देवासुर संग्राम में देवताओं की माता ‘अदिति’ भगवान से प्रार्थना करती हैं कि मेरे पुत्रों पर असुर बहुत अत्याचार कर रहे हैं। तब भगवान विष्णु वाराह रूप धारण कर पृथ्वी को अधर्म से मुक्त करते हैं, धर्म की पुनः स्थापना होती है लेकिन इतिहास में घटना क्रम चलता ही रहता है फिर भगवान को नृसिंह अवतार लेकर हिरण्याकश्यप का वध कर धर्म की स्थापना करनी पड़ती है, फिर इतिहास आगे बढ़ता है और सतयुग में प्रहलाद के पौत्र राजा बलि तीनों लोकों को जीत लेते हैं तब भगवान को वामन रूप धारण कर राजा बलि से दक्षिणा रूप में ढाई कदम भूमि मांग कर धर्म की स्थापना की।
कालचक्र और चलता है त्रेतायुग में भगवान राम का अवतरण होता है। भगवान राम भी वानर सेना सहित रावणी शक्तियों का अंत कर धर्म की स्थापना करते हैं। लेकिन इतिहास में धर्म व्यवस्था लम्बे समय तक कायम नहीं रह पाती। मनुष्य के भीतर काम क्रोध, विषय, वासना, अंहकार, तृष्णा, आसुरी शक्ति के रूप में प्रकट होते रहते हैं और धर्म की शक्तियां, सत्य की शक्तिया दब जाती हैं और द्वापर युग में भी यही हुआ। भारतवर्ष में हजारों राजा थे लेकिन सत्ता का केन्द्र तो इन्द्रप्रस्थ हस्तिनापुर ही था। कौरव और पांडव आपस में भाई ही थे लेकिन युद्ध हुआ। जिस प्रकार पूर्ववर्ती युद्धों में भगवान ने अपनी भूमिका निभाई उसी प्रकार द्वापर युग के इस युद्ध में भी भगवान श्री कृष्ण ने अपनी भूमिका निभाई। हर युग में भगवान चाहते तो अपनी अनन्त शक्तियों का उपयोग करते हुए पृथ्वी को राक्षस विहीन कर सकते थे। लेकिन हर युग में भगवान ने अपने भक्तों और शिष्यों को प्रेरित किया उन्हें कर्म शक्ति का ज्ञान दिया। उन्हें धर्म की स्थापना के लिए युद्ध करने की प्रेरणा दी।
क्या कारण था कि कौरव जो कि अधर्मवत् थे, उनके साथ भी 18 अक्षौहिणी अर्थात् 18 लाख सेना, आधे से अधिक भारत वर्ष के राजा उनके साथ थे। जबकि उन्हें मालूम था कि हमारे सामने धर्म के प्रतीक रूप, धर्म के स्तम्भ रूप कृष्ण है, धर्मनिष्ठ युधिष्ठर हैं। वे व्यक्ति हैं जो अपने जीवन में धर्मपथ से कभी हटे नहीं और यह भी बड़े आश्चर्य की बात है कि जब भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध के प्रारम्भ में पांच जन्य शंखनाद कर दोनों सेनाओं के मध्य अर्जुन का रथ खड़ा कर गीता का उपदेश दिया तो दोनो पक्षों की सेनायें सुन रहीं थीं। केवल अर्जुन ही नहीं सुन रहा था प्रतापी धर्मनिष्ठ भीष्म भी सुन रहे थे, गुरू द्रोणाचार्य भी सुन रहे थे, राजगुरू कृपाचार्य व महान् प्रतापी राजा भी सुन रहे थे। पूरी गीता सुनने के बाद भी वे कौरवों के पक्ष में ही लड़े। क्या द्रोण, कृपाचार्य, भीष्म बुद्धिमान नहीं थे?
