प्रेम को हमने सही प्रकार से समझा नहीं है इसे उचित रीति से करने की कला को जानना जरूरी है क्योंकि यह मनुष्य जीवन प्रेम के आकर्षण में बंधकर ही जीया जा सकता है प्रेम जीवन शक्ति का आधार है वैसे ही जैसे हिमालय का शिखर रूप गौरी शंकर है। प्रेम का अर्थ है ‘समर्पण’ जहाँ पर दो मिटते है और एक बचता है जहां प्रेमी-प्रेमिका, गुरु-शिष्य, भक्त और भगवान, अपनी सीमायें खो देते है जहाँ दोनों एक दूसरे में खो जाते है उनमें कोई भी कामना नहीं रह जाती वे दोनों एक हो जाते है, प्रेम अद्वैत है।
लेकिन हम सामान्य जीवन में देखते है कि अधिकतर लोग वस्तुओं के प्रेम में अटक जाते है, धन के, भवन के, सम्पदाओं के और इन वस्तुओं का प्रेम हमारे लिये धोखा होता है। और धन, भवन, सम्पत्ति यह सब तुम्हें समर्पित है क्योंकि तुम इन्हें किसी भी प्रकार से प्रयोग कर सकते हो, धन तुम्हें कभी आपत्ति नहीं करता कि तुम मुझे इस प्रकार से प्रयोग न करो, इस प्रकार से प्रयोग करो, सम्पत्ति को तुम क्रय-विक्रय कर सकते हों वह भी तुम्हें कभी आपत्ति नहीं करती है कि तुम मुझे क्रय या विक्रय न करो लेकिन यह वस्तुओं का प्रेम तो जड़ वस्तुओं से प्रेम करना हुआ, यदि जो वस्तु तुमने आज किसी दूसरे को विक्रय की तो वह वस्तु उसको भी उतना ही समर्पित हो जायेगी और धन भी जिसके पास है उसी के लिये समर्पित है, यदि आज जो धन तुम्हारे पास है और तुम उसका किसी भी प्रकार से प्रयोग करो तो वह हो जायेगा लेकिन वही धन कल किसी अन्य के पास हो तो वह धन उसी को समर्पित होगा तथा वह उसे किसी भी प्रकार से प्रयोग कर सकता है। अतः धन इत्यादि वस्तुओं से प्रेम करने से अहंकार बढ़ता जाता है क्योंकि उन्हें हमारा समर्पण नहीं चाहिये, उनका समर्पण हमें होता है, हमारा अहंकार वस्तुओं के संग्रह के कारण बढ़ता जाता है।
सच्चे प्रेम में अहंकार मिट जाता है लेकिन यदि हम जितनी सम्पत्ति संग्रह करेंगे उतना अहंकार हमारा बढ़ता ही जाता है जब दो व्यक्ति एक दूसरे को सच्चा प्रेम करते है तो वह धीरे-धीरे एक जैसे होते जाते है। उनकी आदतें, उनका ढ़ंग, उनका व्यवहार यहां तक कि उनका स्वरूप भी एक जैसा होता जाता है। और जो व्यक्ति वस्तुओं को प्रेम करता है वह वस्तुओं जैसा हो जाता है। वह मनुष्यों से प्रेम नहीं कर सकता क्योंकि प्रत्येक मनुष्य से दूसरे मनुष्य का संबंध होने पर उनकी वस्तुओं में भी भागीदार बनने का भय होता है क्योंकि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से सम्बंध बनने पर उससे धन या अन्य वस्तुओं की मांग कर सकता है लेकिन पहला व्यक्ति धन व वस्तुओं से प्रेम के कारण ही मनुष्य से घृणा करता है और उसे वस्तुओं के लिये मना कर देता है।
