महाकालेश्वर शिव का पूजन, अर्चना, दीक्षा, साधना का विशिष्ट महत्व होता है, लेकिन जो विशेष रूप से महाकाल के बारे में कहा जाता है कि महाकालेश्वर की भूमि की तेजस्विता से ही पाप-ताप, दोष, भूत-प्रेत, पिशाच दोष, अकाल मृत्यु नष्ट हो जाते हैं।
बारह वर्षों में सम्पन्न होने वाले सिंहस्थ महाकुंभ के महत्व से भारतवर्ष ही नहीं अनेक देश जो हिन्दू धर्म और संस्कृति में आस्था रखते हैं, वे भली-भांति इसके महत्व से परिचित हैं, कि बृहस्पति, सूर्य और चन्द्र ग्रह के सिंह और मेष राशि में अवस्थित होना, स्वाती नक्षत्र, शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा और सबसे महत्वपूर्ण इस वर्ष 7-8 मई को अक्षय तृतीया के अक्षय फल प्रदायक दिवस पर महाकाल के दिव्यतम भूमि में शिव स्वरूप सद्गुरूदेव कैलाश जी का सानिध्य शिष्यों के लिये पूर्णतः अमृत युक्त ही है। ऐसे अवर्चनीय क्षिप्रा के अमृतमय तट पर सिंहस्थ महाकुंभ महाकाल अक्षय लक्ष्मी साधना महोत्सव सम्पन्न हुआ। कालजयी भूमि की तेजस्विता साधकों के मुख-मण्डल पर स्पष्ट दिख रही थी। सद्गुरूदेव के शक्तित्व को अपने जीवन में धारण करने व सभी कामनाओं की पूर्ति हेतु सुमंगलमय जीवन प्राप्ति महाकाली चैतन्य शक्ति दीक्षा और पूर्व जन्म के कर्मों के कारण निर्मित काल युक्त विषम व दुर्गति युक्त परिस्थितियों पर कालजयी बनने और जीवन को अविरल रूप से सफलता प्रदायक निर्मित करने हेतु सिहंस्थ महाकाल अक्षय लक्ष्मी शक्ति साधना सम्पन्न की। जिसे प्राप्त कर साधक सिंहस्थ महाकालेश्वर की तेजस्वी शक्ति से युक्त होकर अपने जीवन में शिवमय ऊर्जा, चेतना, विचार, उमंग, जोश, उत्साह से ओत-प्रोत हो सके।
मैंने यह अनुभव किया है कि जो भी श्रेष्ठ साधक हैं, वे अपने जीवन में एक बार अवश्य ही महाकाल साधना व दीक्षा का क्रम पूरा करते हैं। काल पर जो विजय प्राप्त कर ले उसे ही महाकाल कहा गया है, अर्थात् यह कि जीवन में जो भी काल रूपी धनहीनता, रोग, शोक, दुख, असफलता, अकाल मृत्यु की भयावह स्थितियों से मुक्त हो जाना।
इसीलिये ऐसे दुर्लभ योग पर सद्गुरूदेव जी ने अपने शिष्यों को विशेष साधनात्मक दीक्षा प्रदान करने के साथ ही हवन, साधना, अंकन व अमृतमय क्षिप्रा के अमृतमय जल से अभिषेक व श्रेष्ठतम दीक्षा से युक्त किया, सही स्वरूप में गुरूदेव की यही मंशा होती है कि वह अपने शिष्य को शीघ्र ही उसके लक्ष्यों को पूर्णता प्रदान कर सकें और जीवन को आनन्दमय, देवत्वमय सुखों से युक्त कर सके। इस क्रिया में गुरूदेव अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ते, कमी होती है शिष्य की ओर से क्योंकि ऐसे दिव्यतम अवसरो पर भी हम हमारे मन को निर्मल करने का प्रयास नहीं करते। सद्गुरू तो हमें उन देवताओं की चेतना प्रदान कर देते हैं पर हममें ही वह सामर्थ्य नहीं होता है कि उस चेतना को हम सुरक्षित व पवित्र, पावन रख सकें, जिसके कारण हमारी स्थिति पूर्व की ही भांति हो जाती है। इसीलिये इस वर्ष सम्पन्न हुये सिंहस्थ महाकुंभ की तेजस्विता को जीवित और जाग्रत रखने के लिये आप सभी लोग निरन्तर सांसारिक क्रियायें करते हुये साधना को भी जीवन के अभिन्न भावों से युक्त करें, साथ ही साधनात्मक क्रियायें सम्पन्न करते रहें, जिससे जीवन में सिंहस्थ महाकाल अक्षय लक्ष्मी की तेजस्विता बनी रहें।
