गुरू किसी मानव शरीर को नहीं कहते। गुरू तो वह ज्ञान का पुंज है जो कि व्यक्ति के अंधकार युक्त जीवन में आलोक बिखेरता हुआ उसे जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य की ओर प्रेरित करता है।
जीवन में श्रेष्ठता, उच्चता एवं पूर्णता तक पहुंचने के लिये आवश्यक है कि पहले व्यक्ति अपनी पुरातन, सड़ी-गली मान्यताओं से मुक्त हो, पुरानी पंरपराओं की बेडि़यों को तोड़ डाले और स्वतंत्र हो जाये।
परंतु यह तभी संभव होता है जब एक तेजस्वी सद्गुरू का आशीर्वाद व्यक्ति को प्राप्त हो। तभी वह पुरानी मान्यताओं के दलदल से बाहर आ सकता है और फि़र केवल अपना ही नहीं पूरे समाज का, पूरे समाज का ही नहीं पूरे राष्ट्र का, पूरे राष्ट्र का ही नहीं पूरे का विश्व का नव निर्माण करने में सक्षम हो जाता है।
गुरू का अर्थ है पूर्णता। सिद्ध गुरू का अर्थ है जीवन में सर्वोच्चता। गुरू तो सही अर्थों में ज्ञान का मानसरोवर है जिसमें डुबकी लगाकर कौआ भी हंस बना जाता है। ड्ढ गुरू सभी साधनाओं का मूल तत्व है जिसको स्पर्श कर, जिसको आत्मसात कर शिष्य अपने जीवन को सिद्धि युक्त एवं श्रेष्ठ बना पाता है।
गुरू वह परब्रह्म तत्व है जिसके सानिध्य में रहकर शिष्य या एक साधारण व्यक्ति भी ‘‘शिव’’ बन जाता है और सभी सिद्धियों को प्राप्त करता हुआ जीवन में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर उच्चता प्राप्त कर लेता है।
परंतु इन सबके लिये आवश्यक है कि पहले शिष्य गुरू के ज्ञान का आत्मसात् कर ले, उनके चरणों में बैठ कर स्वयं को लीन कर दे, अपनी आत्मा को उनके आत्म तत्व से एकाकार कर दें।
यह उस पीढ़ी का स्वर्णिम सौभाग्य होता है कि एक जीवित जाग्रत सद्गुरू उनके मध्य में हो और उनको अपने ज्ञान से सराबोर करने की ओर अग्रसर हो। ऐसा हो तो व्यक्ति को सब कार्य छोड़कर उस युगपुरूष के चरणों में अधिक से अधिक समय बिताना चाहिये। यही मानव जीवन की श्रेष्ठता है, उच्चता है और पूर्णता है।
जो मैं तुम्हें ज्ञान, चेतना दे रहा हूं वह कोई पन्नों पर या पुस्तकों में संजो के रखने की चीज नहीं। मैं तुम्हें वह चेतना दे रहा हूं जिससे तुम्हारे दिव्य चक्षु जागृत हो सकें तथा तुम उन समस्त शक्तियों को अनुभव कर सको जिनको हमने देवी-देवता कहा है।
और यह तभी संभव है जब तुम निरंतर गुरू के सम्पर्क में रहो। तभी वह चेतना का प्रवाह बराबर गतिशील रह सकता है और गुरू सम्पर्क में रहना एक बहुत महत्वपूर्ण क्रिया है क्योंकि जब एक सूखी खेजड़ी की लकड़ी भी एक चंदन के सम्पर्क में आ जाती है तो वह साधारण लकड़ी भी अपने आप में सुगंधमय हो जाती है।
गुरू चेतना का पुंज है, एक चेतना का स्रोत है, एक चेतना का सागर है। जब आप उसके निरतंर सम्पर्क में रहते हैं तो धीरे-धीरे वही चेतना आपमें भी व्याप्त होने लग जाती है। उससे जुड़कर आपका भी जीवन सुगंधित और दिव्य हो जाता है।
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