और जिसने कभी आंखों में शाम की लाली उतार कर किसी को यूं न निहारा हो, कि सारा वातावरण ही गुलाबी-गुलाबी हो उठा हो, जिसकी कनपटियों से कभी मदमस्त गजराज की तरह यौवन का मद न बह उठा हो, जिसकी सुगन्ध से सैकड़ों युवतियां सुध-बुध भुला करके भौंरे की तरह मंडराने न लगी हों।
और जिसने जीवन में कभी किसी से प्रणय निवेदन न किया हो, सम्पूर्ण कोमलता के साथ सम्पूर्ण भावनाओं के साथ ज्यों छोटी सी घास, शबनम से भीग कर पृथ्वी के वक्षस्थल को चूमने के लिये झुकती और लिपटती चली जाती है, कुछ यही मनः स्थिति रहा करती थी मेरी, जब मैं अपने संन्यस्त जीवन के प्रारम्भ में था। चुनौती और केवल चुनौती, बस यही मेरी दुनिया थी। ढूंढता रहता था मैं कि कब किस बात की, कब किस साधना को सिद्ध करने की चुनौती मिले और मैं उसमें कूद पडूं। जिस प्रकार से हाथी जिस मार्ग से जाता है, कुचली हुई झाडि़यों से उसके गुजरने का पता चल जाता है, वही मैं भी किया करता था। साधना के घने जंगल में मैं बस आंख मूंदकर मंत्र ही नहीं बुदबुदाता था अपितु एक प्रकार से उसे कुचल कर निकल जाता था, अपने पगचिन्ह अंकित कर जाता था।
मैं कभी साधनाओं में सफलता के लिये गिड़ -गिड़ाता नहीं था, अपितु उन्हें प्राप्त कर अपने संग्रह में रख लेता था, ज्यों वीर पुरूष अपने तरकस में तीर तो अनेक प्रकार के एकत्र कर लेते हैं, किन्तु संघर्ष का अवसर आने पर अपनी मुष्टिका के प्रहार से ही शत्रु का मस्तक-भंजन कर देते हैं। साधना और सिद्धियां मेरे कौतुक थे, जिनसे मैं खेलता था।
उन्हीं दिनों की बात है, कि एक प्रख्यात तांत्रिक एवं अपने आप में अत्यन्त उग्र व तीक्ष्ण कहे जाने वाले एक व्यक्तित्व से मेरी भेंट हुई। जिस प्रकार जंगल में दो सिंह आमने-सामने पड़ जाने पर क्रोध से उन्मत होकर कभी गुर्राते हैं, तो कभी पैंतरे बदलने लगते हैं, वही दशा मेरी व उनके मध्य रही, किन्तु शीघ्र ही साधकोचित्त गरिमा के वशीभूत होकर मेरी व उनकी मैत्री भाव भी स्थापित हो गई। मैं अनेक प्रयास करके भी उनका नाम एवं अन्य परिचय न प्राप्त कर सका, किन्तु एक बात स्पष्ट हो गई कि वे तंत्र के अच्छे साधक थे। यहां मैं विषय से कुछ अलग हटकर उल्लेख करना चाहूंगा, कि वे तांत्रिक जिस सम्प्रदाय के थे, वह अपने आप में तंत्र की एक विशिष्ट धारा है। अत्यन्त प्राचीन काल में जब बौद्ध धर्म से विद्रोह करके अलग हुये भिक्षुकों ने वज्रयान की स्थापना की एवं पंचमकारों का खुल कर सेवन प्रारम्भ किया, तो उसे युग में न तो साधनात्मक दृष्टि से और न ही व्याभिचार की दृष्टि से कोई उनके समक्ष टिक पाया। कालांतर में अनेक वज्रयानियों ने पंचमकारों का सेवन तो नहीं त्यागा, किन्तु अपने आचार-विचार को संयमित कर निष्ठापूर्वक साधना की अनेक उच्चकोटि की विधाओं को जन्म दे दिया। इस पंथ में काम को बाधक नहीं, वरन साधना में अत्यन्त सहायक माना गया है तथा इस पंथ के साधक कामरूपिणी के साथ काम तत्व को समाहित करते हुये तंत्र की अनेक दुर्लभ साधनायें करते हैं। मुझे उन तांत्रिक महोदय ने एक प्रकार से चुनौती दी, कि यदि मेरे में साहस है, तो मैं ‘कामरूपिणी’ साधना को सिद्ध करके दिखाऊं और वह भी उनके समक्ष। इस हेतु वे मुझे समस्त दुर्लभ रहस्य साधना विधि एवं मंत्र निःशर्त देने को भी स्वतः ही सहमत हो गये।
मैं यद्यपि अनेक सौन्दर्य साधनायें तथा अप्सरा साधना, यक्षिणी साधना आदि सम्पन्न करके इस ओर से कुछ विमुख हो चला था, किन्तु उनकी चुनौती से एक बार फिर सोई हुई प्रवृत्ति जाग उठी, कि कोई चुनौती दे और मैं शान्त रह जाऊं यह सम्भव ही नहीं।
