ऐसा कह कर मैं किसी की गीता की न्यूनता नहीं बता रहा हूं। मगर मैं यह बता रहा हूं कि कृष्ण की गीता से भी ज्यादा उच्चकोटि का ज्ञान, उच्चकोटि का विचार, उच्चकोटि का चिंतन इन गीताओं में है। हनुमान ने जो गीता लिखा वह ‘हनुमत् गीता’ के नाम से प्रसिद्ध है और हनुमान जैसा शिष्य, हमने उसका नाम बदल दिया, भक्त। मगर पहले तो शब्द एक ही था, गुरू और शिष्य। भगवान और भक्त जैसे शब्द तो थे ही नहीं। ऋग्वेद में यजुर्वेद में भक्ति जैसा कोई शब्द आया ही नहीं, भगवान जैसा भी कोई शब्द नहीं आया। ब्रह्म का शब्द तो आया है, देवताओं का शब्द आया है। भगवान शब्द का उच्चारण और भक्ति का उच्चारण ये, भक्ति काल में ही पैदा हुआ और ये भक्त केवल आज से चार सौ साल पहले की ही स्थितियां हैं। जहां बाबर का समय, अकबर का समय या शाहजहां का समय था। तब ये शब्द भक्त पैदा हुए हैं। चाहे कबीर हो, चाहे सूर हो, जितने भी सब लोग हैं, सब एक ही युग में हुए। केवल चार सौ साल के इतिहास में ये भक्ति पैदा हुए और उन्होंने एक नई पद्धति निकाली कि उनको नाम मात्र से भगवान की प्रप्ति हो पाई और वे एक काल्पनिक भगवान के नाम के सामने रहे कि भगवान आयेंगे और हमारे दुःख दूर कर देंगे। जब अकबर का अत्याचार बहुत बढ़ गया और औरंगजेब का भी तब अत्याचार बढ़ गया, तब तुलसी ने देखा कि हिन्दू जाति बहुत अधिक दुःखी है, पीडि़त है तो उन्होंने एक ग्रंथ लिखा ‘तुलसीकृत रामचरित् मानस’ उन्होंने राम की बड़ी स्तुति की, बड़ा वीर है, धनुष बाण, तीर लेकर, युद्ध प्रिय है, शत्रुओं का संहार करने वाला है।
जब-जब भी धर्म की हानि होगी और जब यह असुर बढ़ जायेंगे। तब-तब भगवान रूप को धारण करेंगे और असुरों का नाश करेंगे और इस प्रकार से उन्होंने एक नायक दिया, हिन्दुओं को। उस नायक की कल्पना के सहारे व्यक्ति अपने धर्म की रक्षा कर सके। मगर ऐसा कह कर के भी, मैं यह नहीं कहता हूं कि भक्त होना गलत है। हजारों-लाखों भक्त आदमी हैं। मंदिर में जाते हैं, हाथ जोड़ते हैं और अपनी मनोकामनाये मांगते हैं। मगर जहां तक पूर्णता की बात है वह भक्ति मार्ग से सम्भव नहीं। भक्ति केवल कीर्तन और मन को संतोष दे सकती है स्थायित्व पूर्णता के भाव नहीं दे सकती। क्योंकि वह अस्थाई भाव है। मंदिर में जाते हैं तब भाव पैदा होता है, मंदिर से बाहर निकलते हैं तो भाव समाप्त हो जाता है और यदि जो चौबीस घंटे भक्त बन कर रहते भी हैं वे भी अपने आप में उनकी श्रेष्ठ विधा होगी। मगर मेरी राय में वह अपने आप में गिड़-गिड़ाकर और घुटने टेक कर और एक काल्पनिक भगवान के सहारे जीवन यापन करने की कला में लिप्त है। अष्टावक्र ने अपनी गीता में इसी सिद्धान्त को दोहराया। यद्यपि उस समय कोई भक्ति जैसी चीज थी ही नहीं।
हनुमान के जीवन का एक प्रसंग है कि राम की सेवा में वो चौबीस घंटे तत्पर रहते थे। वे कोई भक्त नहीं थे अपने आप में उच्चकोटि के ज्ञानी थे और विद्धान थे। यह उनकी गीता से स्पष्ट होता है कि उनकी गीता में कितने उच्चकोटि के विचार और चिंतन हैं। कितना उच्चकोटि का ज्ञान उसमें लिखा हुआ है। एक बार उन्होंनें देखा कि भगवान राम चार-पांच दिनों से बहुत उदास हैं, चिन्तित हैं, तनाव में हैं, मुस्कुरा नहीं रहे। उन्होंने एक दो बार कारण भी पूछा कि ऐसा क्या कारण है कि आप इतना अधिक चिन्तित हैं, क्या कार्य है आप मुझे बताइये? मैं अकेला ही आपकी कृपा से समर्थ हूं कि मैं आपके तनाव को कम कर सकता हूं यदि मैं आपका सेवक हूं। भक्त शब्द जो आया है ये तुलसी ने लिखा, अपने रामचरित मानस में ही कि ‘मैं आपका भक्त हूं’ वाल्मीकि ने कभी भी अपने रामायण में हनुमान को भक्त, शब्द से सम्बोधित नहीं किया और वाल्मीकि राम के समय में ऋषि थे। जहां सीता वापिस रावण के यहां से आई थी तब वाल्मीकि आश्रम में रही। वाल्मीकि ने जो कुछ लिखा है सत्य लिखा है। क्योंकि आंखों से देखा हुआ लिखा है। उनके समय की घटना है। तुलसी ने उससे कई हजार वर्ष बाद लिखा है। और उस समय तक कम से कम दो सौ रामायण लिखी जा चुकी थीं। कुम्भ रामायण अलग है, तेलंग रामायण अलग है, वाल्मीकि रामायण अलग हैं। इस प्रकार से दौ सौ रामायण लिखी गई है। उनका सार और तथ्य लेकर के उन्होंने एक ग्रंथ लिखा जिसको रामचरित मानस कहा गया। इसलिये उन्होंने अपने ग्रंथ में हनुमान को भक्त कहा है।
मगर वाल्मीकि ने उनको सही अर्थों में शिष्य शब्द से सम्बोधित किया है और भगवान राम को गुरू के रूप में सम्बोधित किया गया है। जहां भी वाल्मीकि ने कहा है या तो उनको सम्राट के रूप में विभूषित किया है कि वह एक राजा है। उन्होंने दो-तीन बार लिखा है और इसीलिये अयोध्या के पास उनका आश्रम था राम ने उनका आश्रम उजाड़ दिया, वाल्मीकि का और वहां से 80 कि-मी- दूर उन्होंने अपने आश्रम का पुनर्निर्माण किया और राम राज्य जिसकी तुम कल्पना कर रहे हो, राम राज्य में भी ऐसे लड़ाई झगड़े थे। सामान्तशाही थी, कई पत्नियां रखते थे, दशरथ जैसे राजा भी रखते थे। उन पत्नियों के मोह में आकर बेटों को घर से भी निकाल दिया जाता था। मंथरा जैसी को मुंह लगाया करते थे, कुटिलता होती थी एक भाई को वनवास भेज कर, दूसरे भाई को राजगद्दी पर बैठाने के षड़यंत्र होते थे। ये सब आपके राम राज्य में भी होते थे। आज भी होता है।
