जो आकाश हमारे बाहर फैला है, वह असीम है। उसकी सीमा का कोई पता नहीं चलता। लेकिन जो आकाश हमारे भीतर फैला है, यह बाहर का आकाश उसके सामने कुछ भी नहीं है। वह विराट स्वरूप में असीम है। अनंत आयामी उसकी असीमता है। बाहर के आकाश में चलना, उठना होता है, भीतर के आकाश में जीवन है। बाहर के आकाश में क्रियाएं होती हैं, भीतर के आकाश में चेतना है। जो बाहर के आकाश में ही खोजता रहेगा, वह कभी भी जीवन से मुलाकात नही कर पाएगा। उसकी चेतना से कभी भेंट न होगी। उसका परमात्मा से कभी मिलन न होगा। हमें अन्तः-आकाश की कोई अनुभूति नहीं है। भीतर के आकाश में हमने कभी उड़ान नहीं भरी। हमने भीतर के आकाश में एक चरण भी नहीं रखा है। हम भीतर की तरफ गए ही नहीं हमारा सब जाना बाहर की तरफ है। हम जब भी जाते हैं, बाहर ही जाते हैं।
यह प्रश्न सदा ही साधकों के मन में उठता है जब मेरा स्वभाव ही शुद्ध है, तो यह अशुद्धि कहां से आ जाती है? और जब मैं स्वभाव से ही अमृत हूं, तो यह मृत्यु कैसे घटित होती है? और जब भीतर कोई विकार ही नहीं है, निर्विकार, निराकार का वास है सदा से? तो ये विकार के बादल कैसे घिर जाते हैं? कहां से इनका जन्म होता है? कहां इनका उदगम स्थल है? इसको विस्तार से समझ लेना आवश्यक है।
जहां भी चेतना है, वहां चेतना की स्वतंत्रताओं में एक स्वतंत्रता यह भी है कि वह अचेतन हो सकें। ध्यान रखें अचेतन का अर्थ जड़ नहीं होता। अचेतन का अर्थ होता है, चेतना जो कि सो गया है। चेतना जो कि छिप गया है। यह चेतना की ही क्षमता है कि वह अचेतन हो सकती है। जड़ की यह क्षमता नहीं है। आप पत्थर से यह नहीं कह सकते हैं कि तू अचेतन है। तो चेतन नहीं हो सकता, वह अचेतन भी नहीं हो सकता। जो सोया नहीं वो जागेगा कैसे? चेतना की ही क्षमता है अचेतन हो जाना। अचेतन का अर्थ है, चेतना का प्रसुप्त हो जाना। छिप जाना, चेतना की स्वतंत्रता है कि वह चाहे तो प्रकट हो, और चाहे तो अप्रकट हो जाए। यही चेतना का स्वामित्व है। अगर चेतना अचेतन होने को स्वतंत्र न हो, तो चेतना परतंत्र हो जाएगी। फिर आत्मा की कोई स्वतंत्रता न होगी।
अगर आपको बुरे होने की स्वतंत्रता ही न हो, तो आपके भले होने का क्या अर्थ होगा? अगर आपको बेईमान होने की स्वतंत्रता ही न हो, तो आपके ईमानदार होने का क्या मतलब है? और जब भी हम किसी व्यक्ति को कहते हैं कि वह ईमानदार है, तो इसमें निहित है, कि वह चाहता तो बेईमान हो सकता और नहीं हुआ। ईमानदार होने का मूल्य बेईमान होने की क्षमता और संभावना में छिपा है। जीवन के शिखर को छूने का मूल्य, जीवन की अंधेरी घाटियों में उतरने की हमारी क्षमता में छिपा है। स्वर्ग पहुंच जाना इसीलिए संभव है कि नर्क की सीढ़ी भी हम पार कर सकते हैं। और प्रकाश इसीलिए पाने की आकांक्षा है कि हम अंधेरे में भी हो सकते है।
