प्रेम को दो भाग में बांटा जा सकता है- 1- लोकिक 2- अलौकिक लौकिक प्रेम- लालच, मोह, लोभ, काम, अहंकार युक्त है। अलौकिक प्रेम- यह सदाचार, करूणा, साधना, आराधना, परोपकार की भावना से भरी होता है। कबीर दास ने अपने काव्य में इसी अलौकिक प्रेम का निरूपण किया है।
संत कबीर के समय में ज्ञान और भक्ति साधना ही अधिक प्रचलित थी। कबीर दास जी ने प्रेम की महत्ता का अनुवाद किया है। प्रेम को वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता केवल अनुभूति किया जा सकता है। जिस प्रकार एक गूंगा व्यक्ति चीनी खाते समय मिठास के आनन्द से मुस्कुराता है, परन्तु उस स्वाद को वाणी में व्यक्त नहीं कर सकता।
कबीर का प्रेम निर्गुण राम से है। कोई लौकिक पुरूष या स्त्री से नहीं। यह अलौकिक प्रेम ही है, जिसने कबीर दास को शाश्वत आनन्द प्रदान किया। जिसने अपने शरीर की सुध- बुध खो दिया। लौकिक प्रेम में यह प्राप्त नहीं हो सकता क्यों कि वह क्षणिक और केवल मनोरंजन मात्र के लिये होता है।
कबीर से पूर्व किसी ने भी निर्गुण भक्ति (प्रेम) का अनुवाद नहीं किया था। निर्गुण साधना कठिन है, क्योंकि अलौकिक प्रेम मन और बुद्धि के प्रभाव को तिरोभूत कर देती है, केवल आत्म-तत्व ही उद्भूत रह जाता है। कबीर दास ने अपने सभी कर्मों को भगवदर्पित कर दिया था। उन्होंने मन को सभी ओर से हटाकर अनन्य भाव से भगवान की ही शरण में लगाया था। यही उनकी प्रेम साधना का सबसे बड़ा आधार है।
कबीर दास जानते हैं कि संसार बन्धनों से मुक्त होकर प्रभु के प्रेम में लीन होने पर ही संसार सागर से पार हो सकते हैं।
कबीर के रोम-रोम में राम का प्रेम रमा हुआ है। अपने प्रभु के दर्शन मात्र के सिवा वे मुक्ति की भी आंकाक्षा नहीं रखते।
कबीर दास ने प्रेम-साधना को अपनाकर साधना मार्ग में एक सर्वथा नवीन प्रयोग किया था। क्योंकि लोगों के दृष्टि में ज्ञान और प्रेम एक साथ नहीं हो सकते। कबीर दास की दृष्टि से प्रेम को प्राप्त करना दुर्लभ है। प्रेम किसी खेत में या बाजार में नहीं मिलता। अपनी रूचि के अनुसार त्याग, बलिदान, तप, सहिष्णुता और सदाचार का पालन करने से ही प्राप्त होगा।
कबीर के प्रेम में उच्चतम अनन्यता, निष्ठता और समर्पण का भाव भी व्याप्त है। कबीर अपने को राम का कुत्ता कहते हैं, उसका नाम मोती है और उसके गले में राम नाम की रस्सी बंधी है।
वे प्रेम मार्ग पर चलने वाले को पहले ही चेतावनी दे देते हैं कि जो स्वयं अपना घर फूंक कर तमाशा देखना चाहे, वह हमारे साथ चलें।
कबीरा का प्रेम समस्त मानव समुदाय तक व्याप्त दिखाई देता है। इस प्रेम के कारण कबीरदास का मन छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष, पाप, पाखण्ड, असत्य और हिंसा आदि भावों से मुक्त दिखाई देता है। उनका हृदय दयालुता से परिपूर्ण था।
कबीरदास के प्रेम में साधना का समवेत सम्भार ज्ञान, योग सदाचार के साथ विरह-वेदना भी उपलब्ध है। यह दाम्पत्य प्रेम भी है क्यों कि कबीर दास अपनी आत्मा को परमात्मा की पत्नी मानते थे, जिनमें जन्मों-जन्मों का साथ है। आत्मा अपनी प्रियतम से बिछुड़ गई है और उससे पुनः विरह में रोने से ही प्राप्त होगा, हंसी-खुशी रहने से नहीं। परमेश्वर को प्राप्त करने के लिये उसकी प्रेम और विरह में लीन होना चाहिये। परमेश्वर को प्राप्त करने की अभिलाषा अधिक होती थी तो कबीर दास रात भर रोते रहते थे। कबीर जी का मानना था कि राम के विरह में तड़पते हुये प्रेमियों को दिन-रात चैन नहीं मिलती।
कबीर दास ने प्रेम मार्ग की मुश्किलों, विरह और मिलन भावना का निरूपण किया है। तड़पते हुये कबीर को राम दर्शन देते हैं। कबीर और परमेश्वर का मिलन होता है।
उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि कबीर दास की प्रेम भावना में ज्ञान, ध्यान, योग, वैराग्य, दयालुता मुक्ति, परोपकार आदि सभी कुछ आ जाते हैं। यह कबीर दास की समर्थ निर्गुण भक्त की व्यक्तित्व को दर्शाता है।
विद्वानों का यह मानना है कि सूफियों की प्रेम निरूपण का प्रभाव कबीर की प्रेम भावना पर है। सूफियों वाली प्रेम भावना लौकिक से अलौकिक की ओर है और कबीर की प्रेम भावना सीधा आलम्बन, निर्गुण राम से है। अतः हम कह सकते हैं कि कबीर की प्रेम भावना में मोहादि का वेश नहीं है। कबीर प्रेम, अलौकिक, विशद, कुत्सित प्रभावों से मुक्त शुद्ध स्फटिक की भांति हैं। कबीर की आश्रय आत्मा है, जिसे उन्होंने त्याग, तप, वैराग्य आदि के द्वारा मन और बुद्धि के राजसिक, तमस मूलक वमन जनक प्रभावों से मुक्त बना लिया है।
सार स्वरूप में यही कहा जा सकता है कि कबीर दास की प्रेम भावना मानवीय तत्वों पर आधारित है। प्रेम का पवित्र और शीतल अमर स्त्रोत प्रवाहित होता दिखाई देता है। जिसमें स्नान होकर कबीर आत्म रूप को प्राप्त करके परमेश्वर में लिप्त हो जाते हैं।
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