प्रत्येक व्यक्ति पर संगति का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है। जैसे लोगों के साथ रहता है वैसा प्रभाव उसकी मानसिक स्थिति पर भी पड़ता है। धृतराष्ट्र और पाण्डु के पिताओं का जबरदस्ती तीन राजकन्याओं से विवाह कराया गया और तीसरी ने तो आत्महत्या कर ली। उन का जो श्राप भीष्म पितामह को मिला उसके परिणाम स्वरूप अधर्म का साथ देकर अपने ही सन्तानों के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए। गुरू द्रोणाचार्य जो महान् विद्वान थे उन्होंने अधर्म का साथ दिया। वे भी द्रौपदी के चीर हरण के समय गर्दन झुकाये बैठे रहें। धृतराष्ट्र जैसा बुद्धिमान व्यक्ति भी अपने पुत्रों और भाई के पुत्रों के बीच जो न्याय करना था वह न्याय नहीं कर सका। इसी कारण कुरूक्षेत्र की भूमि रक्त रंजित हुई।
विशेष बात यह है कि भगवान श्रीकृष्ण, योगेश्वर श्रीकृष्ण, जगद्गुरू श्रीकृष्ण यह सब क्रिया देख रहे थे और संचालित कर रहे थे। क्या कारण था कि उनके महान् उपदेश जिसे श्रीमद्भगवत गीता कहा जाता है, उसे केवल पांडवों ने ही ग्रहण किया, कौरवों ने ग्रहण नहीं किया। क्योंकि पांडवों ने श्रीकृष्ण को अपना मार्गदर्शक गुरू माना था और उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा और समर्पण किया था, उन्होंने यह नहीं देखा कि उनके सामने कौन है, उन्होंने यह देखा कि हमारे साथ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं। जगद्गुरू कृष्ण ने महाभारत का युद्ध रोकने की कई कोशिशे की लेकिन जब उन्होंने देख लिया कि केवल और केवल युद्ध से ही धर्म की विजय पुनः हो सकती है तो उन्होंने युद्ध प्रारम्भ करने की आज्ञा दी। ना राम चाहते थे, ना कृष्ण चाहते थे कि युद्ध हो लेकिन जब नास्तिकता, अधर्म बढ़ जाता है तो जो अन्तिम स्थिति बचती है, वह कहलाती है ‘युद्ध’।
सद्गुरूदेव ने 1 जनवरी 1998 को जो महान् प्रवचन दिया उस प्रवचन का आधार था ‘युद्धम् देहि’ अर्थात् मुझे युद्ध चाहिये, मैं युद्ध करना चाहता हूं और शिष्यों को आवाहन किया कि जीवन संग्राम में विसंगतियों बाधाओं से लड़ने के लिये युद्ध परम आवश्यक है। यह युद्ध मानसिक भी हों सकता है, अपने मानस को कितना अधिक दृढ़ बनाकर हम अधर्म, अमर्यादा को समाप्त कर सकते हैं यह महान् युद्ध है। भीतर सारी शक्तियां आपस में लड़ती रहती है। कभी एक शक्ति हावी होती है तो कभी दूसरी शक्ति। इन विचारों के संघर्ष में साधना की अग्नि द्वारा, योग विद्या द्वारा, तप द्वारा जीवन को निराशा अधर्म की ओर ले जाने वाली प्रवृत्तियों को समाप्त किया जा सकता है।
गुरू को चाहिये निष्ठावान, श्रद्धावान, समर्पण और विश्वास से युक्त निडर शिष्य जो पृथ्वी पर पुनः धर्म की स्थापना के लिये आतुर हों। अपने लिये ही नहीं अपितु पूरे समाज के चिन्तन को बदलने के लिये जीओं। सभी महान् गुरूओं की शक्तियों का आवाहन करने के लिये गुरू पूर्णिमा पर्व सम्पन्न किया जाता है। गुरू पूर्णिमा पर्व को एक तिथि मानने की कभी भूल मत कर देना। संकल्प है, साहस है, जीवन के संग्राम में अधर्म के प्रति लड़ने की क्षमता है तो निखिल के शिष्य बनकर धर्मक्षेत्र, कुरूक्षेत्र की भूमि में नव आवाहन, नव संकल्प लेने के लिये उपस्थित होना ही है।
अर्जुन ने पूछा कि मेरी इन्द्रियों का शोक दूर होगा?