मनुष्यों का आपस में प्रेम करना वस्तुओं से प्रेम करने के इस स्तर से ऊंचा स्तर है क्योंकि यह प्रेम अपने ही समान आत्मा से एवं चैतन्य व्यक्ति से करना होता है। जो व्यक्ति मनुष्य से प्रेम करता है वह वस्तुओं से प्रेम नहीं करके उन्हें दूसरों को आसानी से दे सकता है क्योंकि जिसने मनुष्यों को प्रेम कर लिया वह जान लेता है कि वस्तुयें तो बेजान है। तथा मनुष्यों का प्रेम जीवन्त है। वस्तु या धन एक बार समाप्त होने पर वह नष्ट हो जाता है तथा उसे दोबारा अर्जित कर लेते है लेकिन मनुष्य से जितना प्रेम करेंगे तो प्रत्युतर में अधिक-से-अधिक प्रेम तो मिलेगा ही। और यह संसार प्रेम आकर्षण के सम्बन्धों की डोरी से बंधा हुआ रिश्तों की बागडोर से सिंचित होता हुआ गतिशील है।
और व्यक्ति वस्तुओं से तभी प्रेम करता है जब वह मनुष्यों का प्रेम अर्जित नहीं कर पाता या मनुष्यों से प्रेम करने में सफल नहीं हो पाता, जीवन में जब मनुष्यों से प्रेम मिलना आरम्भ होता है तो मनुष्य वस्तुओं से प्रेम करना छोड़ देता है। वस्तुओं के प्रति उसकी त्याग की भावना बनती है क्योंकि उसे मनुष्य से प्रेम जो मिला। वह अपनी प्रिय वस्तुओं को अपने प्रेमी पर लुटाता है लेकिन मनुष्यों के प्रेम में दोनों तरफ अहंकार होता है वे एक-दूसरे के प्रति विचार रखते है कि यह मुझे समर्पित हो जाये तथा वह स्वयं बचा रहे। दोनों यही विचार रखते है कि वह बच जाये तथा मेरी प्रेमिका, मेरा भगवान, मेरा शिष्य, मेरा गुरु केवल मेरा ही हो जाय मिट जाये, झुक जाये, समर्पित हो जाये। ऐसा प्रेम दुविधा पूर्ण हो जाता है। प्रेमी व्यक्ति को हमेशा अशांत मिलेगा, उसकी अशांति भी अपने प्रेमी के लिये ही होगी क्योंकि सभी दूसरे को झुकाने के लिये प्रयासरत है स्वयं झुकने के लिये कोई तैयार नहीं है, न ही कोई मिटना चाहता है और समर्पण किये बिना प्रेम पूर्ण नहीं होता, बिना मिटे परम अनुभूति नहीं होगी।
अगर कभी प्रेम किया है तो उससे दोनों चीजें मिलती है। प्रेम करने वाले सभी व्यक्ति जानते है कि प्रेम करने पर सुख भी मिलता है और दुःख भी। यहीं से ईश्वर की तरफ झुकाव का मार्ग आरम्भ होता है कोई व्यक्ति अत्यधिक प्रेम करता है अपने पुत्र को लेकिन बडा होने पर वही पुत्र पिता को दुत्कार देता है। दुःख देता है कोई पति अपनी पत्नी को अत्यधिक प्रेम करता है लेकिन वह भी बेवफा निकल जाती है तो उसे दुःख पहुंचता है। और प्रेम में दुःख पाने पर व्यक्ति इस दुःख से छुटकारा पाने के लिये छोडता है वस्तुओं से प्रेम, प्रेमी से प्रेम तथा एक ऐसे सच्चे व्यक्ति के मिलने की चाह अपने मन में संजोये रख कर तलाशता रहता है। यहां पर गुरु की आवश्यकता होती है जो उसे सही मार्ग पर ईश्वर की तरफ ले जा सके तथा गलत मार्ग से हटा कर अपना सानिध्य प्रदान करें।
