गरू पूर्णिमा प्रत्येक साधक-साधिका के लिये ऐसा महान उत्तम दिवस है, जिस दिन वह अपने गुरू की पूजा अर्चना साधना कर अपने जीवन में ज्योति आलोकित कर सकते हैं। माता-पिता स्थूल शरीर को जन्म देते हैं, परन्तु गुरूदेव उस स्थूल शरीर में ज्ञान, चेतना, पुरूषार्थ की अग्नि भरते है, इसीलिए शास्त्रों में गुरू का स्थान माता-पिता सभी देवी देवताओं से उच्च माना गया है।
गुरू तो प्रेम है, सुगन्ध का झोंका है, ईश्वर का प्रतिबिम्ब है, नमन होने की क्रिया है, समर्पण की क्रिया है, जीवन का लक्ष्य है, जीवन का ध्येय है, जीवन का सर्वस्व है, जिसे तुम साकार अपनी आंखों से देख सकते हो, स्पर्श कर सकते हो और उसके पास बैठकर पवित्रता का बोध कर सकते हो, जिसकी अपूर्व मादकता से उन्मत्त हो सकते हो, धरती से ऊपर उठकर जीवन के वास्तविक स्वरूप को पहचान सकते हो, ईश्वर को भले ही तुमने न देखा हो, पर गुरू के माध्यम से ईश्वर को देख सकते हो।
गुरू पूर्णिमा के दिन गुरू की पूजा अर्चना कर साधक गुरू के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रगट करता है, शिष्य का हित इसी में है कि वह अपने गुरू से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखें, इसके लिये गुरू पूर्णिमा के शुभ दिवस पर गुरू की साक्षात पूजा करनी चाहिये क्योंकि गुरू ही परब्रह्म गुरू ही परम गति है, गुरू ही पराकाष्ठा है, गुरू परम धर्म है, गुरू ही सब कुछ देने में समर्थ होने के कारण अत्यन्त श्रेष्ठ हैं।
शास्त्रों नें गुरू को जीवित देव और सम्पूर्ण व्यक्तित्व स्वीकार किया है जो देवता और मनुष्य के बीच की कड़ी है, गुरू ही ऐसा व्यक्तित्व होता है, जो अज्ञानी साधक से तो परिचित होता ही है, देवताओं से भी उसका पूरा-पूरा सम्बन्ध होता है, इसीलिये साधक को पूर्ण रूप से उसके लक्ष्यों को प्रदान कर देवत्व तक पहुंचाने का आधार गुरू ही होता है।
गुरू केवल शिष्य को ब्रह्म का या इष्ट का मार्ग ही नहीं दिखाता, अपितु उसके जीवन की सभी समस्याओं को दूर कर आने वाली बाधाओं को हटाता है, दुःखों और विपत्तियों में सहायक होता है, रास्ता दिखाता है और उसमे धैर्य बांधता हुआ उस विपत्ति से उसे बाहर निकाल लेता है। गुरू तो वट वृक्ष की शीतल छाया के समान होता है जिसके तले बैठने से अपूर्व शान्ति और आनन्द की अनुभूति होती है, गुरूदेव तो एक वसन्त की तरह होते हैं, जिसे प्राप्त कर व्यक्ति सुगन्ध से भर जाता है, मन में एक नया जोश, एक नयी पुलक और आनन्द की अनुभूतियां ले कर अपने रास्ते पर बिना हिचकिचाहट के आगे बढ़ जाता है।
समाज तो आपके और गुरू के बीच में व्यवधान डालेगा ही, समाज तो आपके और गुरू के बीच बड़े-बड़े पर्दे खड़े करेगा ही, समाज तो बार-बार आपके मन को भ्रमित करेगा ही, इसलिए कि समाज और आपका परिवार यह नहीं चाहता कि आप उससे अलग हटकर अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर सकें, अलग हटकर पूरी क्षमता के साथ खड़े हो सकें, और अपनी आंखों में वह क्षमता, वह चिनगारी, वह रोशनी ला सकें, जिसके माध्यम से आप पूर्ण व्यक्तित्व बन सकें।
और जीवन को समझने का मार्ग गुरू पूर्णिमा है, अपने जीवन को पूर्णत्व प्रदान करने का पर्व, गुरू के चरणों में समर्पित हो जाने का पर्व गुरू पूर्णिमा है। यह गुरू पूर्णिमा ही है, जो पशुवत् जीवन से मुक्ति दिलाकर अहं ब्रह्मास्मि तक पहुंचाने का आधार है, गुरू पूर्णिमा ही है जो साधक और शिष्य को अपने हजार काम छोड़ करके गुरू के चरणों में पहुंच जाने के लिये व्याकुल कर देता है, क्योंकि एक पिता का अपने पुत्र को सर्वस्व प्रदान करने का शाश्वत सम्बन्ध है गुरू-शिष्य का। सद्गुरू तो साधक के जीवन में अपूर्व शान्ति, सुख, सौभाग्य व आनन्द की पूर्ण चेतना प्रदान करता है। जिससे साधक जीवन में नया जोश, नयी पुलक और पूर्णता की अनुभूतियां ले कर जीवन मार्ग पर निरन्तर अग्रसर रहता है।
वास्तव में उसी को साधक या शिष्य कहते है, जो मन से, धन से और अपने सम्पूर्ण तन से उनके चरणों में समर्पित होकर बुलन्दियों को स्पष्ट करे, वही सही अर्थों में शिष्यता कहलाती है, जिन्हें देख कर कृष्ण, राम, गोरखनाथ, शंकराचार्य आदि संन्यासी योगी देवी देवता भी अहसास कर सके कि वास्तव में ही ऐसे ही सद्गुरू होने चाहिये, जो साधक के जीवन में पूर्णता प्रदान कर उसे पुरूषोत्तमय चौसठ कला पूर्ण व्यक्तित्व बना सके।
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