शुक्रवार की रात्रि थी और वे मुझे आवश्यक निर्देश देकर वहां से चले गये, यह कहकर कि वे लौटने पर स्वतः जान लेंगे कि क्या कामरूपिणी प्रकट हुई अथवा नहीं। मैंने उनके बताये अनुसार साधना प्रारम्भ की और लगभग दो घंटे बीत गये। मै नहीं जानता कि मेरे अन्दर क्या शक्ति कार्य कर रही थी, मेरी संकल्प शक्ति थी, मेरे गुरू का बल था, चुनौती को पूरा करने का हठ था अथवा मंत्रों में प्रभाव था कि आधी रात बीतते-बीतते मुझे संकेत मिलने लगें कि मैं सफलता के अत्यन्त सिन्नकट हूं। जब सफलता के संकेत मिलने लगे, तभी वह समय होता, तब सफलता को सिंह के समान झपट्टा मार दबोच लेनी चाहिये और यह कार्य होता है मनोबल से। मैंने अवसर की सूक्ष्मता को समझते हुये ऐसा ही किया और अगले ही पल कामरूपिणी अपने समस्त वैभव, विलास, कटाक्ष और यौवन की तीक्ष्णता के साथ मेरे समक्ष उपस्थित थी।
सचमुच जैसा सुना था, उसे वैसा ही पाया। यद्यपि वह न तो अप्सराओं की भांति गौरवर्णीय थी, न ही यक्षिणी वर्ग की भांति लावण्य से भरी, लेकिन कुछ था अवश्य जो उसे फिर भी एक अनोखी खनक से भर रहा था, ज्यों खेतों में पकी गेहूं की बाल एक अलग सी पुष्टता और सुनहरापन लिये हुये होता है, वही खनक और मांसलता उसके रोम-रोम से प्रकट हो रही थी, उसकी गहरी तीक्ष्णता भरी हुई थी और चेहरे पर नारी सुलभ लज्जा होते हुये भी परिपक्वता थी, स्पष्ट रूप से उसका अंग-प्रत्यंग काम तत्व की पुष्टता से इतना सींझ गया लग रहा था, जो उसे मादकता से सराबोर बना दे रहा था। उसके एक-एक हाव-भाव, कटाक्षों एवं दृष्टिपात में काम कलाओं की द्युति चमक रही थी, उसके पुष्ट उरोजों, सूक्ष्म रोमावली, गहन नाभि एवं सुडौल जंघाओं से यही लग रहा था, जैसे कोणार्क के भित्ति चित्रों में उत्कीर्ण कोई रतिनिपुणा नायिका ही उतर कर आ गई है।
उसकी देह यष्टि पर आभूषणों अथवा श्रृंगार की कोई बहुलता नहीं थी, एक प्रकार से उसे इसकी आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि आभूषण और श्रृंगार जिस भाव की वृद्धि के लिये धारण किये जाते हैं, वह भाव तो यूं ही उसके अंग-अंग से प्रकट हो ही रहा था। हल्की उत्तेजना वह सरसता से उसके भरे-भरे हल्के सांवले ओष्ठ द्वय एक दूसरे को यूं कस कर भींच रहे थे, मानों काम तत्परा अपने यौवन का रसपान खुद ही कर लेने को उतावली हो गई हो। कुछ रात की स्याही, कुछ हल्का अंधेरा और कुछ मादकता मानों अवसर ही नहीं दे रही थी, कि उस सद्यः यौवन के रूप-रंग को अपनी आंखों में उतार लिया जाये। मुख्य बात तो यह थी, कि क्या कामरूपिणी सचमुच उन कलाओं में निष्णात थी, जिनकी चर्चा मैंने उन तांत्रिक महोदय से सुनी थी। वह तो आंखों से ही नहीं, अपने सारे शरीर से अनुभव करने की बात थी और वास्तव में वैसी ही रही, उन तांत्रिक महोदय ने सचमुच किसी अतिशयोत्तिफ़ का उपयोग नहीं किया था। वह तो अपने आप में एक विस्मरणीय अनुभव था।
दूसरे दिन प्रातः न केवल उन तांत्रिक महोदय ने मुझे बधाई दी, अपितु आग की तरह यह बात सभी साधकों के मध्य भी फैल गई कि मैने कामरूपिणी कामाख्या की साधना में सफलता प्राप्त कर ली है। कोई मेरे भाग्य से ईर्ष्या कर रहा था, तो कोई विश्वास ही नहीं कर पा रहा था, कि सचमुच कामरूपिणी सिद्ध हो ही गई है। अनेक वृद्ध साधक भी मुझसे रहस्य जानने को उतावले थे, क्योंकि कामरूपिणी कामाख्या साधना की यही तो महत्ता है कि वह एक ही क्षण में अपने काम तत्व के संचार से कायाकल्प एवं यौवन का संचार कर देती है। सांसारिक जीवन में काम तत्व को साधक के अनुकूल कर मोहक व्यक्तित्व को उभार उच्चता पर ले जाने की क्रिया का नाम ही तो है कामरूपिणी कामाख्या! यह