यह हमारे हृदय में स्थित उस सूक्ष्म यंत्र की भांति है जो प्रति क्षण चैतन्य रहता है तथा इससे सूक्ष्म किरणों का प्रसारण होता रहता है। यह किरणें हमे विचारों के रूप में प्राप्त होती है तथा बिना किसी वाणी के हमें सभी कुछ समझा देती है। यह इतनी सूक्ष्म होती है कि इसको अनसुना करना हमारे लिये बडा ही सरल है। यह केवल चेतना ही प्रदान कर सकती है। विरोध नहीं।
कोई भी बुरे कार्य करने वाला अपनी अन्तरात्मा की आवाज को दबा कर ही किसी भी बुरे कार्यों में सलंग्न होता है ऐसा नहीं है कि उसे अन्तरात्मा ने आगाह नहीं किया हो यह ईश्वर प्रदत्त सूक्ष्म यंत्र प्रत्येक को यह चेतावनी अवश्य दे देती है यह कर्म मत करो यह उचित नहीं होगा और उस बुरे कार्य को करते समय हमारे हाथ-पांव का कंप-कंपाना, शरीर का पसीने-पसीने होना आदि अनेक प्रकार की अनुभूतियों से मनुष्य को आगाह करती रहती है।
परन्तु मनुष्य के सात्विक क्रिया कलापों की कमी तथा पापों के कारण अन्तरात्मा मलिन हो जाती है तथा इसकी ध्वनि मनुष्य के क्रोध, कलहों, दोषों, लोभ-लालच के वशवर्ती होकर दब जाती है तथा मनुष्य बुरे कर्मों को करने की ओर अग्रसर होता है। इसके अलावा मनुष्य के पवित्र आचरण तथा शुद्ध सात्विक क्रिया कलापों के अपनाने पर यह अधिक चैतन्य होकर बुरे कामों का विरोध प्रकट हमारे अन्तर में कर देती है।
झूठ बोलने से भी यह मूक वाणी मन्द पड़ जाती है यहां तक कि समाप्त सी हो जाती है मनुष्य के कुटिलता पूर्ण व्यवहार के कारण भी अन्तरात्मा का सत्यानाश हो जाता है। उनकी वाणी तथा आचरण में भिन्नता होती है वह कहते कुछ है लेकिन करते कुछ और है।
सभी को अपनी वाणी, अपने विचारों, तथा अपने कार्यों का विश्लेषण अवश्य करते रहना चाहिये, वाणी से तुमने आज कुछ झूठ अथवा किसी का दिल तो नहीं दुखाया क्योंकि झूठ बोलने से तुमको कोई लाभ तो नहीं मिलता अपितु तुम अपनी अन्तरात्मा को ही निस्तेज कर लेते हो और असत्य को अपने व्यवहार में अपनाकर तुम्हें इसकी आदत पड़ जाती है जिससे यह तुम्हारे विचारों में रच-पच जाती है तथा तुम्हारे कार्यों पर इसका प्रभाव पड़ना शुरू हो जाता है तथा दैनिक जीवन में भी तुम्हारे कार्यों में इस के कारण अवरोध आते हैं कोई तुम पर विश्वास नहीं कर पाता और इस प्रकार कई जन्मों तक आप दुःख पीडा कष्टों में पडे रहते है।
तुम अपने स्वार्थवश अन्यों को विश्वासघात करते हो, धोखा देते हो लेकिन वास्तविक सत्यता तुम देख नहीं पाते। तुम्हें पता भी नहीं होता कि तुम क्या कर रहे हो लेकिन बुरा करने के पश्चात् तुम्हारी अन्तरात्मा तुम्हें अन्दर ही अन्दर अवश्य कचोटती है, तब तुम अवश्य सोचते हो कि तुमने यह क्या किया तुम शोकाकुल हो जाओगे तथा तुम्हारा मन घोर पश्चाताप में डूब जायेगा तभी तुम अपने मन को पवित्र बना सकोगे लेकिन तुम्हें अपनी अन्तरात्मा को एक वचन भी देना पडेगा कि मैं ऐसा बुरा कार्य कभी नहीं करूंगा।
आज-कल रिश्वत लेना आम बात मानी जाती है तथा इसका दूसरा नाम सुविधा शुल्क लिया जाने लगा है यदि किसी कर्मचारी से पूछे कि आपका वेतन क्या है तो उत्तर मिलेगा कि 1500/- रूपये लेकिन आय 3000/- रूपये है यह अतिरिक्त आय रिश्वत ही है, इस क्रिया-प्रतिक्रिया के नियमों को, संस्कारों को तुमने भुला दिया है।
लेकिन इन सब कर्मों का दंड तुम्हें अवश्य मिलता है यदि तुम शुद्ध कर्मों से अपनी आत्मा को शुद्ध करोगे तो तुम एक शान्तिप्रद जीवन बिताओगे तथा शान्ति पूर्वक इस संसार से प्रयाण कर सकोगे। यह ईश्वर प्रदत्त नियम है इससे किसी का बचना सम्भव नहीं है इसी क्षण से तुम स्वयं को बदलो तथा ईमानदारी व सत्य का आचरण अपनाओ।
अन्तरात्मा तुम्हें बुरा कार्य करते समय सचेत करती है तथा हृदय में तीव्र वेदना का एहसास होता है यह स्पष्टता अपनी अन्तरात्मा की सूक्ष्म आवाज ही हमें रोकती है कि मित्र ऐसा न करो तुम इसके कारण दुःखी हो जाओगे और जो इसकी आवाज को सुनकर आचरण करता है वह बाद में भी सुख का अनुभव करता है अन्तरात्मा हमें मित्रवत सचेत ही नहीं करती अपितु एक न्यायाधीश की भांति दंड भी देती है वह सदैव धर्म के अनुसार चलने में प्रेरक का कार्य करती है।