यह जो हमारे भीतर छिपी हुई चेतना है, यह परम स्वतंत्र है, एब्सोल्यूट फ्रीडम। इसलिए पापी और पुण्य दोनों होने की सुविधा है। एक छोर से दूसरे छोर तक हम कहीं भी हो सकते हैं। और जहां भी हम है, वहां होना हमारी मजबूरी नहीं, हमारा निर्णय है। अवर ओन डिसीजन। अगर मजबूरी है, तो बात खत्म हो गई। अगर मैं पापी हूं और पापी होना मेरा मजबूरी है, पापी मुझे परमात्मा ने बनाया है, या मैं पुण्यात्मा हूं और पुण्यात्मा मुझे परमात्मा ने ही बनाया है तो मैं पत्थर की तरह हो गया, मुझमें चेतना न रही। मैं एक बनाई हुई चीज हो गया, फिर मेरे कृत्य का कोई दायित्व मेरे ऊपर नहीं है। स्वतंत्रता का अर्थ यही होता है कि हम बुरे और अच्छे दोनों होने के लिए स्वतंत्र हैं। और जब स्वतंत्रता है, तभी दायित्व है। अगर मैं बुरा हूं, तो मैं जिम्मेवार हूं। और अगर भला हूं, तो भी मैं जिम्मेवार हूं।
जीवन के प्रगाढ़ अनुभव के लिए विपरीत में उतर जाना अनिवार्य होता है। प्रोढ़ता के लिये, मैच्योरिटी के लिए विपरीत में उतर जाना अनिवार्य होता है। जिसने दुःख नहीं जाना, वह सुख कभी जान नहीं पाता। और जिसने अशांति नहीं जानी, वह शांति का महत्व कैसे समझेगा। और जिसने संसार नहीं जाना वह स्वयं परमात्मा होते हुए भी परमात्मा को नहीं जान पाता। परमात्मा की पहचान के लिए संसार की यात्र पर जाना अनिवार्य है। और जो जितना गहरा संसार में उतर जाता है। उतने ही गहन परमात्मा के स्वरूप को अनुभव कर पाता है। सद्गुरूदेव यही कहते हैं कि यह ना पूछो कि तुम अंधकार में कैसे गिरे? जबकि तुम्हारी परेशानी यह है कि अंधकार से बाहर कैसे जाया जा सकता है? यह फिक्र ना करो कि मन कैसे पैदा हुआ? यह फिक्र करो कि मन कैसे विसर्जित हो सकता है। और बिना विसर्जन किये यह नहीं जाना जा सकता कि कैसें अर्जन करें?
जब आकाश में बादल घिर जाते हैं, तो बादलों का पता चलता है, आकाश का पता नहीं चलता। हालांकि आकाश मिट नहीं गया होता, सदा बादलों के पीछे खड़ा रहता है। और बादल भी आकाश में ही होते हैं, आकाश के बिना नहीं हो सकते। लेकिन जब बदलियों से घिरा होता है आकाश को बदलियों का पता चलता है, आकाश का पता नही चलता। विचारों से, मन से घिरे हुए भीतर के आकाश का भी पता नहीं चलता।
आकाश में जो जाता है मन की बदलियों के पार, वही अपनी शक्तियों का सम्यक उपयोग कर पाता है, बुद्धिमानी पूर्वक उपयोग कर पाता है। शक्तियां हम सबके पास समान हैं- चाहे वह बुद्ध हों कि हिटलर, महावीर हों कि स्टैलिन, मोहम्मद हों कि माओ, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। शक्तियां सबके पास बराबर हैं। लेकिन बुद्धिमानी पूर्ण उपयोग सबके पास नहीं दिखाई पड़ता। अधिक लोग अपनी ही शक्तियों का दुरूपयोग करते हुए मर जाते हैं। मनुष्य के पास शक्तियां तो जरूर हैं, लेकिन समझ सबकी जागी हुई नहीं है। इसलिए शक्तियों का दुरूपयोग हो जाता है। और शक्ति के साथ समझ न हो, तो खतरनाक है। हां समझ के साथ शक्ति न हो, तो कोई खतरा नहीं है। लेकिन होता ऐसा है कि समझ के साथ अक्सर शक्ति नहीं होती और नासमझ के साथ अक्सर शक्ति होती है। इस दुनिया का दुर्भाग्य यही है कि नासमझों के हाथ में काफी शक्ति होती है। उसका कारण है कि नासमझ शक्ति की ही तलाश करते हैं। समझदार तो शक्ति की तलाश बंद कर देते हैं।
