्ति प्राप्त कर लेता है तो उसके माध्यम से वह किसी भी देवी-देवता का आबद्ध करने में समर्थ हो सकता है। शंकराचार्य तो तंत्र के उच्चकोटि के ज्ञाता थे, उन्होंने ही बौद्ध धर्म को सम्पूर्ण भारतवर्ष से विस्थापित कर पुनः हिन्दुत्व की स्थापना की। तंत्र ही वह सबल माध्यम था, जिसके द्वारा शंकराचार्य कम उम्र में ही अपने लक्ष्य की पूर्णता प्राप्त कर सके। वास्तव में देखा जाये, तो शंकराचार्य का जीवन अनेक रहस्यों से ओत-प्रोत है, जिसकी विवेचना करना, अनेक गोपनीय रहस्यों को उजागर करना ही होगा।
शंकराचार्य के जीवन का गोपनीय तथ्य ही है, कि संन्यासी होते हुये भी, संन्यास धर्म का पालन करते हुये भी किसी के समक्ष याचना नहीं की, वरन स्वयं तो समर्थ हुए ही, साथ ही सब कुछ प्रदान करने में सक्षम भी हुए। जब शंकराचार्य ने देखा, कि समाज की व्यवस्था में असन्तुलन आ जाने के कारण उच्चकोटि की आध्यात्मिक विभूतियां भी भिक्षा मांग कर जीवन यापन करने पर विश्वास करने लगी है एवं साधनाओं का महत्व न्यूनतम होता जा रहा है, बडे़-बडे़ ऋषि-मुनि कर्मक्षेत्र एवं साधनापक्ष को छोड़कर भिक्षावृत्ति में विश्वास करने लगे है, तब शंकराचार्य को इन सभी परिस्थितियों से बहुत ग्लानि हुई। वे चाहते थे, कि भारतवर्ष का कोई भी व्यक्ति भूखा, गरीब, लाचार, बीमार तथा ज्ञान के अभाव में न जिये, जिये तो पौरूषता का जीवन जिये, श्रेष्ठता का जीवन जिये।
आज से कुछ सौ वर्ष पूर्व जब बौद्ध, तांत्रिक, एवं कापालिक सम्प्रदायों के संरक्षण में स्वेच्छाचार और पंच मकार साधना की आड़ में मांस, मदिरा, मैथुन आदि किया जाने लगा, तब ऐसे ही समय में केरल प्रान्त के कालाड़ी ग्राम में शंकराचार्य का जन्म हुआ। उस समय जप, तप, पुण्य, धर्म, यज्ञ, शास्त्र चर्चा प्रायः लुप्त सा हो गया था और विषयासक्ति ने भारतवर्ष को राहु ग्रस्त चन्द्रमा की तरह निगल लिया था। तपस्तेजवान् ब्रह्मवेत्ता ऋषियों ने गिरि-गुफाओं में आश्रय ग्रहण कर लिया था और साधारण मनुष्य विषयों और भोगों का दास मात्र बन गया था।
ऐसे समय में शिवतेजोवीर्यदीप्त आदि शंकराचार्य का आविर्भाव भारत वर्ष में हुआ और उन्होंने भारत को वेदान्त शास्त्र का विजय मुकुट पहनाया। उन्होंने हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक और गन्धार से चट्टग्राम तक के गांवो में घूम-घूम कर वैदान्तिक ब्रह्मज्ञान के प्रचार से भारतवर्ष को फिर जगाया। केवल 32 वर्ष की आयु में घूम-घूम कर न जाने कितने महामहोपाध्याय पण्डितों को शास्त्रार्थ में परास्त किया, कितने भाष्य, वैदिक ग्रंथ, सूत्र व टीकाओं स्तवनों की रचना की, इतना कर्ममय जीवन अन्यत्र देखने को नहीं मिला।
शंकराचार्य ने साधारण लोगों के लिए सगुण ब्रह्मोपासना और दुर्बलों को विष्णु, शिव आदि की प्रतीक उपासना की पद्धति प्रदान की। वहीं उन्होंने मुमुक्षु व्यक्तियों के लिए संन्यास और ब्रह्मज्ञान की व्यवस्था भी की। चित्तशुद्धि हेतु अपने वर्णाश्रम के अनुसार निष्काम कर्मविधियों को अनुमोदन किया। सभी प्रकार के लोगों ने उनके प्रचारित धर्म को उदार हृदय में स्थान देकर अपने को धन्य समझा। वे मात्र गुरू ही नहीं जगद्गुरू कहला सकें।