उस हनुमान ने जब राम को पूछा कि आप चार दिन से मुस्कुरा नहीं रहे है। क्या करूं, क्या शिष्य हूं, मैं कैसा शिष्य हूं मैं? यदि मैं आपके जीवन के तनाव, दुःख को दूर नहीं कर सकता और जब-जब आपके लिये दुःख पड़ा है, तब-तब आपके मैं सर्वप्रथम सहायक हुआ हूं, मैं बड़प्पन नहीं कर रहा हूं। जब लक्ष्मण जी मूर्छित हुए तो मैं औषधि लेने गया सुमेरू पर्वत उठा लाया। जब राम को सीता की सुध नहीं हो रही थीं, तब मैं समुद्र लांघ करके सीता की चूड़ामणि लेकर के आप के पास आया। तब मुझे आपने कहा कि जब तक सीता की सुध नहीं आयेगी, तब तक मैं अपने प्राण नहीं रख पाऊंगा। तब मैंने आपको उनकी सुध लाकर दी कि वो वहां है और जब कार्य मैंने विश्वास भाव से किया। मेरा कोई स्वार्थ नही था। केवल यही था कि आप मेरे गुरू हैं, स्वामी है, आपने भी इतना ही प्रेम दिया है, स्नेह दिया है। जैसे एक स्वामी अपने सेवक को या गुरू अपने शिष्य को देता है अब आप चार दिन तक उदास क्यों हैं। जब राजगद्दी मिल गई है, तब राम कुछ बोले नहीं। उनको यह तनाव था कि समाज मेरी पत्नी को लेकर के क्यों अनेक प्रकार के लांछन लगा रहा है। यह रावण के यहां रही थी, क्या होना चाहिए? मैं क्या करूं? यदि कोई कहे तुम्हारी पत्नी गलत है और इसी के आधार पर वाल्मीकि के आश्रम में ले जाकर फेंक दें। ये पौरूषता नहीं थी। और वाल्मीकि ने सत्य कहा है-
तुम कायर हो, तुम नपुंसक हो, अपौरूष हो, तुम में पौरूष नहीं है। इसीलिये तुमने सीता को और तुम खुद भी जाकर मिल नहीं पाये और चुपचाप लक्ष्मण के द्वारा यह बहका कर के, मैं तुम्हें अयोध्या में घुमाने ले जा रहा हूं और सीता को आश्रम के आस-पास ले जाकर छोड़ दिया। मैंने तो उसे आश्रम में लाकर रख लिया। मेरी तो बेटी के तुल्य है। मगर तुम्हारे जीवन में यह कलंक धुल नहीं पायेगा। ऐसा कह कर भी मैं राम के लिये विनय भाव रखता हूं। क्योंकि अपने माता-पिता या अपने से बड़ों के प्रति एक विनय भाव ही अपने जीवन में शोभा देती है, मैं तो इतिहास की बात कर रहा हूं। यह मंथन चल रहा था राम के मानस में और इसीलिये तनाव में थे कि मैं क्या करूं? क्या नहीं करूं? और तनाव था कुछ चिंता थी और कोई घटना रही होगी उनके मानस में हनुमान ने चार-पांच बार पूछा। मगर उन्होंने कोई जवाब दिया नहीं और उसके मानस में यही था कि मैं अपने गुरू को तनाव रहित करूं।
राम को तनाव रहित रखूं, यह मेरा धर्म है यह मेरा कर्तव्य है।, यह मेरे जीवन का चिंतन है। तभी उन्होंने देखा कि राम सीता को देख करके किंचित मुस्कुराये उनके ललाट पर सिन्दूर रेखा थी, सौभाग्य की रेखा थी। आज तुम्हारे सिन्दूर की रेखा, सौभाग्य की रेखा थी, बड़ी सुन्दर चमक रही है। सीता ने कहा कि आप हैं यह तो मेरे सौभाग्य का प्रतीक है और इस वार्तालाप में शायद एक सैकण्ड रहा होगा, राम मुस्कुराये होंगे और सीता की तरफ देखा होगा। हनुमान ने सोचा कि आज पहली बार पांच दिन बाद एक छोटी सी मुस्कुराहट आई है राम के होठों पर। मगर राम तो बडे़ हंसमुख थे, हास्य-प्रिय थे, विनोद प्रिय थे और यदि ये मुर्झा गये तो मेरा जीवन अपने आप में व्यर्थ हो जायेगा। क्योंकि मैनें उन वानर सेनाओं को छोड़ दिया, सुग्रीव को छोड़ दिया, अपना घर छोड़ दिया, पुत्र छोड़ दिया। उनके पुत्र का नाम मकरध्वज था।
हनुमान जी ने सोचा कि आज राम क्षणिक मुस्कुराये, दूसरे दिन हनुमान जी ने अपने पूरे शरीर पर सिन्दूर मल लिया। क्योंकि हनुमान ने सोच लिया कि सिन्दूर को देख कर राम ज्यादा खुश होते है। क्योंकि मांग में थोड़ा सा सिन्दूर देखा और एक क्षण के लिये मुस्कुराये तो क्यों नहीं मैं अपने पूरे शरीर को ही सिन्दूर में पोत दूं और सिन्दूर से शरीर को पोत कर राम के आगे आकर खड़े हो गये और राम जोर-जोर से खिल-खिलाकर हंस पडे, कहा कि तूने आज यह क्या किया? उसने कहा कि महाराज आप जिस चीज से खुश होते हैं। उसी चीज को मैं करूं, जिस ढंग से भी आप खुश हों, सिन्दूर पोतना मेरे लिये कोई बड़ी बात नहीं। आप सिन्दूर देख कर खुश हुए इसीलिये मैं अब पूरे शरीर पर सिन्दूर लगाकर ही आपके सामने खड़ा रहूंगा। उस दिन के बाद से हनुमान ने सिन्दूर लगाना शुरू किया। उसके पहले हनुमान जी ने सिन्दूर लगाना नहीं शुरू किया था। आज हम आप सिन्दूर लगाते हैं, मगर वह उनकी क्रिया थी। उनके मानस में सिर्फ यहीं था कि जो मेरा स्वामी है, गुरू है वह प्रसन्न हो। चाहे उसके लिये मुझे कुछ भी, कैसा भी रूप बनाना पड़े कैसा भी कार्य करना पड़े। इन सारे प्रसंगों को ले करके, करीब-करीब इस प्रकार की भावनाओं को लेकर के मकरध्वज ने गीता लिखी और गीता में यह श्लोक लिखा-