यह दुर्भाग्य है कि जिनके पास समझ होती है, उनके पास शक्ति नहीं होती और जिनके पास शक्ति होती है, उनके पास समझ नहीं होती। यह इतिहास की विडम्बना है। इससे हम पीडि़त हैं क्योंकि समझदार राह के किनारे खड़े रह जाते हैं और बुद्धू राज सिंहासनों पर चढ़ जाते हैं। फिर उपद्रव तो होगा ही। काम वासना शक्ति है, ब्रह्मचर्य बन सकती है, लेकिन व्यभिचार बनकर समाप्त हो जाती है। सारी शक्तियां दिव्य हैं उनका कैसा उपयोग हो इस पर सब निर्भर करता है। इन शक्तियों का पात्र के हिसाब से अनुसरण करना ही बुद्धिमानी है। समय, स्थान, और स्थिति इन सबको ध्यान में रखकर! क्योंकि जो भी हमारे पास है अगर उसका प्रज्ञा पूर्वक उपयोग न हो सके, तो दिव्य शक्ति आत्मघाती हो जाती है। और हम पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं, उपयोग करने को। कोई कहेगा नहीं कि ऐसा मत करो।
जब चित्त-शक्ति अपनी पराकाष्ठा पर हो, शिष्य के भाव में, लय में, गति में एक सम्पूर्णता आ जाये। जब शिष्य सद्गुरू रूपी सागर में पूर्ण रूप से विलीन होने को तत्पर होने के साथ ही अपने तमोगुणी अंधकार को दूर कर अपने भीतर सद्गुरू स्वरूप प्रकाश को आत्मसात करने का प्रयत्न करें, तो गुरू और शिष्य के इसी संगम को गुरू पूर्णिमा कहा जाता है। शिष्य पूर्णत्व भाव को आत्मसात करने के लिए गुरू चरणों में पहुंचता ही है। अधिक मास की पूर्णता के साथ सम्पन्न हो रहे गुरू पूर्णिमा के श्रेष्ठतम् अवसर पर 29,30,31 जुलाई इन्डोर स्टेडियम, बूढ़ा तालाब रायपुर (छ-ग) में ‘शिवोहम् धनदा लक्ष्मी दीक्षा’ और ‘अक्षय राज राजेश्वरी चेतना दीक्षा’ प्रदान की जायेगी। जिससे जीवन में श्रेष्ठमय स्थितियों का क्षय नहीं हो साथ ही जीवन के पापों को आहूत करने हेतु प्रत्येक साधक द्वारा हवन की क्रिया और अपने जीवन को शिव लक्ष्मी मय स्थिति से युक्त करने हेतु स्वरूद्राभिषेक पूर्ण वेद मंत्रों के माध्यम से सम्पन्न कराया जायेगा।
गुरु पूर्णिमा से लेकर श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को सम्पन्न की जाने वाली शिवोहम् श्रावण धनदा वृद्धि साधना जो साधक के जीवन में प्रत्येक प्रकार की समस्याओं का पूर्ण समाधान कर मनोकामनाओं की पूर्ति करने में पूर्ण सक्षम है। जिससे जीवन में शिवस्वरूप में क्षयति पापम् की स्थितियां बन सके और पार्वती स्वरूप में लक्ष्मी श्रावण के वर्षा के रूप में साधक को सरोबार कर सके। विघ्नहर्ता गणपति रिद्धि-सिद्धि और शुभ-लाभ की पूर्णता की प्राप्ति हो सके और निरन्तर निरन्तर आने वाली बाधाओं पर कार्तिकेय रूपी विजयश्री को प्राप्त कर सके। ऐसा ही शिवोहम् श्रावण धनदा वृद्धि साधना सामग्री चैतन्य की गई है। जिसको साधक सम्पन्न कर आनन्दयुक्त जीवन की ओर अग्रसर हो सकेगा, साथ ही भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में निरन्तर उन्नति प्रगति के मार्ग प्राप्त हो सकेगे।
श्रावण मास के पूर्व गुरू पूर्णिमा के दिवस से ही शिव स्वरूप जीवन निर्माण और अखण्ड सौभाग्य हेतु प्रत्येक साधक-साधिका को शक्ति चेतना से सरोबार किया जायेगा ऐसा ही आपके परिवार को हृदय भाव से पूर्ण आशीर्वाद प्रदान कर रहा हूं।
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