और अगर आपको असफ़लता मिलती है, तो उसमें दोष आपका है, मंत्र का नहीं है, गुरू का नहीं है। आपकी आस्था द्ढ़ नहीं है। आपका विश्वास कच्चा है तो कैसे साधना में सफ़लता प्राप्त होगी।
साधना में सफ़लता की एक मात्र कुंजी है गुरू में पूर्ण आस्था, मंत्र में पूर्ण विश्वास और उस देवी देवता में विश्वास जिसकी साधना कर रहे है।
अगर विश्वास नहीं हैं और मन की एकाग्रता नहीं है तो साधना में सफ़लता नहीं मिल सकती चाहे फि़र आप लाखों मंत्र जप क्यों न कर लें।
और अगर आस्था है, समर्पण का भाव है और गुरू में विश्वास है और विश्वास नहीं दृढ़ विश्वास है तो साधना में कोई त्रुटि भी रह जाए तो भी गुरू सफ़लता प्रदान कर देता है, सिद्धि प्राप्त करा देता है।
कोई साधना में सिद्धि प्राप्त करना इतना कठिन काम नहीं है। एक सामान्य व्यक्ति भी कर सकता हैं। कठिन कार्य है समर्पण, पूर्ण विश्वास और आस्था अपने मन में पैदा करना।
विशेष कार्यों की सफ़लता हेतु विशेष साधना से पहले गुरू से आज्ञा ले लें या उस साधना से संबंधित दीक्षा ले लें तो साधना में सफ़लता की संभावना हजार गुना बढ़ जाती है।
और गुरू हर क्षण देने को तत्पर है, आवश्यक है कि आप बढ़ कर उससे प्राप्त करें। सागर आप तक चल कर नही जाएगा, आपको ही सागर तक चल कर जाना होगा और उसमें छलांग लगाकर उसमें से मोती निकालने होंगे।
सागर कभी मना नहीं करता कि मोती मत निकालो, गुरू भी अपना ज्ञान प्रदान करने के लिए कभी मना नहीं करता। मगर प्राप्त होगा तभी जब आप उस तक पहुंचेंगे जब आपको विश्वास होगा कि हां इसके पास कुछ है। आस्था और विश्वास ही साधनाओं में सफ़लता की कुंजी है।
व्यक्ति के जीवन का बहुत बड़ा सौभाग्य होता है। कि वह अपने जीवन में सद्गुरू से मिले और उससे भी बड़ा सौभाग्य होता है जब वह सद्गुरू को पहचान लें तथा उसके प्रति समर्पित हो जाए।
बहुत कम लोग सदगुरू के पास पहुंच पाते हैं। गुरू तो जीवन में बहुत मिल सकते है परंतु एक उच्च कोटि का सद्गुरू मिलना तभी संभव होता है जब पूर्व जन्म के पुण्यों का उदय हो जाए।
परंतु केवल सद्गुरू से मिलने या उसकी जय जयकार करने से कुछ प्राप्त नहीं हो सकता, उसके लिए तो फि़र आपकों समर्पण की कला सीखनी पड़ेगी, श्रद्धा एवं विश्वास पैदा करना पड़ेगा। गुरू स्वार्थ से प्रेरित हो सकता है परंतु सदगुरू को शिष्य से कोई स्वार्थ होता ही नहीं। वह अपने हित की चिंता किए बिना सदा शिष्यों के कल्याण के लिए तत्पर रहता है। इसलिए सद्गुरू मिल जाए तो व्यक्ति को बिना संकोच के अपना जीवन उनके हाथ में सौंप देना चाहिए।
सद्गुरू का जब जीवन में प्रवेश होता है तो बहुत उथल पुथल होती है और ऐसा स्वाभाविक है क्योंकि सद्गुरू शिष्य के कर्मों को नष्ट करता है। इस समय लग सकता है कि जीवन बहुत अनिश्चित सा हो गया है। परंतु व्यक्ति में अगर साहस, धीरता, गंभीरता है।
तो वह सद्गुरू के कहे अनुसार अग्रसर होता रहता है तथा आखिर में स्वयं एहसास करता है कि सद्गुरू से उसे क्या प्राप्त हुआ, सद्गुरू ने उसके जीवन को कैसे निखारा।
व्यक्ति जन्मों तक साधना और तपस्या करता रहे, आराधना और भक्ति करता रहे परंतु वह पूर्णता तभी प्राप्त कर पाता है जब सद्गुरू से वह मिले और वे उसका मार्ग दर्शन करें।
सद्गरू को शिष्य से किसी चीज की अपेक्षा नहीं होती, वह अगर शिष्यों से कुछ चाहता है तो श्रद्धा, विश्वास एवं समर्पण और बदले में शिष्य को प्रेम, स्नेह तथा आध्यात्मिक बल प्रदान करता है।
सद्गुरू कहीं भी रहे उसका ध्यान हमेशा शिष्यों की ओर ही लगा रहता है, जिस प्रकार मादा कछुआ दूर से ही मात्र अपनी दृष्टि से अंड़ों को सेती रहती है उसी प्रकार सद्गुरू दरू होते हुए भी शिष्यों को अपने प्रेम और ममत्व से आप्लावित करता रहता है।
शिष्य वह है जिसमें एक तड़फ़ हो, एक बैचेनी होनी चाहिये, वह अपने आप को कितना भी काबू करें, मगर हर क्षण उसके मानस में एक भावना, एक चिन्तन विचार बना रहे कि मुझे अपने जीवन में वह प्राप्त करना ही है, जो मेरा लक्ष्य है। क्योंकि मैं पगडण्डी के प्रारम्भ से शुरू हुआ हूं और मुझे पगडण्डी के अंत तक पहुंचना है और पगडण्डी के अंत तक पहुचंने में ही मेरे जीवन की पूर्णता है। ऐसा चिन्तन शिष्य का हो सकता है।
जब तक वह अपने इष्ट से गुरू से साक्षात नहीं कर लेता, तब तक उसके अन्दर विरह की आग धधकती रहती है।
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