अष्टावक्र ने कहा कि जनक तुम योद्धा राजा हो, मगर गये बीते राजा हो। इतने दम-खम के साथ बोलना, वह बोल सकता था जिसके हृदय में आत्मज्ञान होता था, ताकत होती थी। इसलिए गये बीते हो तुम कि तुममें वह चेतना नहीं आ पाई, उस उच्चकोटि का ज्ञान नहीं आ पाया और इसलिए तुम्हारे जीवन में वितृष्णा से तुम अपने आप में कुंठित हो गये और वह कुंठा तुम्हारे, कभी-कभी तुम्हारे अंदर हिलोरे पैदा होती है। तो तुम्हारे मन में प्रसन्नता होती है कि मैंने इसको पीड़ा दी। वह पीड़ा तुम्हारी खुद की है। तुम्हारे जीवन में कमी थी, एक न्यूनता थी और उस न्यूनता को दूर करने के लिये दूसरा सहारा लिया गया। उसने कहा इसीलिये जनक तुम महान नहीं कहला सकते। इसलिये तुम महान नहीं कहला सकते कि तुम राजा हो। तुम तब महान कहलाओंगे जब तुम सही अर्थो में शिष्य बन सकोगे।
तुम सही अर्थो में इस बात को समझ सकोगे कि मेरे जीवन का उद्देश्य शिष्य बनना है, महान बनना है, उच्चकोटि का बनना है। तुम्हें अपनी पूरी आत्मा को, पूरे चित्त को, पूरे मन को अपने आप में चैंज करना पड़ेगा। धोती पहनने से, कुर्ता पहनने से चेंज नहीं हो सकता, अन्दर से जब तक तुम चेंज नही होंगें और तुम अन्दर से इसलिये चेंज नहीं हो रहे हो क्योंकि तुम्हारे अन्दर एक गर्व है, तुम्हारे अन्दर कुंठा है। ये दोनों तथ्य तुम्हें अपने आप में नीचे गिरा रहे हैं।
तुम चाहे उन ऋषियों का सत्संग कर लो। यदि तुम्हारे पास बीस हजार शिष्य बैठे हैं, ऋषि बैठे हैं, गुरू बैठे है उनका सत्संग कर लो। इस सत्संग से तुम्हें कुछ नहीं हो सकता, इनके प्रवचन से तुम्हें कुछ नही हो सकता। जब तक तुम अपनी आत्मा में झांककर के इन दोनों तथ्यों को निकाल नहीं देते और इनको निकालने के लिये तुम्हें अपने मन में वापिस चिंतन करना पड़ेगा, विचार करना पड़ेगा कि क्या मुझे ऐसा ही रहना है या कुछ ऐसा बनना है, कुछ बनना है जो तुम्हारे जीवन का श्रेष्ठ हो, अद्वितीय हो तो फिर तुम्हें अपने आपमें पूर्ण रूप से जीवन का एक श्रेष्ठ हो, इन दोनों तथ्यों को कुंठा और तनाव का और तुम्हारे जीवन की जो न्यूनताएं है, पूर्ण रूप निकालना होगा। आपने देखा होगा कि कई बहुयें होती हैं, जब घर में उनको आदर-सम्मान नहीं मिलता है। सास का, ससुर का, या पति का तो कई हरकतें करने लग जाती हैं। एकदम से बैठे-बैठे चीखने-चिल्लाने लग जाती हैं, चिल्लाते हुए खड़ी हो जाती है। बेचारे बैठे हुए सास-ससुर दौड़ कर आकर पूछने लगते हैं, क्या हुआ बहु को, क्या हुआ? पति दौड़ कर आता है। कहता है। भई! पानी पिलाओ, पानी पिलाओ और उसको बहुत संतोष मिलता है। कि चलो आखिरकार सबका ध्यान तो मेरी ओर आकर्षित हुआ और सब पूछने लगते हैं क्या हुआ? वो कहती है नहीं-नहीं मैं ठीक हूं। वह कोई सचमुच में बेहोश नहीं हो रहीं थी। वह तो केवल उसके मन की कुंठा थी। जो उसको निकालने लिये इस कुंठा को उसके रूप में परिवर्तित किया। इस राजस्थान में ऐसा बहुत होता है। 80 प्रतिशत बहुएं ऐसा ही इसीलिये कि दूसरों का ध्यान आकर्षित हो। अपने आप की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये या तो वे सहारा लिया जायें या तो फिर आपने चित्त को ही निर्मल कर लिया जाये और जब चित्त निर्मल होगा, अपने आप उसके ऊपर दूसरों का ध्यान आकर्षित होगा ही। जब दूसरों का ध्यान आकर्षित होगा तो अपने आप व्यक्ति उंचाई पर उठेगा, आलोचना करने पर नहीं उठ सकता। बुराई करने से नहीं उठ सकता क्योंकि कोई व्यक्ति बुराई से परे नहीं है, कोई व्यक्ति महान तथ्य से भी परे नहीं है मुझमें भी कोई दो-चार कमियां हो सकती हैं, राम में भी हो सकती हैं, कृष्ण में भी हो सकती हैं। देखना यह है कि बैलेंस क्या है? 50-50 का बैलेंस है या 80-20 का बैलेंस है। 80 प्रतिशत धूर्तता है, चालाकी और बीस प्रतिशत बिल्कुल मन साफ है, वह बदमाश है।
यदि उसमें 60 प्रतिशत चोरी की प्रवृत्ति है, पुष्प चुराकर के जेब में रख दिया, मिठाई चुराकर खा ली या कोई और चीज बाहर जा कर या नमकीन खा लिया तो हम चोर हैं। उसके लिये कोई ठप्पा नहीं लगा हुआ कि तुम चोर हो। उसका मन अपने आप में यह कहेगा कि चोर है। यदि आप आत्मा के कश में डूबे हुए हैं, गुरू के ध्यान में हनुमान की तरह डूबे हुए हैं तो आप अपने आप में परम शिष्य हैं।
