प्राचीन शास्त्र विलुप्त होते जा रहे हैं और उनके स्थान पर एक पीढ़ी द्वारा दूसरी पीढ़ी को कही गई बातों को आधार माना जाने लगा है। पिछले पांच-छः सौ वर्षों में शास्त्रों की ओर ध्यान न देकर लोक कथाओं के रूप में जो परिपाटी चली आ रही है, उस पर ज्यादा ध्यान दिया जाना लगा तथा अर्द्ध ज्ञान से युक्त तथा कथित पंडितो ने जो कह दिया, वही सामाजिक सत्य माना जाने लगा। मेरे अनुभव में यह आया है कि पिछले पांच छः सौ वर्षों में हिन्दू धर्म में भय की भावना उत्पन्न कर पूजा दान इत्यादि पर बल दिया जाने लगा। इस मास में शुभ कार्य हो सकता है, इस मास में शुभ कार्य नहीं हो सकता, इस मास में दान विशेष करना चाहिए। इस प्रकार की कई भ्रांतियां फैलती गई और जब धर्म में भय के आधार पर कोई कार्य होता है तो मनुष्य वह कार्य अपनी इच्छा से नहीं करता, वह उसे एक परिपाटी मानकर सम्पन्न करने का प्रयास करता है और जब बिना भावना के, मनः शक्ति के अभाव में कार्य किया जाता है तो वह पूजा साधना भी सफल नहीं होती। ज्यादातर विधानों में यह वर्णन आता है कि अमुक पूजा नहीं करोगे तो देवता नाराज हो जायेंगे। यह बात मुझे तो सुनने में ही विचित्र लगती है। देवताओं का कार्य मनुष्य के जीवन में उन्नति देना है, मनुष्य शरीर में देवताओं का निवास है और अपनी कृपा करना उनका कर्त्तव्य है। ऐसी स्थिति में यदि कोई टोना-टोटका रूपी पूजा नहीं की गई तो ईश्वर कैसे नाराज हो सकते हैं?
खैर, मैं इस विषय में और अधिक विवेचन कर तथा कथित पण्डितों पर आक्षेप नहीं करना चाहता, लेकिन आप इतना निश्चित जान लीजिये कि जिस प्रकार हर दिन सूर्य उदय होता है उसी प्रकार आपके जीवन में भी प्रत्येक दिन एक नया अध्याय प्रारम्भ होता है। प्रत्येक दिन कार्य करने के लिये शुभ है, हमारे भीतर भावना तीव्र एवं बलवती होनी चाहिए, कुछ नवीन निर्माण की इच्छा शक्ति होने से हम जीवन में निरन्तर विकास की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
अधिक मास ज्योतिषीय विवेचन भारतीय ज्योतिष शास्त्र में चन्द्र पंचांग की प्रमुखता है और चन्द्र पंचांग में हर तीन वर्ष में एक मास अधिक हो जाता है। जिस प्रकार चन्द्र मास में अधिक मास होता है। उसी प्रकार चन्द्र मास में कई बार एक मास कम भी हो जाता है। जिसमें केवल 11 महीने ही होते हैं। लेकिन ऐसा चन्द्र वर्ष जिसमें केवल 11 महीने हों अपने आप में अनोखी घटना कही जाती है। यह घटना 140 साल में अथवा 190 वर्ष में एक बार घटित होती है। लेकिन अधिक मास हर तीसरे वर्ष आ जाता है। क्योंकि सामान्यतः 12 महीनों से एक मास बढ़ जाता है। इसलिए इसे अधिक मास कहा जाता है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जिस मास में सूर्य संक्राति नहीं आती वह मास अधिक बन जाता हैं। वशिष्ठ सिद्धान्त में स्पष्ट किया गया है कि अधिक मास प्रत्येक 32 महीने 16 दिन 8 घटी (1 घटी-24 मिनट के बराबर तथा 60 घटी 24 घटों के बराबर होती है। से प्रारम्भ होता है। इसीलिये इस अंतर को पूर्ण करने के लिये करीब 32-33 महीनों में ऋषियों ने एक अतिरिक्त मास की गणना की और वह अधिक मास कहलाता है।
महर्षि हिमाद्रि के अनुसार अधिक मास में वह क्षमता होती है कि मनुष्य उस समय पूजा, साधना, तपस्या इत्यादि सम्पन्न कर अपने पूर्व जन्म कृत दोषों का निवारण कर सकता है तथा दान, दया, त्याग तप इत्यादि द्वारा जीवन में शारीरिक एवं मानसिक शुद्धता ला सकता है। पुराणों में वर्णित एक कथा के अनुसार राजा नहुष ने अधिक मास में साधना सम्पन्न की जिससे वे सभी पापो से मुक्त हो गए और देवताओं के अधिपति इन्द्र का सिंहासन प्राप्त कर लिया। देवी भागवत के अनुसार अधिक मास में विशिष्ट पूजा, धार्मिक कार्य, साधना इत्यादि करने से विशेष फल प्राप्त होता ही है। देवी भागवत में तो यहां तक लिखा है कि जैसे एक अणु जितना बीज विशाल वृक्ष को बना सकता है उसी प्रकार अधिक मास में किये गए थोड़ा शुभ कार्य, पूजा साधना भी महान फल देते हैं। जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि अधिक मास को पुरूषोत्तम मास भी कहा जाता है। इस सम्बन्ध में एक अत्यन्त सुन्दर कथा आती है।