सर्वधर्मान परितत्यज्य मामेकं शरणं व्रज अहं
त्वां सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यमि मा शुचः
अर्थात् लौकिक गुरू जीवन में सफ़लता की पहली सीढ़ी है और आध्यात्मिक गुरू सार्थकता की अंतिम लौकिक गुरू सत, असत, अंधकार, प्रकाश, मृत्यु-अमृत्यु आदि का शाब्दिक अर्थ बताता है, और आध्यात्मिक गुरू तत्सम्बन्धी, अन्तरद्वन्द्वी और मानसिक सत् की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमृतत्व की दशा में केवल शिष्य की यात्रा प्रारम्भ कराता ही नही है वरन् उसे जीवन में परम पूर्ण स्थिति या परात्पर ब्रह्म की चेतना तक पहुंचाने में पूर्ण योगदान भी करता है। गुरू पूर्णिमा का यह पर्व ऐसे ही गुरू की जाग्रत आध्यात्मिक शक्तियों के मिलन का महापर्व होता है।
गुरू पूर्णिमा पर्व पर सद्गुरू से निरन्तर सम्पर्क, साधना और सत्संग से शरीर, मन और आत्मा परिशुद्ध होती है। बिना गुरू के निर्देशन और कृपा भाव के आत्म विकास के मार्ग में प्रगति करना संभव नहीं हो पाता।
सद्गुरू परम तत्व को बोध कराने से पहले शिष्य की तरह-तरह से परीक्षा लेते हें। वे उसकी रूचि, संस्कार, शक्ति, सामर्थ्य आदि के अनुसार ही मार्गदर्शन करते हैं और धीरे-धीरे ही उसे साधना की ऊँचाईयों तक ले जाते हैं। इस उर्ध्वगमन में भी शिष्य की सुरूचि, सुगंध, सरसता और अनुराग भी निरन्तर बढ़ता जाता है। अतः उसके यात्रा क्षय का परिहार होता रहता है और साधना की महत्त ऊंचाईयों से फिसलने का भय भी नहीं रह जाता।
गुरू पूर्णिमा ज्योतिष विज्ञान की दृष्टि से एक महान् पर्व है। इस दिन गुरू तत्व की आत्मीय चेतना तीव्र ऊर्जास्वित रूप में होती हैं। जिनके संस्पर्श से ही शिष्य के जीवन की अज्ञात जटिलताये स्वयंमेव सुलझ जाती हैं। इस दिन गुरू शिष्य के आन्तरिक, पवित्र और चैतन्य सम्बन्धों की जमी हुई धूल साफ हो जाती है और साधक को पुनः नवीन प्रेरणा, स्फूर्ति, प्राण शक्ति, निर्देश और चेतना मिलती है।
गुरू शिष्य के मध्य चेतनामय सूक्ष्म अदृश्य तार सदा जुड़े रहते हैं जिसके कारण दूरस्थ अंचलों में बैठा हुआ शिष्य भी अपने गुरू से आदेश प्राप्त करता रहता है और अपने समाचार उन्हें देता रहता है।
शिष्य का साधना के क्षेत्र में डगमगाना, भटक जाना, थक जाना या अपने लक्ष्यों को विस्मृत कर जाना। तब गुरू अपनी दिव्य शक्ति के अदृश्य संचार से शिष्य की जड़ता, दुर्बलता को समाप्त कर एक नई ऊर्जा प्रदान करते हैं। जिससे शिष्य का जीवन क्रमबद्ध तरीके से गतिशील हो सके।
गुरू को पर ब्रह्म कहा गया है उसी विराट सद्गुरू तत्व की तीन शक्तियां ब्रह्मा, विष्णु, महेश है जो कि सांसारिक व्यक्ति के जीवन में सदैव श्रेष्ठता प्राप्ति के लिए साधक को ऊर्जा और चेतना प्रदान करती है जिससे कि उसका गृहस्थ जीवन हर दृष्टि से श्रेष्ठमय बन सके।
ऐसा ही यह शिष्यत्व पूर्णिमा का महापर्व दिव्यमय योगी स्वरूप साधकों और सद्गुरू के सानिध्य में सम्पन्न होगा जिससे कि साधक हर दृष्टि से पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते चेतना से युक्त हो सके। इससे सांसारिक जीवन में किसी भी तरह की न्यूनता नहीं रहे और साधक निरन्तर श्रेष्ठता और उच्चता को प्राप्त कर सके। अतः हर साधक का भाव रहता है कि ऐसे शिवोहम गुरू पूर्णिमा महोत्सव में अपने आत्मीय सद्गुरू से एकाकार हो सके।
इसी हेतु गुरू पूर्णिमा पर्व पर 29, 30, 31 जुलाई इन्डोर स्टेडियम, बूढ़ा तालाब रायपुर में ‘शिवोहम् धनदा लक्ष्मी दीक्षा’ और ‘अक्षय राज राजेश्वरी चेतना दीक्षा’ प्रदान की जायेगी। साथ ही जीवन के पापों को आहूत करने हेतु प्रत्येक साधकों द्वारा हवन की क्रिया और अपने जीवन को शिव लक्ष्मी मय स्थिति से युक्त करने हेतु स्वरूद्राभिषेक पूर्ण वेद मंत्रों के माध्यम से सम्पन्न कराया जायेगा।
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