इसके लिये कोई तराजू नहीं है, कोई मापदंड नहीं है। आप कितने समर्पित हैं, अपने मन से, शरीर से समर्पित होते ही गुरू तो समझ जायेगा कि यह शरीर से समर्पित हो रहा हैं। जो गुरू कह रहा है, हाथ जोड़ रहा है, प्रणाम कर रहा है। उस प्रणाम से गुरू खुश हो सकते हैं जो गुरू नहीं हैं। मगर जो सही अर्थों में गुरू हैं, वह देखेगा, वह मन में चिंतन करेगा कि ठीक है, यह अपने आप में नाटक कर रहा है, मुझे भी नाटक करना है कि आशीर्वाद और तुम ठीक रहो। मगर वह जुड़ने की क्रिया नहीं हो पायेगी। यह कह रहा है अष्टाव्रक कि ‘जनक तुम गुरू से जुड़ नहीं सकते’ क्योंकि तुम्हारे जीवन में गुरू है ही नही। तुम्हारे जीवन में तनख्वाह लेने वाले साधु-सन्यासी ऋषि हैं। जो तनख्वाह लेकर जीवन यापन करते हैं वह ब्राह्मण हैं और जो तनख्वाह लेकर काम करते हैं वह नौकर कहलाता है। वो शिष्य नही कहला सकता, वह कैसे शिष्य कहलायेगा, एक नौकर को तुम उनको पैसा दे दो, तनख्वाह दे दो, रोटियां दे दो वे तुम्हारा गुण-गान करेंगे। तुम्हारी बुराई कैसे करेंगे, जो तुम्हारी बुराई करेंगे तुम उसको हटा दोगे और दूसरे लोग, तुम्हारी बुराई करने से घबरायेंगे। गुरू धारण करो और जो अपने आप में तुम्हारी कुंठा है। जो अहम् है, उस कुंठा को और अहम् को तुम समाप्त कर दो और जिस दिन तुम ऐसा कर सकोंगे, उस दिन तुम सही अर्थों में शिष्य बन सकोंगे।
क्योंकि गुरू और शिष्य में केवल दो विकार होते हैं तीसरा तो कोई विकार होता ही नहीं। वह विकार चाहे उनके परिवार से आया है, उनके समाज से आया है, चाहे घर से आया है, चाहे बाहर से आया है। वह विकार आया और विकार से वह आदमी अधम् बना रहेगा। दो सौ साल भी, पांच सौ साल भी, पांच हजार साल भी जब तक यह नहीं पिघलेगा और यह यूं पिघलता भी नहीं। एक क्षण के लिये पिघलता है, दूसरे क्षण में वापिस वैसे के वैसे हो जाता है। जब तक वह पूर्ण रूप से स्थाई भाव से नहीं पिघलेगा, अपने आप में पूर्ण से आप समर्पित नहीं हो सकते। यदि मैं अपने आप में समर्पित शिष्य नहीं बन सकता तो फिर मुझे शिष्य कहलाने का हक ही नहीं है। फिर मैं शिष्य नहीं बन सकता। इसलिये अष्टावक्र कह रहे हैं कि जीवन का हेतु ऊंचा उठना है ऊंचे उठ रहा हूं कि नीचे गिर रहा हूं? और अगर जहां हैं वहीं खड़े हैं तो आप एक सामान्य पुरूष हैं। जैसे सड़क पर चलते हुऐ लोग, जैसे एक परिवार पड़ोस के लोग। यदि आप नीचे गिर रहे हैं तो आप अधम् है और इन की कोई गिनती नहीं होती यदि आप में नीचे से उठने की क्रिया है, निरन्तर अपने आप में पिघलने की क्रिया है। यह देखने की क्रिया है कि कल से आप कितना मधुरता के साथ ओत-प्रोत है। कि मैं कितने तहे दिल से अपने गुरू भाईयों के साथ, गुरू जी के साथ जुड़ा हुआ हूं। इस प्रकार से जुड़ा हुआ हूं।
कितना मेरे अन्दर छल रहा है, कितना मेरे अन्दर कपट रहा है, कितना झूठ बोलना, मैं अभी भी झूठ बोल सकता हूं, तुम्हारे सामने मैं कर सकता हूं ऐसा और तुम्हें पता भी नहीं चले कि मैंने बटन दबाया कि नहीं दबाया। मगर मैं सोचता हूं कि मैंने छल किया। मैं कह सकता हूं कि आखिरकार मैं यह नहीं कर सकता, ज्यादा देर तक मैं प्रवचन नहीं कर सकता, यह मेरा सत्य है और यह असत्य मुझे नीचे की ओर ही अग्रसर करेगा। यदि असत्य बोलूंगा तो वो कभी मुझे सत्चरित्र नहीं बना सकता। कभी मैं सीना तान के खड़ा नहीं हो सकता और ना ही मेरे चेहरे पर मुस्कान आ सकती है। कभी मैं हास्य नहीं कर सकता। कभी जीवन में बड़प्पन नहीं आ सकता मुझे गर्व नहीं हो सकता। अपने आपको समझना, जनक ये तुम्हारा धर्म है, तुम्हारा कर्तव्य है। तुम समझ सकते हो कि तुम कहां पर हो।
तुम समझ सकते हो कि बड़प्पन से कहां पर हो, किस प्रकार का बड़प्पन है? क्या है तुम्हारे पास? ये राजपाट तो रावण के पास तुमसे ज्यादा ऊंचा था और तुम अपने ही राजपाट की प्रशंसा कर रहे हो। तुम्हारे पास कुछ रानियां हैं, कृष्ण के पास तो सोलह हजार रानियां थी और तुम सब पर गर्व कर रहे हों। तुम से ज्यादा हीरो मोतियों से रावण ने सोने की लंका बना दी थी ईंट, पत्थर तक सोने के बना दिये थे, मकान के मकान सोने के बना दिए, पूरी लंका सोने की बना दी, एक घर को नहीं। तुम किस जगह खड़े हो, है क्या तुम्हारे पास? और ये जो तुम्हारा शरीर है वह उन दोनों तत्वों से भरा हुआ है तुम मुझ से भी अधम् हो तुम अधम् से भी अधम् हो उस सिंहासन पर बैठने के तुम अधिकारी नहीं हो, गये बीते हो, और एक बहुत बड़ा झटका लगा जनक को उसने पहली बार देखा कि एक तेजस्वी आखें जो दो टूक शब्दों में मुझे कह रहीं है, जो बीस हजार पंडित मैंने बैठा रखे हैं उन्होंने कहने की हिम्मत नहीं की, उसने कहा कि मैं तुम्हारे टुकड़ों पर नहीं पल रहा हूं, मैं तुम्हारा इस तरह से गुरू भी नहीं बनना चाह रहा हूं। मैं तो सभा में सिर्फ इसलिये आया हूं कि तुम बहुत गये बीते आदमी हो ये बताने के लिये आया हूं, कि तुम चमार हो, तुम मेरी चमड़ी को देख कर अपने आप में हंस रहे थे, मुस्कुरा रहे थे क्योंकि मैं आठ जगह से टेढ़ा हूं। यह मेरी चमड़ी टेढी़ है मैं टेढा नहीं हूं, मेरा ज्ञान टेढ़ा नहीं है। तुम्हें मेरे ज्ञान से गुरूत्व प्राप्त करना है और जब तक तुम्हारे मानस में यह अहम्, यह छल और यह कुंठा यह तीन तत्व ऐसे हैं, शिष्य को नीचे गिरा सकते है। वह अपने आप को बहुत ऊंचा समझता है। वह समझता है कि मैं होशियार हूं, दूर से इसे पता नहीं चलता। तुम पांच रूपये चुराओं अगर नहीं मालूम पड़ेगा दूसरों को मगर यह तुम नहीं समझ रहे हो कि मैं कितना नीचे गिर गया हूं। तुम नहीं समझ पा रहे हो, इस समय नहीं समझ पा रहे हो। उतने ही तुम गये बीते रहे जितना एक नाली का कीड़ा रहा, ऐसी दुर्गंध में रहे जिस दुर्गंध में लोग रहते हैं और जो लोग दुर्गंध में रहना सीख जाते हैं, जो चोरी, छल, झूठ और कुंठाओ में रहना सीख जाते हैं, उन्हें उसमें आने के लिय बहुत जोर लगाना पड़ता है। अपने आप के मन को मंथन करना पड़ता है, तोड़ना पड़ता है अपने आप को और वह तब टूटेगा वह अहम् अन्दर का छल, वह कुंठा टूटेगा तब वापस उसे जोड़ पाओगे। वह टूटेगी इसलिये नहीं, क्योंकि वह कई जन्मो से तुम्हारे साथ जुडी हुई है।