लेकिन गुरु भी सबसे पहले उससे उसका समर्पण ही चाहता है कबीर भी कहते है- कबीरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं। शीश उतारे भुई धरे, वो पयसे घर माहिं।। गुरु शिष्य को समझाने की कोशिश करता है कि यह जो दुःख तुम्हें प्राप्त हुआ है इसका कारण तुम स्वयं हो तुम्हारा अहंकार ही इसका कारण है। यह कलह, यह विवाद तुम्हारे प्रेम के कारण नहीं थी। यह अहंकार के कारण थी। क्योंकि वह लडाई अहंकार के कारण अपनी बात मनवाना चाहते है। तुम अपनी बात बडी रखना चाहते थे, पत्नी स्वयं को सही बताती थी और तुम अपने आपको। अतः दोनों का अहंकार आडे आता है, दोनों चाहते थे कि दूसरा झुक जाये, दूसरा समर्पण कर दें लेकिन अहंकार के कारण कोई झुक नहीं पाया। और दूसरा सदैव मांग करता है कि समर्पण करो लेकिन वह अहंकार शून्य परम पिता परमेश्वर कभी समर्पण की मांग नहीं करता कि तुम मुझे समर्पण करो और जहां मांग नहीं है वहां समर्पण स्वतः हो जाता है।
जिस व्यक्ति ने प्रेम किया है वह अच्छी तरह अनुभव करता है कि प्रेम करने में ही सच्चा सुख अनुभव होता है और जानता है कि जो बाधा थी वो मेरे अहंकार के कारण ही थी दूसरे मनुष्य भी तो मेरे जैसे ही है। मैं अहंकारी हूं तो वे भी अहंकारी हैं। अतः व्यक्ति ऐसा कुछ खोजता है कि मैं अपने अहंकार को कहां विसर्जित करूं? उसे पिपासा होती है ईश्वर को पाने की जहां कोई मांग नहीं होती वहां केवल प्रेम ही प्रेम होता है। वह झुकने के लिये भी नहीं कहता उसके सामने तो सब झुके ही होते है। वह सभी से महा धनवान, महा बलवान, महा शक्तिशाली, परम एैश्वर्यशाली आदि आदि है। वह विराट है, वह महा करूणावान है। वह आकाश है, हमारा सिर सदैव से उसके चरणों में ही रहता है। वह जानता है कि यह सब मुझसे मिलने के लिये ही जन्मों-जन्मों से प्रयास करते रहे हैं। हम कितने भी बडे हो जाये परन्तु उस ईश्वर से कभी भी बडे नहीं हो सकते किसी भी दशा में।
और ईश्वर मिल नहीं पाता, मनुष्य खोजता रहता है उसे मानसरोवर में, हिमालय में, तीर्थों में, मंदिर-मस्जिदों में। ईश्वर को खोजने से कभी भी ईश्वर को किसी ने नहीं पाया। ईश्वर तो छुपा हुआ है, यदि वह प्रत्यक्ष होता तो शायद उसके साथ भी तुम विवाद कर बैठते। उसके सामने भी तुम्हारा अहंकार सिर उठाकर खडा हो जाता अतः उसे पाने के लिये केवल मात्र एक उपाय है स्व का विसर्जन, अर्थात् अहंकार का विसर्जन, पूर्ण समर्पण। जब तुम्हारा अस्तित्व समाप्त हो जाता है वह स्वतः मिल जाता है, प्रेम का पुष्प खिल उठता है और तुम्हारे भीतर प्रकाश हो जाता है।
प्रेम करना भी एक कला है। यह प्रेम, यह प्रीति, जड़ वस्तुओं से कभी न करना अन्यथा तुम भटक जाओगे। मनुष्यों से प्रेम करना, चैतन्य से ही प्रेम करना, तुम्हारे हृदय को एक सुख प्रदान करेगा और एक तृप्ति देगी परन्तु यह प्रेम की प्यास कभी नहीं बुझेगी। यह अधिक और अधिक बढ़ती जायेगी और इतनी बढ़ेगी कि ईश्वर का मिलन अवश्य होगा। यह प्यास, यह मिलने की तडप, प्रथमतया उठती है तो गुरु से उठती है गुरु के बिना नहीं उठ सकती। जब तुम एक सच्चे गुरु से मिलते हो तो तुम उसके प्रेम पाश में बंध जाते हो। तुम्हें उसमें कुछ अलौकिक, कुछ नया, कुछ विशेष दिखाई पड़ता है जो किसी अन्य में दिखाई नहीं देता औ जो कुछ भी शिष्य को गुरु में दिखाई देता है उसे वह वाणी से नहीं समझा सकता। वह ईश्वर की झलक उसमें देखता है और ईश्वर का वर्णन करना वाणी से संभव नहीं है। वह तो अनुभव से ही जाना जाता है।