यदि किसी कार्य के पश्चात् तुम्हारा दिल कांपने लगे, तुम्हें शर्म आने लगे, तुम्हारी आत्मा तुम्हें पीडित करने लगे तो तुम स्वयं निर्णय कर लेना कि तुमने बुरा कर्म किया है और यदि तुम्हारा मन प्रसन्नता से तथा उल्लास से भर उठे, शरीर में पुलकन होने लगे तथा मन में शान्ति सी व्याप्त हो जाये तो समझ लेना कि तुमने कोई भला कर्म किया है। अन्तरात्मा की ध्वनि का विश्वास तब तक आपको नहीं करना है जब तक आप स्वार्थ तथा पक्षपात से स्वयं को मुक्त नहीं करते क्योंकि जो कार्य एक मनुष्य अपनी अन्तः प्रेरणा के अनुसार करता है केवल शुद्ध हृदय से ही शुद्ध अन्तप्रेरणा का स्फुटन होगा।
दूसरे मनुष्य को वही कार्य उसकी अन्तः प्रेरणा नहीं करने की आज्ञा प्रदान करती है। अपवित्र हृदय की ध्वनि को अन्तप्रेरणा नहीं मानना है जो मन भोग विलास व दुर्व्यसनों की ओर लिप्त होना चाहता है वह निम्न मन है, वह अपवित्र मन है तथा वासनाओं से ग्रस्त है, विषय में लिप्त है यह तुम्हें सद मार्ग से हटाकर अवनति की ओर अग्रसर करेगा। सात्विक मन ही दैविक बल का भण्डार होता है इसमें मनुष्य दिव्यता की ओर अग्रसर होता है यह गुरु के समान तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा तुम्हें सात्विक आचरण कर मन को पवित्र रखना चाहिये तथा पवित्र मन से ही अन्तः प्रेरणा लेनी चाहिये एवं रजस व तमस को नष्ट कर सत्य को आचरण में लाना चाहिये। तब ही व्यक्ति अपना निर्णय स्वयं कर सकता है, कि वह एक पुण्यात्मा है या दुरात्मा।
इसके लिये यदि किसी ने कभी चोरी न की हो तो वह कहीं चोरी करने की सोचे तो उसकी अन्तरात्मा अवश्य उसे रोकेगी तो वह उस कर्म को करने से रूक जायेगा लेकिन जो पहले से ही चोरी करता आया है उसकी अन्तरात्मा की आवाज मर चुकी होती है वह अपनी अन्तरात्मा की आवाज नहीं सुनेगा तथा चोरी करने में नहीं हिचकेगा। पहली बार किसी बुरे कर्म को करते समय किसी सज्जन व्यक्ति के हाथ-पांव कांपने लगते है उसे भारी कष्ट अनुभव होने लगता है लेकिन एक बार यदि बुरे कर्म में लिप्त होकर बार-बार वैसे कर्म करने पर उसकी अन्तरात्मा कुण्ठित हो जाती है तब उसे कोई कष्ट पीड़ा आदि का अनुभव नहीं होता यह आत्मा का अति सूक्ष्म यंत्र है इसकी सूक्ष्मता को बनाये रखने के लिये पुण्य कर्मों को करते रहना ही इसकी चैतन्यता है।
हमें अपनी अन्तरात्मा को सत्य के आचरण, धर्मानुसार व्यवहार तथा पुण्य कार्यों को करके शुद्ध व पावन बनाये रखना चाहिये जिससे वह अधिक परिपक्व होकर हमें सहायता प्रदान करती रहे।
सात्विक भोजन से अन्तरात्मा शुद्ध रहती है। पुण्य कार्यों, दान, उदारता, श्रेष्ठता, ब्रह्मचर्य, तथा अहिंसादि से अन्तरात्मा को सूक्ष्म बनाया जा सकता है।
पुण्यात्मा सदैव प्रसन्न रहा करता है तथा अपराधी सदैव उदास, भयभीत, निस्तेज रहा करता है। पुण्यात्मा इस संसार में निडरता से, प्रसन्नता से विचरता है जब कि अपराधी सदैव दुःखी रहता है।
किसी भी दुष्कर्म का आभास सात्विक मनुष्य को तत्काल हो जाया करता है और वह उसका त्याग कर देता है तथा वह कष्टों, आपदाओं, चिंताओं को नाश कर सुख का भागी बनता है तथा वह निर्मल बनता जाता है।
जिसकी अन्तरात्मा शुद्ध होती है वह सदैव निर्भय होता है एक शुद्ध पावन चित्त में ही, आत्मा में ही ईश्वर का वास होता है।
जिस प्रकार देह की सुन्दरता के लिये आरोग्य अनिवार्य है उसी प्रकार आत्मा के लिये निर्मलता भी अनिवार्य है। नैतिकता तथा ईमानदारी अपनाओं यह परम सुन्दर है मन की पवित्रता बनाये रख कर आन्तरिक सुन्दरता अपनाओं जिससे उस ईश्वर की आवाज को अपनी अन्तरात्मा की आवाज के रूप में हम सुन सकें तथा उस पर चलकर उससे साक्षात्कार कर सकें उससे अपना तार मिला सके तथा उस ध्वनि को सुनकर परमानन्द की प्राप्ति कर सके।
विनीत श्रीमाली
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