बम्बई में एक सेठ थे उनको कोई मछुवारन पसन्द आ गई। वह घूमने निकले थे, वह मछुवारन बहुत सुन्दर थी और मछलियां बेच रही थी और आप वहां मछलियों के बाजार से निकलेंगे तो नाक पर एक रूमाल रख कर निकलेंगे क्योंकि मरी हुई मछलियों की दुर्गंध आती हैं। आप सीधे तरीके से उस गली के पार नहीं निकल सकते। वह मछुवारन मछलियों को पकड़ती हैं, टोकरी में डालती है और बेच कर आ जाती है होटलों में जाकर के। सेठ जी ने उसको दो हजार में खरीद लिया और घर ले आये। घर लाकर उसको स्नान करवाया और महलों में उसे रख दिया। उसकी एक बहन थी साल भर बाद उसकी बहन को याद आया कि उसकी एक बहन थी। वह मछुवारन सेठ जी के घर में है। जूहू पर आज उसे मिल कर आ जाऊं। एक साल से गई नही थी। वह भी मछुवारन थी, उसने अपनी टोकरी मछलियों से भरी हुई होटल में बेची अब खाली टोकरी लेकर चल दी।
अब उस खाली टोकरी को कहां फेके बहन आई और बहुत आराम से मिली, शाम को समय था छः सात बजे थे। उसकी बहन ने कहा अब शाम को तुम कहां घाटकोपर जाओगी, रात को यहीं सो जाओ सुबह चली जाना और खाना आज साथ में ही खा लेते है। एक साल भर बाद तो तुम मिली हो। कुछ समय बातें भी करेंगे फिर सो जायेंगे। बाहर छोटा सा एक बगीचे में सेठ और सेठानी पलंग लगाते थे और सो जाते थे। बाहर की शुद्ध हवा में वहीं तीन पलंग लगा दिये। एक खुद के लिये, एक पति के लिये। एक बहन के लिये। पास में पंखे लगा दिये, सो गये। दस बजे सोये, साढ़े दस-ग्यारह बजे नींद आ गई। मगर उस मछुवारन को बहुत तड़प हुई, बहुत बैचेनी हुई, इधर से उधर। इस करवट से इधर डोले उधर डोले नींद आवे नहीं। बारह बज गये, साढ़े बारह बज गये, एक भी बज गया, नींद आवे ही नहीं पास में सुन्दर से गुलाब के फूल खिले हुए थे। उस गुलाब से दुंर्गंध आ रही थी ये क्यों लगा रखे हैं घर में पौधे। भगवान जाने इन पौधों में इनको क्या मजा आता है। नींद ही नहीं आ रही है, इन फूलों पौधों की दुंर्गंध में। उसे अपनी टोकरी की याद आई। टोकरी को ला कर सिर पर ओढ़ी और टोकरी को औढ़ते ही फट से नींद आ गई।
एक सेकण्ड में नीद आ गई और नींद आते ही खर्राटे भरने लगी। सुबह उठे तो देखा कि यह टोकरी ओढ़े हुए सोई है, आराम से मस्ती के साथ। उसने कहा कि तुम ये टोकरी ओढ़ कर क्यों सो रही हो? उसने कहा तूने दुंर्गंध भरे पेड़, पौधें लगा दिये इस दुंर्गंध में मुझे नींद कहां आती है ये सब काहे के लिये लगा रखे हैं तूने? तुम अपनी जगह सही हो तुम्हारे अन्दर यह दुंर्गंध आने लगती है तुम्हें, क्योंकि गुलाब के फूलों की सुगन्ध देखी ही नहीं है तुमने और जब यह कुंठा जब यह तुम्हारा यह तनाव, अहम् और तुम्हारा यह छल, छल को पकड़ने के लिये कोई तरकीब नहीं हैं, झूठ को पकड़ने के लिए कोई मशीन बनी नहीं है। तुम्हारे कुंठाओं को पकड़ने के लिये कोई मशीन बनी नहीं है। कुंठाओं का मतलब है, तुम्हारी जो कुछ न्यूनताएं रहती हैं, वह अपने आप में आदमी को डायवर्ट कर देती हैं, जिद्दी बना देती हैं, निर्लज्ज बना देती हैं।
अमेरिकन औरतें जो होती हैं उनके पुत्र नहीं होते है, बच्चे नहीं होते। वह बहुत झण्डे की तरह होती हैं, बोलती है तो सीना फाड़ कर बोलती है एकदम से अपने ऊपर के कपड़े हटा देती हैं। क्या कर लेगी दुनिया? ये ले कपड़े हटा दिये। वह आकर्षित करना चाहती हैं कि तुम लोग मेरा क्या कर लोगे। यह कुंठा है उनके मानस में ऐसी सैकड़ों स्त्रियां रहती हैं, पुरूष होते हैं।
अगर जनक तुम्हें ऊंचा उठना है तो इन तीनों तत्वों से तुम्हें हटना होगा। प्रेम में जुड़ना पडे़गा, एक दूसरे से समर्पित होना पड़ेगा और सबसे बड़ी बात यह सब छोड़कर के तुम्हें गुरू के चरणों में समर्पित होना पड़ेगा यदि तुम समर्पित हो सकते हो तब तुम अपनी जगह ठीक हो। मैं अपनी जगह ठीक हूं। मैं तुम्हारा गुरू बनने के लिये नहीं आया हूं, मैं तो तुम्हें दो टूक कहने आया हूं। यह क्षण है, इस समय में तुम समझ जाओगे। नहीं समझोगे तो तुम अपनी जगह, मैं अपनी जगह। मैं तुम्हारी रोटियां खाता नहीं हूं, मैं तुम्हारे भरोसे जिन्दा नहीं हूं। मुझे तुम्हारे राज्य की जरूरत नही हैं। तुम्हारा राज्य, जनक राजा अपने पास रखों, मैं किसी और राज्य में जाकर रह जाऊंगा और जनक उसी समय वहां से उठा और पहली बार उसके मन में कुंठा, छल और वह झूठ तीनों एक दम से पिघले और पिघलते ही पूरा चेहरा और दाढी़ आँसुओं से भीग गई और सेनापति व मंत्री और वह बीस हजार ब्राह्मण और भरी सभा के सामने वह साष्टांग चरणों में झुक करके हिचकियां लेने लगा। अष्टाव्रक ने उठाया और कहा कि आज पहली बार तुम्हें मैं मनुष्य देख रहा हूं। पहली बार देख रहा हूं कि एक तुम सही रास्ते पर दो-चार कदम चले।