प्रत्येक प्रेमी अपनी प्रेमिका को प्रेम करता है तो उसके सामने विश्व सुंदरी भी उसे सुंदर नहीं दिखाई पड़ती और प्रेमी विश्व सुंदरी को भी नकार देता है अपनी प्रेमिका के सामने। वह कहता है कि वास्तव में विश्व सुंदरी तो ये है वह नहीं। सभी आश्चर्य से भर उठते है कि ये उसके पीछे इतना दीवाना क्यों है अथवा कोई प्रेमिका अपने प्रेमी के पीछे इतनी दीवानी क्यों है? जब तुम यह देखते हो तो सोचते हो कि जरूर कुछ गड़बड़ है। इसको कुछ खिला-पिला दिया है अथवा इसको कोई ताबीज आदि बांध दिया है। इसमें हमें तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता फिर ये इतनी पागल क्यों है। इस गुरु ने भी इसे सम्मोहित कर दिया है, ऐसा लगता है। शिष्य गुरु के बारे में कुछ भी नहीं समझा पाता बस वह तो कुछ विशेष देखता है और प्रेम कर बैठता है और जैसे-जैसे प्रेम बढ़ता जाता है वैसे-वैसे ईश्वर की तरफ तुम्हारी तडप बढ़ती जाती है यही गुरु मंत्र है।
जैसे-जैसे तुम गुरु से अधिक प्रेम करोगे वैसे-वैसे ईश्वर के प्रति विरह की अग्नि जलती है, और गुरु तुमसे तुम्हारा सब कुछ छीन लेता है, तुम्हारा सुख-चैन, नींद, प्रेम आदि सब कुछ। जिससे तुम्हारे प्राण जकड जाते है और तुम्हारे प्राण तडपते है बिन पानी के मछली के समान क्योंकि गुरु तुम्हें पहली बार सही राह पर गतिशील करता है। गलत प्रेम से निकाल कर सही प्रेम की रेत पर डाल देता है। यह विरह, ये तडप जो मीठी पीड़ा देती है उससे छूटने का कोई उपाय नहीं सूझता। इस विरह में व्यक्ति गाता है, रोता है, तथा इस गाने में, इस रोने में उसे अंदर ही अंदर एक आत्मिक तृप्ति का अनुभव होता है, इस आत्मिक तृप्ति में उसे आशा जगती है उसे सही मार्ग मिल गया, उसे भान हो जाता है कि उसे ईश्वर मिलेंगे उसे सही मार्ग बताने वाला गुरु जो मिल गया। जब व्यक्ति सही राह पकड़ लेता है तो मंजिल पर भी पहुंच ही जाता है। मंदिर का शिखर बड़ी दूर से दिखाई पड़ जाता है लेकिन उसमें स्थापित भगवान की मूर्ति का दर्शन तो वहां जाने पर ही संभव है, मंदिर का शिखर देख कर ही भरोसा होने लगता है कि मंजिल पास ही है थोडी ही दूर की यात्रा शेष है शीघ्र ही दर्शन होना संभव होगा।
उस मंदिर की चोटी के देखने से ही जैसे विश्वास हो जाता है कि भगवान पास ही है उसी प्रकार गुरु के मिलने पर भी भरोसा हो जाता है क्योंकि उस ईश्वर की झलक (शिखर रूप में) गुरु में दिखलाई पड जाती है। गुरु मिल गया तो एक सहारा मिल जाता है जिसने हमारा हाथ थाम लिया है। हम निश्चित हो जाते है कि ईश्वर अब कितना भी छिपकर बैठ जायें परन्तु गुरु को उसकी पहचान है और वह दर्शन अवश्य ही करा देंगे यह सब गुरु के प्रति प्रेम से ही हो सकता है। गुरु का मतलब इतना है कि तुम जिसकी तलाश में हो गुरु उसे पा गया होता है जिसे तुम पा लेना चाहते हो वह गुरु की सम्पदा हो गयी है। तुम अभी बीज हो और गुरु एक वृक्ष बन चुका होता है। यह बीज और वृक्ष की दूरी है, वह तुम्हारे स्वयं के उठने से, तुम्हारे स्वयं के चलने से ही समाप्त होगी।
