आप साधना से गुजरेंगे तो यह परिणाम घटते हैं इनकी आपको चिन्ता नहीं करनी है, न इनका विचार करना है, न इनकी आकांक्षा करनी है और न ही जल्दी करनी है कि यह कार्य पूर्ण हो जाये, इस जल्दी के कारण ही सब विपरीत हो जाता है। और मेरा अनुभव है कि जितनी जल्दी करोगे उतनी देर हो जायेगी, क्योंकि जल्दी करने वाला मन शांत हो ही नहीं सकता, जल्दी है तो अशांति का कारण है।
और हम सभी दैनिक चर्या में देखते है कि कभी कभी जल्दी में कैसी मुश्किल हो जाती है। रेल गाड़ी पकड़नी है और जल्दी में हैं, तो जो कार्य पांच मिनट में हो सकता था, वहीं कार्य दस मिनट ले लेता है। वस्त्र ही उल्टे पहन लेते हैं फिर निकालो, फिर पहनों अब बटन ऊपर नीचे लग जाते हैं, फिर खोलो, फिर लगाओ, ताला लगाते समय चाबी ताले के अन्दर ही रह जाता है, गौर से देखा तो इस ताले कि चाबी ही नहीं है, गुच्छे में दूसरी तलाश करते है, वह भी नहीं लगती फिर तीसरी तलाशते हैं, इस प्रकार जल्दी करना मन को अस्त- व्यस्त कर देता है और भूल हो जाती है। इसलिये जब छोटी-छोटी बातों में जल्दी करना देर का कारण बन जाता है, तो विराट यात्रा पर तो जल्दी करना बहुत देर करवा देगी।
इसलिये मैं कहता हूं जल्दी-जल्दी न करों, अन्यथा देर होना स्वभाविक है। आप अपने आप तैयार रहो, अनन्त काल में कभी न कभी पूर्णता मिलेगी ही। यदि हम इसे स्वीकार कर लें कि कोई जल्दी नहीं, जब होगा देखा जायेगा तो शायद घटना पहले भी जल्दी ही घट सकती है, पूर्णता मिल सकती है, जल्दी ही सफलता मिल सकती है यदि आप कहें हम अनन्त काल तक के लिये तैयार हैं, तो यह भी जल्दी हो जायेगी।
बस यही विचारों का फेर है कि प्रतीक्षा करने को राजी भी हैं लेकिन जल्दी के लिये, तो यह प्रतीक्षा सच्ची साबित नहीं होगी। क्योंकि अनन्त प्रतीक्षा करना मन का शांत होना है और शांत मन में, शांत चित्त में प्रकाश संभव है। जल्दी की वासना से प्रतीक्षा कैसे निकल सकती है? यही वेदना रोज-रोज की है। हम सबको लगता है कि आनन्द तो हमें भी चाहिये तो हम इस प्रकार आनन्द को पा सकते हैं। ऐसे आनन्द को पा लेने का जो विचार और वासना है, वह तो बंधा है आनन्द के लिये। आनंद परिणाम है उसे तुम वासना मत बनाओ वह घटेगा, आप मौन यात्रा करते जाये वह स्वयं घट जायेगा।
और आप सब इतने-इतने रास्तों पर चल चुके है, इतनी साधनायें कर चुके हैं जिनका कोई हिसाब नहीं और उनमें असफलता पाकर आप हताशा और निराशा में डूब गये हैं। यह हताशा मन में गहरे तक बैठ गयी है। यदि कोई इस हताशा को तोड़ना चाहे तो एक मात्र उपाय है, कोई आप की वासना को, आप की इच्छा को तीव्रता से जगाये और कहे कि ऐसा करने से, इस साधना को करने से यह हो जायेगा तभी आप थोडा हिम्मत जुटाते हैं। लेकिन वही वासना का जगना ही तो सारे उपद्रव की जड़ है। खेल में हम पूर्ण रूप से डूब जाये तो आनन्द घटता है, न कि आनन्द को पाने के लिये खेलने जाये, तो खेल भी सही प्रकार नहीं पायेंगे। आनन्द पाना तो दूर की बात है, आनन्द का ही ख्याल बना रहेगा तो खेल में कैसे ध्यान लगेगा? खेल में कैसे लीन होंगे? यदि लीन नहीं होंगे तो आनन्द कैसे घट सकता है।