अब इस पगडंडी को तुम पकड़े रखोगे तो निश्चित ही पीढियां तुम्हें याद रखेंगी और नहीं पकड़ पाओगे तो उसी तरह मिट जाओगे जैसे समय और काल, लोगों को मिटा देता है। तुम्हारे जीवन का प्रत्येक क्षण था, इस क्षण में अगर तुम नहीं पिघलते तो तुम पिघलते ही नहीं। अपने आप को नहीं बदलते तो नहीं बदल सकते। तुम्हारा अहम् रहता कि मैं राजा हूं सीना तान कर बैठा हूं, एक छोटे से आदमी के सामने मैं क्यों झुकूं। तो तुम बिल्कुल मिट जाते। क्योंकि तुम्हारा अहम् तुम्हें समाप्त कर देता। तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियां पड़ जातीं और अपने आप में बीमार, असत्य, असहाय, अपाहिज होकर के तुम मृत्यु को प्राप्त हो जाते जनक नहीं कहलाते, विदेह नहीं कहलाते, ऋषि जनक नहीं कहलाते, एक राजा जरूर कहलाते और ऐसे राजा तुम्हारे से पहले पचास हजार हो चुके हैं। यह कोई खास बात नहीं और तुम्हारे बाद पचास हजार हो जायेंगे। इतिहास उन्हें मधुरता के साथ नहीं याद करेगा और उसके बाद उसने कहा आज से मैं तुम्हें जनक नहीं कहता हूं विदेह कहता हूं और विदेह बनकर जीवित रहने की क्रिया के यह उसी चारों पक्तियों को मैं तुम्हारे सामने वापिस बता रहा हूं कि तुम्हारे मन में वह तीनों चीजे हैं मैं नहीं कह सकता कि कब मिटेगी, नहीं मिटे तो मुझे तो कोई अफसोस नहीं। झूठ, छल और दूसरों को मूर्ख बनाने की कला, असत्य बोलने की कला नहीं मिटी तो वह तुम्हारी पूंजी है तुम्हारे पास ही रहे मुझे उसमें कोई आपत्ति नहीं। मिट जाये तो यह मेरा सौभाग्य होगा कि मेरा परिश्रम कुछ सार्थक हो रहा है और मिटने के लिये तो यहीं क्षण चाहिए। फिर अगला क्षण नहीं आयेगा, मिट जायेगा तो इसी क्षण मिट जायेगा, नही मिटेगा तो हजारों साल भी नहीं मिटेगा। हो सकता है कि दो घंटे बाद वापिस तुम्हें व्याप्त हो जाये। कसम दीजिये कि तुम्हारे जैसा अधम् व्यक्ति कोई और नहीं है, यह मन में ही ठान लीजिये कि मेरा जैसा झूठ, मक्कार कोई और व्यक्ति नहीं है। ऊपर से मैं सफेद कुर्ता, पायजामा पहना हुआ हूं। अन्दर से मक्कार, छल भरा हुआ है, झूठ भरा हुआ है, मूर्ख बनाने की कला भरी हुई है और कोई किसी से मूर्ख नहीं बनता, कोई किसी के छल और झांसे में आता नहीं है।
जानबूझ कर आता है। वो अलग बात है, तुम जिस गुरू को ही झूठ बनाने की कोशिश करोगे तो आप खुद सोच लो कि तुम किस जगह खड़े हो, अपने आप में कितने अधमता के साथ खड़ें हो और वो फिर तुम्हारा प्रणाम करना, झुक करके प्रणाम करना और गुरू पूजा करना अपने आप में बेमानी हो जायेगा। कोई अर्थ नहीं रहेगा और यही अगर अन्दर से उन तीनों तत्वो को निकाल कर के पूर्णता के साथ एक-दूसरे की प्रसन्नता के साथ मिल सकोंगे, मुस्कुरा करके, बात कर सकोगे, समर्पित हो सकोगे, गुरू के प्रति। उस कार्य को सम्पन्न कर सकोगे जो एक उच्च कोटि का कार्य है और तुम्हारे जीवन की सार्थकता यहीं पर है। और यदि ऐसा नहीं है तो अपने आप में बहुत घटिया और बहुत निम्न हो और घटिया शब्द तुम्हें इसलिये नहीं लगा रहा हूं कि मुझे अच्छा लग रहा है। मगर मैं तुम्हें यह भी नहीं कह रहा हूं कि तुममें छल है, झूठ है, तुममें अहंकार है, मूर्ख बनाने की कला है, मुझको भी मूर्ख बनाने की कला तुम्हारे पास है और मैं जानबूझ कर मूर्ख बना रहता हूं। इसलिये नहीं कि मैं मूर्ख बनता हूं, इसलिये तुम्हारे अहम् की तुष्टि होती है।
तो होने दीजिये क्योंकि तुम पशु हो और तुम पशु बने रहो मुझे क्या आपत्ति। मेरा जीवन में ज्यादा कुछ नहीं। मैं तो शायद इस संसार में आज रहूंगा, बीस साल बाद नहीं रहूंगा। मगर तुम्हारे जीवन में यह क्षण वापिस नहीं आ पायेगा। सुबह उठे एक दूसरे से प्रेम से मिले, एक दूसरे के साथ हैलो-हैलो कहे या जय-गुरूदेव कहें, उनके साथ बैठे उनके साथ भोजन करें, उनके प्रति समर्पित हो अपने मन में विकारों को निकालें। उच्च कोटि के योगी तुम बन सकोगे जो जनक भी नहीं बन पाये, राम भी नहीं बन पाये उससे भी उच्च कोटि के बन सकते हैं। कोई ठेका नहीं है राम का, राम ही बनेंगे, जनक ही बनेंगे। यह तो कोई भी बन सकता है और इस बनने के लिये ही जीवन की सार्थकता है और जीवन में सार्थकता बनानी है तो, और यदि मछुवारा ही बना रहना है तब भी आप अच्छे हैं।
