कभी-कभी ऐसा होता है, कि समस्त ज्ञान-विज्ञान निरर्थक लगने लग जाता है, बुद्धि स्वतः ही विश्राम करने लग जाती है, जगत को यद्यपि मिथ्या नहीं भी मानें, फिर भी उससे सम्बन्ध विच्छेद सा हुआ लगने लगता है और चित्त के कपाट एकाएक खुल जाते हैं। योगियों की भाषा में कहें, तो चर्म चक्षु तो बंद हो ही जाते हैं, कदाचित ज्ञान चक्षु और दिव्य चक्षु भी निस्तेज हो जाते हैं तथा आत्म चक्षुओं के जाग्रत होने का अवसर आ जाता है।
यही वह अवसर होता है, जब जगत् जननी का साक्षात् या आभास होता है। तब मन अपार करूणा में भीगने लग जाते है, द्वन्द्व, पीड़ा, चातुर्य और कभी-कभी तो स्वयं का बोध भी विलीन हो जाता है। हम अपने जीवन में जिस वस्तु को भी लेकर गर्वित हो रहे होते हैं, चाहे वह यौवन हो, सौन्दर्य हो, धन हो या बुद्धिमत्ता हो, एक छोटे से खिलौने से अधिक नहीं लगता है, जब स्वयं माँ सामने आती है, तो किसी भी खिलौने का क्या महत्व रह जाता है? भले ही वह कितना ही कीमती क्यों न हो?
इसी कारणवश माता का वर्णन सम्भव ही नहीं, क्योंकि जब चित्त सभी प्रकार से शून्य हो जाता है, तभी उनका बोध होता है और ज्यों ही हम उनका वर्णन करने का प्रयास करते हैं, त्यों ही ज्ञान के अधीन होकर चित्त की सहजता खो देते हैं। ज्ञान के द्वारा हम दस महाविद्याओं में किसी का वर्णन तो कर सकते हैं, साधना की अत्यन्त श्रेष्ठ पद्धति तो खोज सकते हैं, किन्तु जगत्जननी के साक्षात् का वर्णन नहीं कर सकते।
बिना शिशु बने मातृत्व का आगमन हो भी कैसे सकता है? हम तो दम्भ में इतना रच-पच गए हैं कि हम सहज शिशु बनने को भी तैयार नहीं होते। किन्तु भगवती जगज्जननी हैं, उनके पास अपनी संतानों के लिए अलग-अलग उपाय है। जगत् जननी तो माँ हैं, उनकी दृष्टि में कोई भेद कहां? जो दिन भर उनके पास बैठा रहा, वह भी उनका अपना और जो दिन भर इधर-उधर की खाक छानकर लौटा, वह भी उनका अपना।
माँ आद्या शक्ति के तीनों महान स्वरूपों के बारे में ‘श्री देव्यथर्वशीर्ष’ में लिखा है कि हे देवी! आप चित्त स्वरूपिणी महासरस्वती हैं, सम्पूर्ण द्रव्य, धन-धान्य रूपिणी महालक्ष्मी हैं तथा आनन्द रूपिणी महाकाली हैं, पूर्णत्व पाने के लिए हम सब तुम्हारा ध्यान करते हैं, हे! महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी स्वरूपिणी चण्डिके, आपको बारम्बार नमस्कार है, मेरे अविद्या, अज्ञान, अवगुण रूपी रज्जु की दृढ़ ग्रन्थी काट कर मुझे शक्ति प्रदान करें।
शक्ति-प्राप्ति का तात्पर्य बल से नहीं लगाया जा सकता किन्तु शास्त्रीय व्याख्या के अनुसार शक्ति शब्द में ‘श’ ऐश्वर्य सूचक तथा ‘क्ति’ पराक्रम सूचक है। शक्ति का ही अन्य पर्यायवाची शब्द प्रकृति भी है तथा प्रकृति शब्द का ‘प्र’ सत्व गुण सूचक ‘कृ’ रजोगुण सूचक एवं ‘ति’ तमोगुण सूचक घोषित किया गया है इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि प्रकृति अर्थात् पराशक्ति त्रिगुणात्मिक स्वरूप को अपने में समाहित किए हुए हैं, जिसकी उपासना हम पूर्ण भक्ति-भाव और श्रद्धा के साथ महासरस्वती, महाकाली एवं महालक्ष्मी के रूप में करते हैं।
माँ सरस्वती 64 विद्याओं की अधिष्ठात्री देवी हैं। ये ब्रह्मा की शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन्हीं से मस्तिष्क बुद्धि और ज्ञान का उदय हुआ। इनके बिना कोई भी रचना संभव नहीं है। यदि व्यक्ति में रचनात्मक शक्ति है तो वह निरन्तर जीवन में आगे बढ़ते हुए श्री-युक्त के साथ ही साथ ब्रह्मवर्चस्विता से युक्त होता ही है।
भगवती काली का वर्णन प्रत्येक ने अपनी भावनानुसार किया है। कोई उन्हें कृष्ण वर्ण बताता है, तो कोई उन्हें रक्तवर्ण। महानिर्वाण तंत्र के अनुसार भगवती काली शवासन पर बैठी हुई, दीर्घन्ता, भंयकर अट्टाहास करने वाली, चार भुजाओं से युक्त, खड्ग, मुण्ड धारण करने वाली, वर और अभयदात्री, दिगम्बरा, लम्बी जीभ बाहर की हुई, श्मशान की भूमि में रहने वाली बताया गया है। भगवती काली को ही गुह्य काली, भद्र काली, श्मशान काली, ब्रह्मस्वरूपिणी तथा कैवल्य दात्री भी कहा गया है।
