शिष्य ऐसा हो, जो समाज की परवाह नहीं करे, जो चुनौतियों को झेल सके, जिसकी आंखों में तेवर हो। अग्नि स्फ़लिंग हो, जिसके हाथों में वज्र की तरह प्रहार करने की क्षमता हो, और जो सही अर्थों में गुरू चरणों में समर्पित होने की भावना रखता हो।
समर्पण हाथ जोड़ने से नहीं हो सकता और न ही गुरू की आरती उतारने से हो सकता है। समर्पण का तात्पर्य है, कि गुरू जो आज्ञा दे, उसका बिना ना नुकुर किये पालन किया जाये।
जो भी बने अद्वितीय बने, सामान्य जीवन जीना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। सामान्य जीवन जीकर तुम अपना नाम तो डुबोते ही हो, मेरा नाम भी डुबोते हो। कोई देवता या भगवान पैदा नहीं होते, बनते हैं। जन्म आपके हाथ में नहीं था, लेकिन अगर जन्म लेकर आपको गुरू मिल जाये, तो फि़र आप अद्वितीय बन सकते हैं राम बन सकते हैं, कृष्ण बन सकते हैं।
इस ढंग से कोई हीरे नहीं लुटाता, जिस ढंग से मैं ज्ञान आप पर लुटा रहा हूं, यह आपका सौभाग्य है, कि मैं आपको उस जगह तक ले जाना चाहता हूं कि पूरे विश्व में आप विजयी हों, आप सफ़लता युक्त बन सकें और मैं अपने शब्दों पर दृढ़ हूं और मैं आपको अद्वितीय बना रहा हूं।
शिष्य जितना गुरू से एकाकार होता है उतना ही गुरू उसको आगे धकेलता रहता है। शिष्य पर निर्भर है कि वह अपने आप को पूर्ण समर्पित करता है या अधूरा समर्पित करता है।
समुद्र खुद आगे चलकर गंगोत्री के पास नहीं जायेगा, कि गंगा तुम आओ मुझे मिल लो, गंगोत्री से गंगा खुद उतर कर समुद्र तक जायेगी। उस गंगा को जाना है समुद्र तक, यदि गंगा नहीं जायेगी, बीच में सूख जायेगी जब भी समुद्र अपनी जगह को नहीं छोड़ेगा। समर्पण तो शिष्य को ही करना पडे़गा।
जुदाई तो अपने आप में एक तपस्या है, किसी का इंतजार है, अपने आप में पूर्ण साधना है। किसी को याद करना, किसी के चिंतन में डूबे रहना, अपने आप में ईश्वर की साधना है।
अगर भगवान को साक्षात् देखना है, उस प्रभु के सामने साक्षात् नृत्य करना है, उस प्रभु को अपनी आंखों में बसा लेने की क्रिया करनी है। तो स्त्री हृदय ही धारण कर देखा जा सकता है। स्त्री का अर्थ है, जिसका हृदय पक्ष जाग्रत हो, क्योंकि हृदय पक्ष को जाग्रत करने की क्रिया प्रेम है।
प्रेम का तात्पर्य है ईश्वर और जब तक प्रेम के रस में भीगोगे नहीं, ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती, गुरूदेव से साक्षात्कार नहीं हो सकता, और यह अन्दर उतर कर प्रभु से साक्षात्कार करने की क्रिया ही तो प्रेम है।
मैं तुम्हें इसी जीवन में ब्रह्मत्व तक पहुंचा दूंगा, यह मेरी गारण्टी है, पर गारण्टी तब हो सकती है, जब तुम अपने आप को मिटा सको, जब तुम अपने आपको पूर्णता से समाप्त कर सको।
जिसमें समुद्र में छलांग लगाने की हिम्मत है, वह मोती प्राप्त कर सकता है और जो समुद्र के किनारे बैठा रहता है, जो छलांग लगाने की सोचता ही रहता है, लेकिन छलांग लगा नही पाता, बार-बार बैठा रहता है, गुरू उकसावे भी तब भी एक कदम चले ओर बैठ जाये, बार-बार यदि आये कि मेरे पीछे समाज है, पुत्र है, बन्धु, बान्धव है, वे क्या सोचेंगे? क्या होगा? वह व्यक्ति समुद्र में छलांग नहीं लगा सकता।
जहां सुख हो, वहां हमेशा सुख रहे, ऐसा सम्भव नहीं, जहां दिन है वहां रात भी आयेगी। सुख के बाद दुख आयेगा ही, परन्तु आनन्द के बाद आनन्द ही आता है। आनन्द और सुख में मूलभूत अन्तर है, आनन्द के बाद मृत्यु नहीं आ सकती, चिन्ता व्याप्त नहीं हो सकती।
अगर तुम जीवन में आनन्द प्राप्त क रना चाहते हो, तो समर्पित होने की क्रिया सीखनी पड़ेगी, अपने प्राणों को गुरू के प्राणों में समावेश करने की क्रिया सीखनी ही पडे़गी, अपने आप को भुलाना पडे़गा।
तुम्हारे पास जो भी चिन्तायें हैं, दुःख हैं, परेशानियों है, बाधायें हैं, वे सभी तुम्हें मुझको समर्पित कर देनी है।
तुम्हें बिल्कुल खाली पात्र की तरह मेरे पास आना है, खाली कागज की तरह मेरे पास आना है, जिसमें मैं पूर्णत्व लिख सकूंगा, मैं उस पर ब्रह्मत्व लिख सकूंगा। मैं तुम्हें बता सकूंगा। कि जीवन की पूर्णता क्या है? जीवन का आनन्द क्या है? जीवन की सर्वोच्चता क्या है?
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