क्योंकि आप सौ रूपया तो कमा ही लेंगे मछलियां बेच के। तुम को तो गुलाब के पौधे अच्छे लगेंगे नहीं। आपको गुलाब के पौधे अच्छे नहीं लगे, नहीं लगे। मछलियां बेचते रहो, आपकी मर्जी। आप अहम् के साथ खड़े रहो तब भी आपकी इच्छा है और यदि आप यह सुबह गुरू के चरणों में झुकें तो यह आपका सौभाग्य है और यह मेरा भी सौभाग्य है और मेरा सौभाग्य बना रह सके। आप अपने जीवन में इसी क्षण बदल सकें और स्थाई भाव से बदल सकें तो बदलिये। फिर मैंने कहा झूठ और छल के साथ बदलिये। मक्कारी के साथ बदले और कार्य करने में शिथिलता बरतें तो शरीर तो घिसता नहीं और अब यदि मैं आठ घंटे काम करूं तो शरीर तो उतना ही रहेगा और बीस घंटे काम करूं तो भी उतना ही रहेगा और बीस घंटे से ज्यादा भी करूं तो शरीर उतना ही रहेगा और बीस घंटे नहीं करूं तो भी उतना ही रहेगा और मैं आपको तो काम के लिये कहता भी नहीं हूं और तुम्हारे बिना मेरा जीवन आज से बीस साल पहले भी चल रहा था, उस वक्त तुम थे नहीं। और उस समय मेरे जीवन में किताबें लिखी जा रहीं थी और उन किताबों से आज भी मेरी जीविका का उपार्जन चल रहा है। तुम्हारे भरोसे मैं जिन्दा नहीं हूं। मैं जिन्दा हूं अपने आत्मबल के द्वारा मैं किसी भी सड़क पर खड़े होकर के प्रवचन कर दूंगा तो दो हजार रूपये कमा लूंगा। अगर रूपये कमाना मेरे जीवन का इष्ट प्रबल लक्ष्य होगा तो। यह मेरे इष्ट का लक्ष्य प्रारम्भ में ही नहीं था, आज भी नहीं है और उसके बाद भी जीवन में आसक्ति नहीं थी और आज भी नहीं है। इसलिये नहीं कि मुझमें बहुत अहम् बनने की आसक्ति रही है। मुझे अपने जीवन के बारे में ज्ञान है, मैं जानता हूं मैं किस जगह खड़ा हूं मगर नहीं जान कर आदमी जितना सहज होता है। एक शीशा है, अगर आप उसमें अपना मुंह देखेंगे तो आपको बिलकुल सरल साफ दिखाई देगा, अब आप बिल्कुल शीशे को अपने नाक के सामने ला कर रख दें। तो आपका अपना चेहरा साफ नहीं दिखाई देगा। शीशा तो वही है एक फुट की दूरी पर रखा था तो आपको सब कुछ साफ-साफ दिखाई दे रहा था ज्योंहि शीशे को नजदीक लाये नाक के पास में आपका अपना चेहरा दिखाई देना बंद हो गया। क्यों हो गया। ज्योंहि आप गुरू के पास चले गये, गुरू के प्रति आपकी श्रद्धा ही कम हो गई।
क्योंकि गैप नहीं रहा, शीशे और आपके बीच गैप नहीं रहा। गैप नहीं रहा तो आप गुरू को पहचान नहीं पायें। गैप रहें, दूरी रहे चौबीस घंटे में आधे घंटे के लिये, अभी तक योगी संन्यासी, ऋषि ऐसे ही मिलते हैं, और साढे़ तेईस घण्टे अन्दर बैठे रहते हैं। आधे घण्टे आते हैं और फिर वापिस अन्दर साढ़े तेईस घण्टे अन्दर बैठे रहते हैं। फिर वापिस आधे घण्टे हो गया है। अभी गुरूजी आ रहे है अब जाकर दर्शन होंगे, भीड़ आती है गुरूदेव की जय हो और फिर आधे घण्टे मिलते हैं।
ये नागपाल बाबा एक बार आते हैं। महीने में और एक घण्टे के लिये मिलते हैं। ये नागपाल बाबा दिल्ली में मशहूर हैं और वो ही अगर चौबीस घण्टे मिलते तो शायद इतनी प्रसिद्धि नहीं पाते। मगर उसमें उसका खुद का तो हित है, मगर शिष्य का हित नहीं है उसमें शिष्य को वो कुछ नहीं दे पायेगा। शिष्य को उंचाई पर नहीं उठा पायेगा। इसलिये आप इस बात को ध्यान रखिये। अगर गुरूदेव मुझे तीन बार मिले, चार बार मिले। मुझे यह ध्यान रखना चाहिये कि उनके और मेरे बीच में तीन फुट की दूरी रहे तो रहनी चाहिये बीच में, मैं कई बार समझाता रहता हूं। जब कोई चार बार-छः बार आता रहता है। और बताना चाहता है कि आपके लिये कितना काम करने वाला आदमी हूं। आपका काम तो मुझे दिखाई दे रहा है इसलिये नहीं कि आप मिले नहीं। वह तो एहसास हो जायेगा, वह अपने आप में दिखाई देने लग जायेगा। आप अपने आप में सुंगधमय बने और जैसे आप हैं उससे ऊंचाई पर उठें। जब ऊंचाई पर उठें, ऊंचाई का मतलब है, मानसिक रूप से या एक दूसरे से प्रेम की भावनाएं हों, समर्पण की भावना हो। एक शिष्य का दूसरे से आत्मीय सम्बन्ध होगा, अगर मेरी जेब में डबल रोटी का टुकड़ा है तो मैं उसे बांट कर खाऊंगा।
उसका काम भी मैं छीन करके कर लूंगा और निरन्तर कार्य करते हुए, एहसास दिला दूंगा कि मुझमें कितनी क्षमता है। मैं क्या हूं? और अपनी लिमिट देख लेनी चाहिये कि कितनी लिमिट है मेरी काम करने की। और लिमिटेशन आंक लेना अपने आप में उस जीवन का प्रारम्भिक बिन्दु है। क्या कर सकते हैं। और कितना कर सकते हैं? तब मन में एक संतोष होगा कि आज शाम को मैंने रोटी खाई है हक की खाई है। बेईमानी की रोटी नहीं खाई, किसी के हिस्से की नहीं खाई, गुरू के घर का अन्न खाया है। पाप का अन्न नहीं खाया है। मैंने पूरा परिश्रम किया है, गुरू से ज्यादा परिश्रम किया है। चाहे मानसिक हो, चाहे शारीरिक हो और उसके बाद ही मैंने भोजन को स्वीकार किया है।
यह जब मन में एक ज्योति, एक पवित्रता, एक सुंगध बनी रह सकेगी तभी जीवन का निर्माण हो सकेगा और जीवन के निर्माण का आवश्यक बिन्दु न काम है, न क्रोध है, न लोभ है, न अंहकार है यह तो वृत्तियां हैं, चित्त को धीरे-धीरे उस मन को मनायेंगे तो अपने आप यह सारी कम हो जायेगी। क्रोध तो पशु करते हैं, लोभ तो पशु करते हैं, अंहकार तो पशु करते है, काम-वासना भी पशु में ही होती है। मनुष्य अपने आप में पूर्ण नियन्त्रित हो सकता है और होता है। होता है तो फिर जीवन है और वही मनुष्य है तो फिर समर्पण है, ज्ञान है, चेतना है और अपने आपको आंख मिची प्रवृत्ति है। मेरे पास काम कर रहे हैं, यह पूजा रूम है मैं साफ कर सकता हूं ऐसी कोई बात नहीं है। यदि आप करते हो तो मेरा काम हल्का हो जायेगा, मैं दूसरा काम करूंगा।