जो सक्षम गुरू होते हैं, सद्गुरू होते हैं, वे अपने ज्ञान का विस्तार केवल अपने जीवन काल तक ही सीमित नहीं रखते अपितु आने वाले सैकड़ों हजारों वर्षों का उन पर उत्तरदायित्व होता है। सद्गुरूदेव जैसी अत्यन्त उच्चकोटि के परमहंस पांच हजार वर्षों में मात्र एक बार ही पृथ्वी पर अवतरित होते हैं, परन्तु अपने लीला काल में ही वे आने वाले सैकड़ों पीढि़यों के लिए एक सुनिश्चित अध्यात्म पथ प्रशस्त कर जाते हैं। और यह ज्ञान कोई पुस्तकीय ज्ञान नहीं होता, यह ज्ञान कोई ग्रंथों में नहीं लिखा होता, क्योंकि पुस्तकों के मृत पृष्ठों पर अंकित ज्ञान से जीवन में प्राण नहीं डाले जा सकते।
प्राण का संचार तो जीवित जाग्रत चैतन्य गुरू ही कर सकते हैं। सद्गुरू के ये लक्षण होते हैं, कि वे अपने जीवन काल में ही अपने शिष्यों में से किसी को अपना स्थान प्रदान कर दें, अपने समान बना दें, जिससे आने वाला समय मात्र सद्गुरू की मन्दिरों में रखी तस्वीरों की आरती ही न उतारें, अपितु उनके ज्ञान का साक्षात लाभ उन्हीं सद्गुरूदेव की परम्परा को वर्तमान गुरूओं से प्राप्त करें। यही सद्गुरू की दूर दृष्टि होती है। एक ही परम्परा के गुरूओं का सीधा सम्पर्क परम्परा के पूर्व गुरू से हमेशा और निरन्तर बना ही रहता है, इसलिए जो चिन्तन आदि गुरू ने प्रतिपादित किया है, वह चिन्तन, वह ज्ञान मूल रूप में बिना परिवर्तित हुए, बिना विकृत हुए वैसे का वैसा ही गुरू परम्परा के बाद के गुरूओं में उतर जाता है।
तिब्बत के लामाओं के पास आज भी अद्भुत विद्याएं सुरक्षित हैं, आज भी दलाई लामा शरीर छोड़ने से पूर्व अगले दलाई लामा कौन होगा, वह बालक कहां मिलेगा, इसकी सूचना देकर ही जाते हैं। सिक्ख धर्म में भी गुरूनानक के बाद कालान्तर में नौ गुरू और हुए और इस गुरू परम्परा ने सिक्ख धर्म को भारत में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित कर एक ऐसे सशक्त धर्म को दिया जिसके अनुयायी आज भारतीय समाज में एक उच्च स्तर का जीवन जी रहे हैं। यदि सिक्ख धर्म में आज सम्पन्नता है, तो उसके पीछे दस गुरूओं की तेजस्वी गुरू परम्परा का आधार ही है।
नाथ योगियों की गुरू परम्परा में भी अनेक सिद्ध योगी गुरू हुए, जिनके प्रताप से आज भी साबर मंत्र जीवित हैं और आज भी नाथ योगियों की असाधारण शक्ति यदा-कदा देखने को मिल जाती है। जब मंत्र, तंत्र साधना, ज्योतिष, अध्यात्म को मात्र कल्पना जगत की ही वस्तु मान लिया गया था, तब महापुरूषों ने अवतार लेकर नवीन गुरू परम्परा का आरम्भ किया है, वह गुरू परम्परा एक दिन विश्व को अंधकार से निश्चय ही उखाड़ फेकेगा।
देश-विदेशों में जो गेरू वस्त्रधारी संन्यासी दिखाई पड़ते हैं, वे सभी आदि शंकराचार्य की ही अपार महिमा को घोषित करते है। शंकराचार्य ने यह व्यवस्था दी, कि यथार्थ वैराग्य होने पर कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी आश्रम का ही क्यों न हो, तत्काल संन्यास ग्रहण कर सकता है। संन्यासी प्रधानतः दो श्रेणियों में विभक्त हैं – एक दण्डीस्वामी और दूसरा परमहंस। प्रथम अवस्था में दण्डीस्वामी बनकर ब्रह्मज्ञान का विचार करें, फि़र ब्रह्मस्वरूप की उपलब्धि होने पर परमहंस बनकर लोक शिक्षा, शास्त्र व्याख्या तथा जगत कल्याण में अपने को नियुक्त करें। ये संन्यासी हिन्दू समाज के सब सम्प्रदायों के गुरू माने जाते हैं।
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