आज की वर्तमान परिस्थितियों को सामने रखते हुये निरीक्षण करें, तो हम हिन्दुओं को अपने ही देश में, अपने अस्तित्व व वर्चस्व को बनाये रखने के लिए संघर्ष पथ पर गतिशील होना पड़ रहा है। अतएव अगर हमें अपनी ऋषियों की धरोहर श्रेष्ठतम आर्य संस्कृति को इस पुनीत भूमण्डल पर पुनर्जीवित करना है, अगर हमें साधनात्मक शक्ति सम्पन्न होना है, तो हमें दीन-हीन, याचक-भिक्षुक पद्धति का परित्याग करना ही होगा। शक्ति की उपासना करनी होगी, जिससे तीव्रता से पतनशील सनातन धर्म को उठाकर भौतिक व आध्यात्मिक उत्थान की ओर ले जाया जा सके और हमारे व्यक्तित्व का निर्माण हो सकें।
यह समस्त भूलोक पूरी तरह से कर्म प्रधान है, इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाले प्रत्येक जीव को कोई न कोई कर्म करते ही रहना पड़ता है, और यह कर्म करना जीव की विवशता ही कही जा सकती है, उसकी यह विवशता मृत्यु के पश्चात् भी समाप्त नहीं होती। यों तो कर्मों की विवेचना करना, पाप और पुण्य का सही निर्णय करना अनादिकाल से ही एक दुष्कर कार्य रहा है, फिर भी जनहित की भावनाओं को लेकर कर्मों का सक्षिप्त विवेचन करना आज के युग में अत्यन्त ही आवश्यक हो गया है।
साधनाओं में सफलता प्राप्ति का मूल उत्स पुष्ट देह, सचरित्र तथा शांत मानस होता है। इस प्रकार की देह, इस प्रकार का मानस तथा ऐसा ही जीवन प्राप्त करना आज के इस भौतिकवादी युग में अत्यन्त ही दुष्कर कार्य हो गया है। व्यक्ति चाहकर भी अपने आप को पवित्र तथा निर्मल नहीं बना पाता, वह जाने-अनजाने में अनेक कर्म-दोषों से ग्रस्ति होता ही है।
प्रायः सामान्य दृष्टि से देखा जाए, तो जीव जन्म लेते ही कर्म-बन्धनों से जुड़ जाता है, और प्रतिपल नवीन कार्य करना तथा पूर्वजन्मकृत संचित कर्मों के फलों को भोगना जीव की नियति है, और यही नहीं अपितु जीव जिस गर्भ से जन्म लेता है, जिस परिवार में जन्म लेता है, उनके कर्मों का परिणाम भी उससे जुड़ा रहता है, जिसे जीव को भोगना ही पड़ता है। जीव कितने प्रकार के कर्म करता है अथवा वे कर्म, जिनका भोग जीव को भोगना पड़ता है, कितने प्रकार से सम्पन्न होते हैं?
जिन्हें जीव स्वयं को प्राप्त पंच भौतिक देह के माध्यम से सम्पन्न करता है, तथा भू लोक के समस्त प्राणी, जिन्हें देखते हैं और उनसे प्रभावित होते है, ऐसे कर्म ‘दैहिक कर्म’ कहलाते हैं। दूसरे कर्म वे होते हैं, जिन्हें जीव मानसिक रूप से सम्पन्न करता है। इस प्रकार के कर्म दैहिक कर्मों के साथ-साथ ही सम्पन्न किये जाते हैं। इन कर्मों को ‘वैचारिक कर्म’ कहते हैं। और जिसका परिणाम जीव को निश्चित तथा शीघ्र ही स्थूल देह के साथ-साथ आत्मा को भी भोगना पड़ता है।
तीसरे प्रकार के कर्म सर्वथा विचित्र तथा अनोखे होते हैं, विचित्र इसलिए होते हैं, क्योंकि जीव इन कर्मों को न तो देह और न ही मानसिक रूप से सम्पन्न करता है, और इस प्रकार के कर्मों को कोई दूसरा व्यक्ति ही सम्पन्न करता है, जिसका परिणाम भी जीव को भोगना ही पड़ता है। इस प्रकार मनुष्य अनेक प्रकार के कर्म-दोषों से ग्रसित हो जाता है, और जब तक वह इन दोषों और त्रितापों से मुक्ति नहीं पा लेता। तब तक वह जीवन में पूर्ण उन्नति, शांति, सुख, वैभव एवं जीवन की सर्वश्रेष्ठ निधि ‘ब्रह्मानन्द’ को नहीं प्राप्त कर सकता।