साधना काम तत्व के संयमित प्रयोग से निरंतर यौवनवान, वेगवान बनाये रखना और सम्पूर्ण रूप शरीर का कायाकल्प कर देने में पूर्ण समर्थ है । इस साधना की महत्वपूर्ण विशेषता यह है, कि जर्जर और अशक्त व्यक्ति इस साधना को सम्पन्न कर ले तो उसे निराशा, उदासी, बैचेनी नहीं घेरती, वह सदैव प्रसन्न, आत्म विश्वास से युक्त तथा उत्साही बना रहता है। कामरूपिणी अभिन्न सहयोगिनी तो होती ही है, साथ ही अपने वरदायक प्रभावों से वह ठीक एक योगिनी की ही भांति फल प्रदान करती है।
यह साधना तो स्वयं में नवीन रचना कर देने का मार्ग है, जो साधारण प्रयासों से घटित न होता हो, उसको घटित कर देने की क्रिया है, जो कुछ असंभव हो उसे संभव कर दिखाने का उपाय है और केवल यही नहीं, यह तो वर्तमान देह में नई देह रचित कर देने का दावा करता है। इसको सम्पन्न करने से शरीर में एक विशेष ऊर्जा तथा क्रियाशीलता का प्रादुर्भाव होता है तथा ऐसा लगता है कि सारे शरीर के अणु-अणु चैतन्य हो गये हैं। इस साधना की उपलब्धियां देखनी हों तो उनका अनुभव साधारण जीवन में तो नहीं किंतु सन्यासियों के मध्य अवश्य देखा जा सकता है। कई-कई दिन बिना खाये-पिये भी पूर्ण स्वस्थ बने रहना, बर्फीले पहाड़ों पर केवल एक वस्त्र धारण करके सुख पूर्वक रहना या एक दिन में बीस-बीस मील यात्र कर लेना, उनके लियें बांये हाथ का खेल है।
अनेक साधक मुझसे घुमा-फिरा कर संकेतों के माध्यम से बहुत कुछ जानना चाह रहे थे। किन्तु-
कहने का तात्पर्य इतना ही है कि सच्चा साधक सिद्धि प्राप्त कर लेने कि बाद भी संयम का पथ नहीं छोड़ता, वह वासना को परे रखकर प्रेम करता है, इसीलिये वे योगी कहलाते हैं।
बुधवार की रात्रि को स्नानादि से निवृत्त होकर अपने पूजा स्थान में बाजोट पर पीला वस्त्र बिछाकर एक थाली में गोला बनायें और इसके मध्य में एक त्रिकोण बनाकर सिन्दूर से ‘श्रीं श्रीं श्रीं’ लिखे, और इसके नीचे अपने नाम का पहला अक्षर लिखें, गोले के बाहर आठ दिशाओं में चार चावल की ढेरियां बना कर उस पर कामबीज स्थापित करें चार काम बीजों पर कामाख्या देवी की सभी सोलह शक्तियों का पूजन करें, और प्रत्येक काम बीज पर इन शक्ति का नाम लेते हुये, ध्यान कर पुष्प अर्पित करें,
अन्नदा, धनदा, सुखदा, जयदा, रसदा,
मोहवा, ऋद्धिदा, सिद्धिदा, वृद्धिका, शुद्धिका,
भुक्तिदा, मुक्तिदा, मोक्षदा, शुभदा, ज्ञानदा, कान्तिदा।
अब कामाक्षी कायाकल्प यंत्र व कामरूपिणी कल्प जीवट का संक्षिप्त पूजन करें। तथा गुरू का ध्यान करते हुये एक माला गुरू मंत्र का जप करें। फिर निम्न मंत्र का पांच माला जप यौवनदात्री कामरूपिणी माला से करें।
साधना समाप्ति पर कामरूपिणी कल्प को अपने बांह पर बांध लें स्त्रियां इसे काले धागे से अपने कमर में बाधें। और अन्य सामग्री को नदी में प्रवाहित कर दें।
कुछ युवतियों को विधाता रंग-रूप तो देता है, किन्तु जीवंतता अथवा यौवन की मादकता का मधुर संचार नहीं होता। कुछ में तो रंग-रूप का भी अभाव होता है। जिसके कारण उनके अन्दर हीन भावना आ जाती है, ऐसी कन्याओं के विवाह में भी कई प्रकार की अड़चनों का सामना करना पड़ता है। वहीं विवाहित स्त्रियां यदि यह अनुभव कर रही हों, कि उनका यौवन व आकर्षण अब पति की दृष्टि में ढ़ल गया है या पति उनकी तरफ़ ध्यान न देते हों तो उन्हें कामरूपिणी कामाख्या सौन्दर्य शक्ति दीक्षा व साधना अवश्य सम्पन्न करना चाहियें जिससे उनमें तीक्ष्ण लावण्य, सौन्दर्य एवं आकर्षण का संचार हो सके और वे स्वतः ही सबकी प्रशंसा की दृष्टि में आने लगें।
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