गुरु के पास वह व्यक्ति जाता है जो यह समझता है कि मैं अज्ञानी हूं जिसे यह अहसास हो जाता है वही गुरु का द्वार खटखटाता है जो स्वयं को निपट अज्ञानी मानता है वहीं गुरु चरणों का पुजारी होता है। अध्यात्म की यात्रा पर अकेले निकलना तो थोड़ी मुश्किल होगी, कोई तो बताने वाला चाहिये जिसने अध्यात्म में पूर्णता हासिल की हो जो तुम्हें रास्ता बता दे। जैसे एक छोटे बालक को चलने के लिये एक बड़े आदमी का सहारा चाहिये जिसकी वह उंगली पकड कर चल सकें। इसी प्रकार अध्यात्म पथ पर भी कोई-न-कोई अवश्य चाहिये और सद्गुरु उंगली नहीं पकड़ाते वह तो देख लेते है संभावना शिष्य में और मजबूती से पकड़ लेते है हाथ तथा श्रद्धा, विश्वास एवं समर्पण को जन्म दे देते है शिष्य के हृदय में।
सामान्यतया जीवन में अध्यापक को भी गुरु कहा जाता है। लेकिन गुरु और अध्यापक में फर्क है। अध्यापक तुम्हें पढ़ाता है और तुम्हारे अंदर पुस्तकों-पोथों का ज्ञान भरता रहता है। अपना ज्ञान तुम्हें देता रहता है इससे तुम जानकार बन जाते हो, ज्ञानी हो जाते हो पण्डित बन जाते हो और एक अवस्था आती है कि तुम भी एक अध्यापक के समान कार्य करने लगते हो, अन्यों को पढ़ाने लगते हो परंतु ध्यान की ओर कभी कदम नहीं बढ़ा पाते।
और गुरु देता है-ध्यान करने की क्रिया, ध्यान करना गुरु की ही क्रिया है गुरु तुम्हें मिटाता है अपने शक्तिपात से, स्पर्श से तथा तुम्हें विवश करता है ध्यान के लिये, सोचने-विचारने के लिये, वह जीवन में ऐसी विसंगतियां उत्पन्न करता है कि तुम खाली हो सकों जो कुछ तुम्हारे भीतर ज्ञान है जानकारी है उसे मिटाता है। तुम्हें खाली पात्र बनाता है जिसमें अमृत भरा जा सके। गुरु के पास आने से तुम इसीलिये डरते हो जिसे तुम अपनी सम्पत्ति मान बैठे हो वह सब ज्ञान विचार कूडे के ढेर जैसा है। गुरु उसी को तुम्हें फेंक देने के लिये कहता है और तुम उसे फेंकने से कतराते हो और जब तक अपने मन रूपी पात्र को खाली नहीं करोगे, उसे धो-मांजकर शुद्ध नहीं करोगे, पवित्र नहीं करोगे, पक्का होने के लिये अग्नि में पकोगे नहीं तो तुम्हारा पात्र अशुद्ध एवं कच्चा ही रह जायेगा और परमात्मा द्वारा दिये गये वरदान, अमृत को तुम आत्मसात नहीं कर पाओगे और आनंद नहीं उठा पाओगे।