चन्द्र वर्ष के अनुसार प्रत्येक वर्ष में 12 महीने होते हैं तथा प्रत्येक महीना एक देव को समर्पित है लेकिन चंद्र वर्ष और सूर्य वर्ष की आपस में गति के संयोजन न होने के कारण से ऋषि मुनियों ने गणना की और एक अधिक मास का निर्माण किया। प्रत्येक महीने के एक अधिपति ब्रह्मा ने निश्चित कर लिये लेकिन अधिक मास को कोई देव वरण करने हेतु तैयार नहीं हुआ क्योंकि यह हर तीन वर्ष में एक बार आता है। इस पर अधिक मास पुरूष रूप में दुःखी एवं सन्तप्त होकर भगवान विष्णु के पास पहुंचा और कहा कि मुझे किसी भी देवता से संयुक्त नहीं किया गया है और मलमास, मलिमुच्छा के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इन सब स्थितियों से मैं अत्यन्त दुःखी और संतप्त हूं तथा आपकी शरण में आया हूं। आप ही जगत के पालन कर्त्ता और सृष्टि के संचालन कर्त्ता हैं। आपसे निवेदन है कि मेरे लिये कुछ उचित व्यवस्था करें।
इस स्थिति को देख कर भगवान विष्णु ने करूणा स्वरूप में कहा कि आज से अधिक मास का अधिपति मैं होऊंगा और यह मास पुरूषोत्तम मास कहा जायेगा। इस मास की विशेषता अन्य सभी महीनों से अधिक होगी। तथा इस मास में अच्छे कार्य सम्पन्न कर विशेष सिद्धि व सफलता प्राप्त की जा सकेगी। पुरूषोत्तम मास के सम्बन्ध में तो एक पूरा ग्रंथ ही लिखा गया है जिसे पुरूषोत्तम ग्रंथ कहा जाता है जिसमें इस माह की विशेष व्याख्या तथा धार्मिक, आध्यात्मिक महत्व का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है।
भविष्योत्तर पुराण में यह विवेचन आया है कि पुरूषोत्तम मास में उपवास अथवा व्रत शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन प्रारम्भ करना चाहिए और कृष्ण पक्ष के अन्तिम दिन इसे पूर्ण करना चाहिए। पुराणों में तो अधिक मास के बारे में अत्यधिक विस्तार से विवेचन आया है। पुराणों में लिखा है कि अधिक मास में पूजा करने से मंत्र जप करने से, इच्छा रहित शुद्ध भाव से क्रिया करने से, श्रेष्ठ ग्रंथों श्रीमद्भागवत, रामायण, गीता का पठन व श्रवण करने से सुफल प्राप्ति अवश्य होती है।
अधिक मास विष्णु एवं लक्ष्मी की पूजा का मास है। इस मास में ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर शिव गौरी, राधा कृष्ण, लक्ष्मी-नारायण की षोड़शोपचार पूजा सम्पन्न करनी चाहिए। किसी मंदिर अथवा स्वयं के पूजा स्थान में बैठकर गणपति और गुरू पूजन के साथ विभिन्न देवताओं की पूजा साधना अवश्य सम्पन्न करनी चाहिए। अधिक मास में सात्विक शाकाहारी भोजन, दूध, फल, नारियल इत्यादि का सेवन करना चाहिए।
भविष्योत्तर पुराण में लिखा है कि भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि अधिक मास में केवल भगवत् साधना करने के उद्देश्य से की गई साधनाओं से लौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही फल प्राप्त होते हैं, मनुष्य अपने जीवन में लौकिक दृष्टि से विशेष सफलता प्राप्त करता है तथा अपघात, दुर्घटना, आकस्मिक मृत्यु, दुःख, चिंता, दुर्भाग्य, व्याधियां, अकारण समस्या, परिवारिक कलह, बेरोजगारी, दरिद्रता का निवारण होता है।
गृहस्थ जीवन के जनक परम पूज्यनीय प्रिय सद्गुरूदेव जी और कृपामयी माता जी जो साक्षात् शिव-गौरी स्वरूप हैं, जिनके जीवन के जर्रे-जर्रे में उनके मानस के राजहंसो के कल्याण का ही चिंतन रहता है।
उन्हीं जगत् मातृ-पिता के पावन पाणि ग्रहण के दिव्यतम अवसर पर प्रत्येक साधक-साधिका को प्रेममय बंधनों से सराबोर करने और जीवन को शिव-गौरीमय शक्ति से आपूरित करने की क्रिया सम्पन्न् होगी। जिससे आपका गृहस्थ जीवन सम्पूर्ण वैभव, क्रिया शक्ति, आरोग्य शक्ति, सौभाग्य शक्ति से युक्त हो साथ ही नवीन चेतना को ग्रहण कर जीवन के नवनिर्माण की ऊर्जा प्राप्त कर सकें, व्यक्तिगत रूप से गुरूदेव व माता जी से मिलकर पारिवारिक आत्मीय वातावरण में सुखद वृद्धि हेतु मार्ग दर्शन और चेतना प्राप्त कर सकेगें ।
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