बुद्ध के जीवन की सत्य घटना है बुद्ध छह वर्षों तक अथक प्रयासों में लगे रहें कि मोक्ष मिल जाये, शांति मिल जाये, सत्य से साक्षात्कार हो जाये। परन्तु नहीं मिल पाया, अनेक गुरुओं के चरण पकडें गुरु भी थक गये। क्योंकि बुद्ध दृढ़ निश्चय थे, पक्के थे, क्षत्रिय की जिद्द थी कि खोजकर ही रहूंगा। क्षत्रिय की प्रतिज्ञा थी या अहंकार कहो। कि जो चीज है तो वह अवश्य मिलेगी। असंभव नहीं मानता क्षत्रिय, यही क्षत्रिय का अर्थ है। गुरु भी हार जाते गुरु जो आज्ञा देते बुद्ध उसे करके दिखा देते कितना भी कठिन आज्ञा होती वह उसे पूरा करते ही। परन्तु कुछ भी नहीं हुआ वह गुरु भी थक गये। उन्होंने कहा हम भी क्या करें। ऐसा नहीं था जो बताया गया था उससे उन गुरुओं को न हुआ हो, उन विधि से वे आनन्द को उपलब्ध हुये थे। परन्तु कारण था कुछ उस गुरु को हुआ होगा क्योंकि उसने क्रिया की थी, बिना लक्ष्य के बिना काल के, बुद्ध का लक्ष्य प्रगाढ़ था। जल्दी मोक्ष मिल जाये, आनन्द मिल जाये परन्तु लक्ष्य बाधा बन रहा था।
और एक दिन उन्होनें थक कर निश्चय किया कि कुछ भी नहीं करूंगा। कुछ मिलने वाला नहीं है। प्रयास चरम तक जो पहुँच गया था। छोड़ दिया और सो गये वृक्ष के नीचे, अनेक-अनेक जन्मों में उनकी पहली रात थी, जो वह बिना किसी योजना के बेफिक्र सोये और जब कोई इस प्रकार सो जाता है कि जिस रात सुबह की कोई योजना न हो, तो समाधि घटित हो जाती है। सुषुप्ति समाधि बन जाती है। बुद्ध उस रात सो गये मृत व्यक्ति की तरह। जीवित थे मौत घट गयी, सुबह पांच बजे आंख खुली तो बुद्ध ने कहा मैने आंख नहीं खोली थक गई होगी। रात भर बन्द रहते-रहते। विश्राम पूरा हो गया और पलक खुल गयी, शून्य था भीतर और उस शून्य में बुद्ध ने रात का अंतिम तारा डूबता हुआ देखा और उस अंतिम तारे को डूबते देखकर बुद्ध परम ज्ञान को उपलब्ध हो गये।
बुद्ध ने कहा मैने प्रथम बार बिना किसी उद्देश्य के, बिना किसी लक्ष्य के आकाश में तारे को डूबते देखा निष्प्रयोजन, कोई प्रयोजन नहीं था। देख लेता तो भी चलता, न देखता तो भी चलता। आंख खुली थी इसीलिये तारा दिख गया। डूब रहा था, डूबता रहा और आकाश तारों से खाली हो गया। इधर में स्वयं भीतर से शून्यता उधर आकाश तारों से शून्य हो गया, दो आकाशों का मिलन हो गया। और बुद्ध ने कहा जो खोज-खोज कर न पाया, वह बिना खोजे उस रात पा गया, जो दौड कर नहीं पाया, वह उस रात बैठे-बैठे पा गया, पडे़-पडे़ मिल गया, श्रम से जो नहीं मिला, उस रात विश्राम से मिल गया।
पर क्यों मिला वह? आनन्द जब हम भीतर से शून्य होते है उसका सहज परिणाम है। नवरात्रि पर्व के पावन पर्व पर आप भी अपने आत्म चक्षु जाग्रत ज्ञान और कर्म शक्ति के माध्यम से उसी परम तत्व को प्राप्त कर चेतनावान बन सको और सही मायने में आनन्द को प्राप्त कर सको यही आपको आशीर्वाद देता हूं, मंगल कामना करता हूं——!
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