मैं उन सभी शिष्यों को सद्गुरूदेव निखिल की ओर से विशेष शुभकामनायें देता हूं जिन्हांने इस विशिष्ट शिविर के आयोजन में सहयोग प्रदान किया। निश्चय ही वे सभी शिष्य सद्गुरूदेव निखिल के अन्यतम प्रिय शिष्यों में हैं, जिन्हें ऐसे अद्भुत, आलौकिक, सूक्ष्म रूप से उपस्थित अमृतमय शक्तियों से युक्त सिद्धाश्रम के श्रेष्ठतम योगियों के सानिध्य में सिंहस्थ महोत्सव का आयोजन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सूक्ष्म रूप से उपस्थित सिद्धाश्रम के सभी आगुन्तकों के स्नेहमय आशीर्वाद से निश्चय ही आप सभी आयोजकों का जीवन अमृतमय होगा।
गुरू शिष्य का सम्बन्ध आत्मगत सम्बन्ध है। जो सैकड़ो जन्मों के सम्बन्धों पर आधारित होता है। एक गुरू के समक्ष हजारों शिष्य होते हैं और सद्गुरू प्रत्येक शिष्य पर अमृत वर्षा कर उसे जीवन में श्रेष्ठता की ओर प्रेरित करते हैं। गुरू का कार्य शिष्य की योग्यता, क्षमता, बुद्धि, चेतना और ज्ञान को एक सूत्र में पिरोना है जिससे शिष्य अपनी क्षमता का सर्वाधिक उपयोग कर सके। यह क्रिया तब सम्पन्न होती है जब शिष्य गुरू को पूर्णतः अपने हृदय में स्थापित कर पाता है। प्रत्येक शिष्य का व्यवहार भिन्न-भिन्न होता है। और शिष्य गुरू को अपने प्रकृति, अपने चिंतन, विचार के अनुरूप देखना चाहता है और इस स्थिति में गुरू शिष्य का सम्बन्ध श्रेष्ठ नहीं बन सकता। व्यक्ति को अपनी धारणाओं से हटकर गुरू में जो ज्ञान है उसे देखना चाहिये। गुरू की प्रकृति के अनुसार अपने आपको ढालना चाहिये तभी शिष्य गुरू की चेतना को आत्मसात कर सकता है और गुरू से एकाग्र हो सकता है। गुरू ही वह व्यक्ति है जो अज्ञान के अंधकार से शिष्य को पार ले जाकर जीवन में ज्ञान का प्रकाश देता है और सुज्ञान से ही व्यक्ति के जीवन की बाधाओं, कष्टों का निवारण संभव हो पाता है।
जीवन में जीवन्त जाग्रत बने रहने के लिये आवश्यक है कि शिष्य निरंतर गुरू से सम्पर्कित रहे, गुरू से जुड़े रहने से ही जीवन सद्मार्ग और पूर्णता की ओर अग्रसर होता है, साथ ही व्यक्तित्व में श्रेष्ठता आती है, और उसकी उच्चतम पहचान निर्मित होती है। गुरू से जुड़ाव ना होने पर शिष्य भटकाव की स्थिति में आ जाते हैं व पशुवत् युक्त जीवन बन जाता है। गुरू सानिध्य से ही जीवन के विषाद, दुख, पीड़ा, बाधाओं का समापन हो पाता है, और जीवन स्वच्छ, पवित्र, निर्मल, सुन्दर निर्मित होता है। शिव-शक्ति की चेतनाओं से आपूरित यह महापर्व शिष्यत्व पूर्णिमा के रूप में महामाया शक्ति युक्त तपोभूमि पर महामाया पूर्णत्व शिव शक्ति गुरू पूर्णिमा महोत्सव 17-18-19 जुलाई को श्री अग्रसेन धाम, फुन्डहर रोड, V.W. Canyon Hotel के पास रायपुर में सम्पन्न होगा। जिससे शिष्य गुरू के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर उनका सर्वस्व प्राप्त कर सकता है।
आपका अपना
विनीत श्रीमाली
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