भगवती के ललाट पर अमृत्व रूपी चन्द्रमा सुशोभित है, सूर्य, चन्द्र और अग्नि ये भगवती के तीन नेत्र है, जिनके कारण वे समस्त लोकों व समस्त कालों को देखने में समर्थ है। भगवती आद्या काली सदैव अपने बाल सुलभ हृदय वाले साधकों की प्रार्थना को सुनती हैं और उनकी इच्छाओं को पूर्ण करती है।
पुराणों में वर्णित है कि लक्ष्मी भृगु ऋषि और उनकी पत्नी ख्याति की पुत्री है। बाद में वह समुद्र मंथन के पश्चात् समुद्र से उत्पन्न हुई। इस कारण उन्हें क्षीर सागर राजकन्या भी कहा जाता है। भगवती लक्ष्मी सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु की आधारभूता शक्ति और त्रिगुणात्मक स्वरूप में भगवती महालक्ष्मी विभूति, नम्रता, कांति, पुष्टि, कीर्ति, उन्नति, उत्कृष्टि, ऋद्धि कलाओं से युक्त हैं और सम्पूर्ण विश्व में वन्दनीय हैं, पूरे विश्व का आधार भगवती लक्ष्मी ही हैं, जो जीवन में समस्त सुख-सौभाग्य, आनन्द और सम्पूर्ण भौतिक सम्पदा की अधिष्ठात्री देवी हैं। लक्ष्मी के सहयोग से ही मनुष्य सांसारिक जीवन में अपने तीसरे पुरूषार्थ ‘काम’ का पूर्ण रूप से उपयोग कर पाता है।
इन तीनों शक्तियों को धारण कर व्यक्ति पूर्ण हो जाता है अर्थात् इन तीनों शक्तियों द्वारा वह अपनी आतंरिक एवं बाह्य आसुरी शक्ति पर विजय प्राप्त कर लेता है। भौतिक जगत में इस शक्ति का सबसे श्रेष्ठ स्वरूप महालक्ष्मी है, जो सीमा-रहित, नित्य निवासिनी विष्णु की नारायणी शक्ति है।
इस सृष्टि में जो कुछ भी है विद्या, अविद्या माया वह त्रि-शक्ति का ही स्वरूप है। बुद्धि, श्री, कीर्ति, गति, श्रद्धा, मेधा, दया, लज्जा, क्षुधा, तृष्णा, क्षमा, कान्ति, शान्ति, स्पृहा ये सभी शक्तियां रूद्र की शक्ति, विष्णु की शक्ति और ब्रह्मा की शक्ति के रूप में विद्यमान है, प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में आगे वृद्धि करने हेतु निरन्तर शक्ति की आवश्यकता होती है और शक्ति प्राप्त करने के लिए तथा प्राप्त शक्ति के चिरस्थायित्व के लिए आद्या शक्ति की स्तुति करनी ही चाहिए। जिस व्यक्ति के जीवन में कर्म, ज्ञान और संहार रूप में शक्ति होती है उसे जीवन की सभी भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियां अवश्य ही प्राप्त होती है। गुरूदेव का सदैव यही चिंतन रहा है कि कैसे उनके सभी मानस पुत्र-पुत्रियों के जीवन की कठिनाईयों, बाधाओं को समाप्त कर उन्हें प्रसन्न और आनन्दयुक्त जीवन प्राप्ति हो सकें, इसके लिए वे अन्य किसी की भी परवाह न करते हुए निरन्तर प्रयत्नशील रहे है, वे ब्रह्म स्वरूप में शिष्य का नवीन निर्माण करते हैं, उसे एक नवीन व्यक्तित्व देते हैं, विष्णु की भांति उसे पालते हैं, उसकी हर इच्छा, हर आकांक्षा पूर्ण करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि जब तक शिष्य की इच्छाएं पूर्ण नहीं होगी। तब तक वह अध्यात्म की उच्चतम् अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः वह शिव की भांति शिष्य को मृत्यु देते हैं, उसके कुसंस्कारों की मृत्यु, अहंकार की मृत्यु, उसकी परेशानियों, बीमारियों एवं दरिद्रता को मृत्यु प्रदान करते हैं।
इस बार पुनः पूज्य गुरुदेव ऐसी दिव्यतम क्रिया सम्पन्न कर रहे है। श्रेष्ठ जीवन निर्माण की क्रिया सद्गुरूदेव के सान्निध्य में 2-3 मई को आद्या शक्ति माता वैष्णों की तेजमय तपोभूमि की यात्रा सम्पन्न होगी। जिससे उनके शिष्यों का कल्याण हो सके।
अपने इष्ट के सानिध्य में इच्छा-शक्ति, ज्ञान-शक्ति और क्रिया शक्ति तीनों शक्तियां को सद्गुरुदेव के सान्निध्य में आत्मसात कर जीवन को नृसिंहमय बना कर कष्ट बाधाओं को जडमूल से समाप्त कर सुरक्षित बनाने की क्रिया सम्पन्न कर सकेंगे। नृसिंह जंयती के पूर्ण फलदायी अवसर पर सिंहत्व शक्ति से युक्त हो सकें इस हेतु ललिताम्बा राज राजेश्वरी शक्ति दीक्षा और शंकराचार्य प्रणीत अक्षुण्ण धान लक्ष्मी दीक्षा प्रदान की जायेगी। और भैरव मन्दिर प्रागंण में नृसिंह भैरव शक्ति दीक्षा व जानकी गौरी उर्वशी शक्ति दीक्षा से सिंहत्व शक्ति को आत्मसात कर जीवन की सभी कामनाओं को पूर्णता से प्राप्त कर सकेंगे।
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