यूं तो नारी का प्रत्येक स्वरूप मधुर होता है, प्रत्येक स्वरूप में एक निश्चित अर्थवत्ता व महत्वपूर्ण स्थान होता है, चाहे वह मां का स्वरूप हो, बहन या पुत्री के रूप में हो। चाहे वह पत्नी हो अथवा प्रेमिका या मित्र के रूप में ही क्यों न हो।
स्वरूपों में भिन्नता हो सकती है, किन्तु प्रत्येक स्वरूप ममत्व की किसी अन्तःस लीला का प्रवाह लेकर ही गतिशील होता है, आप्लावित कर देने की चेष्टा में ही निमग्न होता है, क्योंकि ऐसा करना प्रत्येक स्त्री का मूल धर्म होता है, लेकिन इन स्वरूपों से भिन्न जो विशिष्ट से भी विशिष्टतम होता है, उसे योगिनी कहा गया है।
योगिनी एक नारी देह में आबद्ध होते हुए, नारी मन की समस्त कोमल भावनाओं को एकत्र कर, उपस्थिति होते हुए भी अन्ततोगत्वा शक्ति का एक पुंज ही होती है, जो नारी देह का आश्रय लेकर सम्मुख आती है, क्योंकि शक्ति का आश्रय स्थल सदैव से ही नारी को स्वीकार किया गया है।
केवल साधक ही नहीं, प्रत्येक सामान्य मनुष्य के जीवन में भावनाएं होती हैं, जो उसे सहज प्रवाह देती हैं। यदि भावनाओं को ही निकाल दिया जाए, तो मनुष्य व यंत्र में अंतर ही क्या रह जाएगा? किन्तु मनुष्य यंत्र नहीं हो सकता। पहले ही इस युग की सभ्यता ने मनुष्य को एक यंत्र बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है जिसके परिणाम की अधिक व्याख्या की कोई आवश्यकता नहीं है। जो सम्मुख है, वह है एक यंत्रवत् जीवन जिसमें न किसी के प्रति कोई ममत्व है, न अपनत्व, न उछाह, न वेग, न प्रेम, न उत्साह और न ही इन भावनाओं के अभाव में जीवन के प्रति कोई लक्ष्य ही।
किसी भी व्यक्ति से पूछ कर देखिए, कि उसके जीवन में जो आपा-धापी चल रही है, वरन् जिसका वह निरन्तर पोषण भी करता जा रहा है, उसका अर्थ क्या है? क्यों वह सदैव इतना उद्विग्न बना रहता है? इसके मूल्य पर उसे क्या प्राप्त हो जाएगा? किसी के पास भी इसका निश्चित उत्तर नहीं होगा, भावनाएं जो जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि हो सकती हैं, जब उसी का अभाव हो गया, उसी का हनन करके कुछ निर्मित करने की चेष्टा की, तो भूल तो वहीं से प्रारम्भ हो गयी।
और इसी बिन्दु पर आकर योगिनी साधना का महत्व स्वयंमेव स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि योगिनी साधना का अर्थ ही है, भावनाओं की साधना, अपनत्व व ममत्व की साधना, जीवन में जो कुछ विस्मृत हो चला हो, जो कुछ टूट गया हो, उन सभी को अर्जित कर लेने की। यह तो भावनाओं का ही बल होता है, कि जीवन में कोई भी व्यक्ति वह सब कुछ कर जाता है, जो अन्यथा उसके सहज बल से सम्भव नहीं था और यहां यह ध्यान रखने की बात है, कि बल का तात्पर्य शारीरिक बल से नही होता है। यह तो मानसिक और आत्मिक बल होता है, जो एक नर को पुरूष बनने की ओर तथा पुरूष को पुरूषोत्तम बनने की ओर उत्प्रेरित करता है और इसके मूल में होती हैं वे भावनाएं, जिनके मूल में होता है प्रेम! यह कहना पुनरोक्ति हो जाएगा, कि प्रेम का आधार होती है स्त्री।
जो अपनत्व का भाव पत्नी के रूप में अधिक स्पष्टता से सामने आता है, प्रेमिका के रूप में वही भाव इस रूप में किंचित परिवर्तित हो जाता है, कि वह अपने प्रिय को सभी रूपों में केवल श्रेष्ठ ही नहीं श्रेष्ठतम देखना चाहती है, क्योंकि सामाजिक शिष्टाचार के अन्तर्गत एक प्रेमिका से अधिक पत्नी को अपनी भावनाएं प्रकट करने की छूट होती है। अंतर केवल सामाजिक बंधनों का ही होता है, अन्तर्मन का नहीं और यही जीवन में सर्वाधिक संतोष और संतोष से भी कहीं अधिक अथाह तृप्ति का कारण बन जाता है।
कोई मेरे लिए भी चिंतायुक्त बना रहता है, कोई कहे-अनकहे रूप में मुझ पर अपना प्रेम बरसाता ही रहता है, कोई मेरे बारे में भी सोचता रहता है और सबसे अधिक मेरे सारे अस्तित्व पर अपना अधिकार मानता है। ये तो जीवन की बड़ी अनोखी सी आश्वस्तियां होती हैं, जिनके ताने-बाने में बुना जीवन ही सही रूप में गतिशील होता हुआ पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकता है।
क्योंकि ऐसी आश्वस्ति मिल जाने से एक प्रकार का सुरक्षा बोध मिल जाता है और भावनाओं के आधार पर मिली आश्वस्ति ही वास्तविक सुरक्षा बोध दे सकती है अन्यथा व्यक्ति इसी को प्राप्त करने के लिए पता नही कहां-कहां भटकता है। जीवन एक निरपेक्ष घटना नहीं होती है। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी पद, प्रतिष्ठा अथवा आर्थिक स्थिति का क्यों न हो, अपने जीवन का ताना-बाना किसी व्यक्ति या किसी भावना से जोड़ कर बुनना चाहता है। सामान्यतः व्यक्ति अपने जीवन को या अपनी अस्मिता को अपने परिवार से जोड़ कर जीवित रखना चाहता है। इसमें कोई अनुचित बात भी नहीं है।