पाप-दोषों और त्रितापों पर विजय प्राप्त करने की, इन दोषों को समाप्त करने की एकमात्र सर्वश्रेष्ठ साधना ‘ललिताम्बा त्रिपुर सुन्दरी साधना’ है। यह महाविद्या साधना दस महाविद्याओं में से एक है। महादेवी त्रिपुर सुन्दरी अपने भक्तों के, अपने साधकों के दोषों को दूर करने के लिए प्रति क्षण तत्पर रहती ही हैं।
एक नहीं हजारों योगियों, साधुओं, संन्यासियों, ऋषियों और गृहस्थ साधकों ने इस बात को स्वीकार किया है कि त्रिपुर सुन्दरी की साधना कलियुग में पूर्ण धन, यश, मान, पद, प्रतिष्ठा दिलाने में समर्थ है। त्रिपुर सुन्दरी अनेक रूपों में पूज्य हैं फिर भी जिन रूपों में इनकी आराधना अधिक प्रचलित हैं, वे हैं- बाला, श्री , ललिताम्बा एवं षोडशी।
श्री विद्या-साधना गूढ़ और जटिल है, मूलतः ब्रह्म साक्षात्कार की विद्या है, किन्तु इसके सुलभ रूपों में एक सामान्य गृहस्थ व्यक्ति भी साधना करते हुए केवल अपनी दैनिक समस्याओं से मुक्त होकर भौतिक जीवन सुव्यवस्थित कर लेता है वरन् और आगे बढ़कर उन आध्यात्मिक लाभों को प्राप्त करने का पात्र भी बन सकता है, जिन्हें विशिष्ट योगी ही प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। शक्ति साधना का यही तात्पर्य है कि जो कुछ सामान्य प्रयासों से न प्राप्त कर पा रहे हो, उन्हें पराम्बा शक्ति के स्पर्श से प्राप्त कर लें।
त्रिपुर सुन्दरी व्यक्ति के पूर्व संचित कर्मों को तो समाप्त करती ही हैं, साथ ही व्यक्ति के जीवन में चल रहे वर्तमान समय के दुष्कर्म, जो कि व्यक्ति के लिए ज्ञात-अज्ञात हैं, अपनी सूक्ष्म उपस्थिति से उन कर्मों को न करने देने के लिए प्रायः व्यक्ति को विवश करती रहती हैं, और उसे जीवन में निर्मलता, पवित्रता, श्रेष्ठ तथा निष्पाप जीवन प्रदान करने के साथ ही वह सब कुछ प्रदान कर देती है, जिसका कि वह व्यक्ति आकांक्षी है।
महादेवी त्रिपुर सुन्दरी जिस स्वरूप में विद्यमान हैं, वह अत्यन्त ही गूढ़तम रहस्यों से ओत-प्रोत है। जिस महामुद्रा में वे भगवान शिव की नाभि से निकलते कमलदल पर विराजमान हैं, वे मुद्राएं उनकी कलाओं को प्रदर्शित करती हैं, उनके कार्यों की तथा उनकी अपने भक्तों के प्रति जो भावनाएं हैं, उनका सूक्ष्म विवेचन करती हैं।
सोलह पंखुडि़यों के कमलदल पर पद्मासन मुद्रा में बैठी देवी ‘ललिताम्बा त्रिपुर सुन्दरी साधना’ पूर्ण मातृ स्वरूपा हैं, तथा सभी पापों एवं दोषों से मुक्त करती हुई अपने भक्तों तथा साधकों को सोलह कलाओं से पूर्ण करती हैं, और उन्हें पूर्ण शिवत्व प्रदान करती हैं।
देवी त्रिपुर सुन्दरी अपने चारों हाथों में क्रमशः माला, अंकुश, धनुष तथा बाण लिए हुए हैं। एक प्रकार से देखा जाय तो, महोदवी ललिताम्बा त्रिपुर सुन्दरी की साधना एक पुरूष से पुरूषोत्तम बनने की साधना है, नर से नारायण बनने की साधना है, साधना के मार्ग में आने वाले अवरोधों को समाप्त करने की साधना है। साधक इस साधना को सिद्ध कर, अपने जीवन को उन्नति तथा सफलता के पथ पर गतिशील कर जीवन को श्रेष्ठता व दिव्यता प्रदान कर सकता हैं। इस साधना को सिद्ध करने के पश्चात् दूसरी अन्य साधनाएं सिद्ध करना उसके लिए सामान्य बात हो जाती है।
त्रिपुर सुन्दरी शांत स्वरूप और उग्र स्वरूप दोनों ही स्वरूपों की साधना है। जीवन में काम, सौभाग्य व शरीर सुख के साथ-साथ वशीकरण, सरस्वती सिद्धि, लक्ष्मी सिद्धि, आरोग्य सिद्धि की भी यही साधना है। वास्तव में ललिताम्बा त्रिपुर सुन्दरी को राजराजेश्वरी कहा गया है, क्योंकि वे अपनी कृपा से साधारण व्यक्ति को भी राजा बनाने में समर्थ है।