और ज्ञान तो हमें अध्यापक भी करा देते है और जिस स्थिति में हम है उसी स्थिति में करा देते है उसके लिये हमें कोई बडी तैयारी नहीं करने पड़ती परन्तु मुश्किल यहीं है कि ध्यान में तभी उतरा जा सकता है जब हमारी आंतरिक व बाहरी तैयारी हो। जब हम मिट ही जायें ध्यान में ‘मैं’ मिट जाता है। जब अहम पूर्ण रूपेण मिट जाता है तो हमारा वास्तविक स्वरूप निखर आता है। ध्यान में हम अपने ही स्वरूप से परिचय पाते है। अनेक जन्मों की यात्रा करते-करते हमारी साधना ध्यान की ओर अग्रसर नहीं हो पाती क्योंकि हम ग्रामोफोन की सुई की तरह अटक जाते हैं। पहले भी अनेक जन्मों में हमारी साधना पथ की यात्रा अटकी है और तुम अब भी अटके हुये हो वहीं के वहीं। और यह सुई जब अटक जाती है तो ग्रामोफोन से बार-बार एक ही आवाज निकलती रहती है वही एक शब्द हम निकालते रहते है। उससे आगे नहीं बढ़ पाते जब तक कि कोई आकर उस सुई को उठाकर दोबारा नहीं रख दें। इसी प्रकार हमारे जीवन में भी जब पूर्ण गुरु का आगमन होता है तो वह भी हमारे जन्मों-जन्मों की अटकी हुई साधना रूपी सुई को बाहर निकालता है। यह उसकी करूणावशात् कृपा ही है।
जिसकी सुई किसी भी जन्म में अटकी रह जाती है अर्थात् उसकी साधना अवरूद्ध हो जाती है। तब वह इस सांसारिक विश्वविद्यालय में दोबारा जन्म लेकर अपनी साधना रूपी अटकी हुई सुई को निकालने आता है तथा जो पिछले अनेक-अनेक जन्मों में अनुत्तीर्ण हो चुका हो कोई आवश्यक नहीं कि हर जन्म में कोई सद्गुरु मिल जाये और हमें मार्ग दिखा दें जो हमें आगे बढ़ा सकें। जो उत्तीर्ण हो जाते है वहीं बुद्ध, राम, कृष्ण व महावीर बन जाते है। अमृत की प्राप्ति पर वे फिर इस संसार सागर में नहीं आते क्योंकि अमृत की प्राप्ति के लिये ही तो यह जीवन यात्रा होती है। मंजिल मिल जाने पर फिर कहां जाना? इस संसार में करने के लिये कुछ भी नहीं बचा तो फिर आयेंगे किस लिये? अतः स्वयं ही तलाशना होगा ऐसा व्यक्तित्व जो हमें ईश्वर का दर्शन करा दें। ऐसे गुरु का हमें संग करना होगा जो पूर्ण हो। और पूर्ण गुरु के पास होना ही, समीप होना ही पर्याप्त है।
वैज्ञानिक कहते है – कैटलिटिक एजेन्ट होता है, जिसकी उपस्थिति में घटनायें घट जाती है, बिना उसके सहयोग के। गुरु कुछ भी नहीं करता। यदि तुम उसकी उपस्थिति में स्वयं उपस्थित हो जाओ, उसकी भाव तरंगों में खा जाओ उसके भावों में बह जाओ तथा अपने हृदय के तारों को उसके हृदय के तारों से मिला दों तो वह शब्द हो जाता है जिसकी प्रतीक्षा तुम्हें जन्मों-जन्मों से है।
और इस सत्संग का केवल एक ही अर्थ है तुम समर्पण कर दो। सब कुछ उसी पर छोड दो अच्छा या बुरा। उसके दर्शन से ही भ्रम तिरोहित हो जाते है बस तुम पास आकर प्रेम से निहार लो गुरुदेव को। गुरु को निहारने से अपना प्रतिबिंब ही गुरु में दिखाई पड़ता है। गुरु तो एक दर्पण की भांति होता है उसमें हम अपना ही प्रतिबिंब देखते है।
गुरु स्वयं मिट गया होता है अतः वह एक शांत झील की भांति है जिसमें हम अपना प्रतिबिंब देखते है। गुरु दर्पण बन जाता है शिष्य का और शिष्य आत्म बोध को प्राप्त हो जाता है।
– सद्गुरूदेव श्री कैलाश चन्द्र श्रीमाली
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,