परिवार जैसी सामाजिक संस्था के निर्माण के पीछे उद्देश्य ही यही रहा है, किन्तु निरन्तर बढ़ते हुए आर्थिक एवं अन्यान्य दबावों के बाद क्या आज यह सम्भव रह गया है, कि व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों से कुछ अलग हट कर, अपने जीवन को आ“लाद वह मधुरता देने वाले क्षणों के विषय में चिंतन तक कर सकें? जीवन में ऐसी स्थिति आ जाने पर जिस प्रवाह की आवश्यकता होती है, वह केवल साधनाओं से ही उपलब्ध हो सकती है, क्योंकि प्रत्येक साधना स्वयं में शक्ति का एक अजस्र प्रवाह ही तो होती है। और यही तथ्य योगिनी साधना में भी पूर्णतया सत्य है। किन्तु योगिनी इतना हल्का शब्द नहीं होता।
योगिनी स्वयं में शक्ति तत्व की एक विशिष्ट प्रस्तुति व स्वरूप होती है, जिसकी साधना सम्पन्न करना प्राण तत्व को सचेतन करने का एक उपाय होता है। जो आतुर होती है अपने साधक को जीवन के सभी सुख देने में, भले ही वे इच्छा प्रकट करें या ना करें। दूर पड़ी किसी वस्तु को उठा लाने जैसी बात हो या धन का भण्डार खोल देने जैसी कृपा, मनोनुकूल विवाह सम्पन्न कराने की। पग-पग पर अपना स्नेह और मार्ग दर्शन के साथ-साथ वह करती रहती साधक की प्रतिपल रक्षा और सचेत कर देती है किसी भी षड़यंत्र या धोखे के प्रति।
योगिनी अपने सिद्ध साधक में भर देती है ऐसा तेज, बल जिससे सामने वाला प्रभावित हुए बिना रह ही नही सकता। आकाश में गिरी कड़कती बिजली जैसा यौवन या आंखों में मस्ती के वे लाल डोरे, जो सही अर्थों में किसी पुरूष के यौवन का प्रमाण हो या फिर तना हुआ सीना, सब कुछ उतार देती है यह योगिनी, जिससे साधक छा जाए सारे वातावरण में——-।
यह सत्य है, कि योगिनी की प्रस्तुति एक प्रेमिका रूप में होती है। किन्तु यह आवश्यक नहीं कि प्रेमिका शब्द से सदैव वासनात्मक अर्थ ही अभिप्रेत हो। योगिनी को प्रेमिका रूप में सिद्ध करने का तात्पर्य होता है, एक ऐसी स्त्री, जो अपने प्रिय पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने में ही अपना सुख मानती हो और उसे जीवन का समस्त सुख-वैभव, आनन्द के साथ तीक्ष्ण बल, ओज और संघर्ष करने की ऊर्जा प्रदान करती है।
यह साधना योगिनी एकादशी अथवा शुक्रवार को सम्पन्न की जा सकती है। साधना में श्वेत ही धारण करना चाहिए। अपने सामने बाजोट पर सफेद वस्त्र बिछाकर योगिनी स्वरूप त्रिपुर सुन्दरी यंत्र को स्थापित कर गुलाब की पंखुडि़या बिछायें, वातावरण को धूप की सुगंध से भरा रखें। यंत्र पर दस योगिनी कृतवाह युक्त कमल गट्टे के बीज अर्पित करें। इसके पश्चात् सफेद हकीक माला से निम्न मंत्र का 16 माला जाप करें।
यह एक दिवसीय साधना है तथा साधना सम्पन्न करने के दूसरे दिन यंत्र व माला को किसी स्वच्छ जलाशय में या निर्जन स्थान पर विसर्जित कर देना चाहिए। जैसा कि प्रारम्भ में कहा गया है कि, योगिनी शक्ति तत्व का ही एक विशिष्ट प्रस्तुतिकरण होती है, अतः इसे मनोयोग पूर्वक सम्पन्न करने वाले साधक को, जीवन के प्रत्येक पक्ष में अनुकूलता मिलने की क्रिया स्वयंमेव प्रारम्भ हो जाती है, और साथ ही यह प्रबल पौरूषता की साधना भी है।
योगिनी का स्वरूप ही प्रेम व शक्ति का समन्वित स्वरूप कहा जाता है। योगिनी प्रेमिका स्वरूप में ईश्वर द्वारा प्रदान की गई अवर्चनीय वरदान है। जिसका तात्पर्य ही है एक ऐसी सहयोगिनी जो रूग्ण जीवन में भी भावना का प्रवाह संचार कर प्रेम, हास्य, विनोद और रसमयता से परिपूर्ण कर दें। जिसके माधयम से तंत्र की विशेष क्रियाएं सम्पन्न् की जा सकें। शारीरिक सौन्दर्य और आकर्षण सम्मोहन शक्ति के साथ-साथ अपनत्व, मृदुता, शीतलता और साधक से शीघ्र ही घुल-मिल जाने के गुणों से युक्त होती है। वास्तव में साधक को ऐसा साहचर्य और मधुरता प्राप्त हो सके जिससे वह साधनाओं में तीव्रता से प्रगति की ओर गतिशील हो सके इसी हेतु वीणाख्या योगिनी चैतन्य दीक्षा प्राप्त कर साधना सम्पन्न् करने से जीवन में पौरूषता और निरन्तर आनन्द की प्राप्ति होती है।
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