ये जो एक दूसरे में जुड़ने की क्रिया है और जुड़ने की क्रिया के लिये कई बार अधिक कार्य करना पड़ता है। झुकना पड़ता है, लचीला बनना पड़ता है। जब गेंद आप जमीन पर मारोगे तो ऊपर की ओर उठेगी और जितनी जोर से मारोगे उतनी ही ऊंचाई की ओर वह उठेगी और जोर से मारोगे तो आठ फुट से ऊपर भी उठेगी। आप जितने ज्यादा काम में गतिशील होते जाओगे उतने ही ऊंचे उठते जाओगे और जो आपका काम है वह काम पूरे भारत वर्ष को आध्यात्मिक चेतना देने का काम है। वह छोटा काम नहीं है, आप वह काम छोटा समझे, आपको मालूम नहीं आपकी लिखी हुई पुस्तक को कुंकुंम लगाते हैं, पुष्प चढ़ाते हैं, पूजा करते हैं और पवित्र स्थान पर रखते हैं उसको लोग रोज आंखों पर लगाते हैं।
आपके लिये ये कागज के टुकड़े हैं उनके लिये तो ईश्वर हैं। लोग इस किताब को देखते हैं और देख कर अपने आप में चेतना पैदा करते हैं। लोग इन सभी कैसटों को सुनते हैं, उनकी मनोवृत्तियों में परिवर्तन आता है। लोग शिविरों में आते हैं, लोगों की संख्या बढ़ी है, लोग जुड़ रहे हैं। केवल एक झलक देखने के लिए तरसते हैं, यहां पर आने के बाद भी सौ रूपये देने के बाद भी वो ये चाहते हैं, दो मिनट मिलें, यह सब क्या है। यह आपके द्वारा फैलाई गई एक चेतना है, एक रोशनी है, यह यहां से नागालैण्ड तक गई है, यह यहां से कश्मीर तक भी गई है। यह आपका छोटा सा कार्य नहीं है आपने उसको छोटा सा कार्य समझा हैं, आपकी कैसेट ही कोई छोटी कैसेट नहीं है, आपका कागज का टुकड़ा कम्पोज हुआ है वह छोटी सी बात नहीं है। यह पूरे भारतवर्ष को समेट कर चलने की क्रिया है और आप कितना बड़ा कार्य कर रहे हैं। कभी अपने-आप में जानना चाहिये, कि मैं क्या कर रहा हूं? क्या घर की एक झाडू निकाल रहा हूं, क्या घर का काम कर रहा हूं, कि बीज बो रहा हूं जमीन में, कि बच्चे खाना खाये इतना काम कर रहा हूं या पूरे भारत वर्ष के लिये या केवल परिवार के लिये या केवल खुद के लिये यह सब कुछ आप आंक सकते हैं और ऐसा सौभाग्य बड़े तकदीर से या पुनर्जन्म के पुण्य से ही प्राप्त होता है। अन्यथा ऐसा प्रेम, ऐसा अटैचमैंट, ऐसा योग मेरे साथ, सम्बन्ध नहीं बन सकता, सम्भव नहीं हैं ये हो ही नहीं सकता, जुड ही नहीं सकता। मेरे साथ जुड़ी हुई चीज अत्यधिक कठिन परिस्थिति में चलना पड़ेगा। तलवार पर चलना पड़ेगा। तब आप मेरे साथ जुड़ पाओगे। सीधे सरल भाषा में आप मेरे साथ नहीं जुड सकोंगे, सम्भव नहीं है।
क्योंकि मैं उसी जगह पर खड़ा हूं जहां पर रास्ता सीधा तलवार पर होकर ही आता है। यहां पैर लहूलुहान होते हैं पर एक आनन्द की उपलब्धि है। अगर आपके हृदय से आनन्द का उद्वेग हो रहा है तो और या उद्वेग आपके हृदय से हो क्योंकि वहां आनन्द, प्रेम और वह सम्बन्ध ये तीन वस्तु वहीं हैं जिसके माध्यम से व्यक्ति छलांग लगा लेता है और अपने आप में अपने चेहरे पर एक आभा मंडल बन सकता है। आपको मालूम पडे़, पर आप किसी को भी और बड़े से बड़े बिजनेस मैन के सामने खड़े रहोगे वो एकदम से आपके सामने सिर झुका कर चला जाता है। ये क्या है आपके चेहरे की तेजस्विता है क्योंकि आपके चेहरे को देखते ही वो आधा तो बिल्कुल ही निरूत्साह हो जाता है मान लेता है बात। आप अपने आप को जांचिये आप कहां खडे़ हैं? और इससे और ऊंचाई पर आपको खड़ा होना हो, उठना है और ऊंचाई पर उठने के लिये आपका कार्य अपने आप में इतना अधिक हो कि आप एहसास कर सकें कि मै इतना भी अधिक कार्य करके दिखा सकता हूं, एक क्षण भी मेरा बेकार नहीं गया।
और शाम को सोते समय जब मालूम पड़ा, बेकार गया तो एक मन में ग्लानि होनी चाहिये कि आपने एक क्षण गंवा दिया जो मैं दे सकता था जब तक एक ऐसा नहीं होगा तब तक आप ऐसे ही पशु तुल्य जीवन में रहेगें, चाहे आप यहां बैठें, चाहे मंदिर में बैठें, चाहे पूजा के घर में, चाहे भगवे कपड़े पहन कर साधक बन जाये वैसे ही रहेगें जहां वासना है, जहां छल है, जहां झूठ है, जहां कपट, जहां असत्य है और यदि आपके जीवन में इन सब स्थितियों से हटकर चित्त प्रवृत्तियों पर अंकुश लगकर मन में श्रद्धा, प्रेम समर्पण का भाव उदय हो सके, कर्मशीलता का भाव उदय हो सके, तो जानिये आपका जीवन उर्ध्वगति में जा रहा है। आपकी हर स्थिति में मैं आपके साथ हूं और आपके जीवन के अंधकार को मिटाकर प्रकाशवान बनाने के लिए तत्पर हूं, आइए आगे बढ़कर हाथ बढ़ाइए आपका।
सद्गुरूदेव स्वामी निखिलेश्वरानन्द परमहंस।
पुरूषोत्तम विष्णु शक्ति मास की हार्दिक शुभकामनायें
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