यह साधना एक दिवसीय साधना है, यदि साधक चाहें तो इस साधना को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाकर जीवन में विशेष सफलता व लाभ अर्जित कर सकते हैं। इस साधना को करने का विशेष मुहूर्त 22 फरवरी ललिताम्बा जयंती या फिर शुक्ल पक्ष के किसी भी शुक्रवार की रात्रि को यह साधना सम्पन्न कर सकते है। यह रात्रिकालीन साधना हैं, इसे रात्रि 9 बजे के पश्चात् 11 बजे के मध्य सम्पन्न करना उचित रहता है। इसमें विशेष आवश्यक सामग्री- सर्वार्थ सिद्धि शक्ति माला, पापशमन गुटिका और ललिताम्बा त्रिपुर सुन्दरी यंत्र और इसके साथ ही लकड़ी के बाजोट पर बिछाने के लिए लाल आसन तथा पहिनने के लिए लाल धोती।
साधक स्नान आदि से निवृत्त होकर पूर्व अथवा उत्तर दिशा में लकड़ी के बाजोट पर गुलाबी आसन बिछा कर, एक ताम्र प्लेट में त्रिकोण रूप में तीन बिन्दियां कुंकुम या केसर से बनाकर, उस त्रिकोण में ‘ललिताम्बा त्रिपुर सुन्दरी यंत्र’ स्थापित करें, तथा धूप, दीप, पुष्प आदि से उसका पूजन करें, इसके पश्चात् चार माला गुरु मंत्र का जप करें, और मानसिक रूप से सद्गुरूदेव से साधना में पूर्ण सफलता प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त करें।
महादेवी त्रिपुर सुन्दरी का मूल मंत्र प्रारम्भ करने से पूर्व हाथ में जल लेकर संकल्प लेकर अपनी मनोकामना व्यक्त करें। तत्पश्चात् ‘सर्वार्थ सिद्धि शक्ति माला’ से 5 माला मंत्र-जप सम्पन्न करें।
साधना काल में साधक को अपना शरीर पूर्णरूप से हल्का होता प्रतीत होगा, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। जैसे-जैसे साधक के पाप-दोष समाप्त होते हैं, उसका समस्त शरीर तथा मस्तिष्क हल्का होने लगता है। यह स्थिति अपने-आप में पूर्णानन्द की स्थिति है।
साधना समाप्ति के पश्चात् साधक 11 दिनों तक साधना सामग्री को अपने पूजा स्थान में रखें, तथा 11 दिन के पश्चात् उक्त सभी सामग्री को किसी नदी अथवा तालाब या कुएं में विसर्जित कर दें।
सांसारिक जीवन में व्यक्ति को अनेक कर्तव्य, धर्म का पालन करना पड़ता है, यही मानव के उत्पत्ति का उद्देश्य भी है कि वह अपने जीवन के सभी कर्तव्यों का पालन करते हुये पूर्णत्व को प्राप्त करें। लेकिन उसे अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने में अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है, जीवन में अभाव बना रहता है, दुःख की काली घटा छटती ही नहीं। जिसके मूल में हमारे कमर्फल ही होते हैं, चाहे वे इस जन्म के हों या पूर्व जन्म के, साधक के जीवन में व्याप्त नकारात्मक शक्ति वृद्धि की ओर अग्रसर ही नहीं होने देती है।
ललिताम्बा त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा ही एकमात्र ऐसी दीक्षा है जिसके द्वारा साधक अपने जीवन के सभी नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक चेतना में परिवर्तित कर सकता है, जिससे जीवन में आर्थिक सुदृढ़ता, सम्पन्नता, प्रेम, आनन्द, सौन्दर्य, सद्चेतना, आकर्षण, सम्मोहन से जीवन पूर्ण होता है,और साधक अपने गृहस्थ जीवन का भली-भांति पालन करते हुये भौतिक और आध्यात्मिक वृद्धि करने में समर्थ होता है, क्योंकि इस साधना, दीक्षा द्वारा साधक के ऊर्जा शक्ति का क्षय होता ही नहीं और ना ही व्यर्थ में व्यय होती है, जिससे साधक के जीवन में धन-धान्य, सुख-समृद्धि की परिपूर्णता बनी ही रहती है।
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