वास्तव में पूरी प्रकृति को समेट कर जो साकार रूप दिया जाता है उसे अप्सरा कहते हैं, और यदि उस प्रकृति पर रूप का झरना बहने लग जाये तो उसे रूपोज्ज्वला अप्सरा कहते हैं। अप्सरा शब्द सुनते ही हम कल्पनाओं के लोक में विचरण करने लगते हैं, हमारे मानस-पटल में विभिन्न प्रकार के विचार उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं, जो हमें यह सोचने पर विवश कर देते हैं, कि कैसा होता होगा वह अप्रतिम सौन्दर्य?
शायद ऐसा, कि जिसे देखकर व्यक्ति ठगा-सा रह जाये— अद्भुत व आश्चर्यजनक सौन्दर्य! या फिर ऐसा, जिसे देखकर दिल धड़कना बंद कर दे, और सीने में सांसे अटकी रह जायें—ऐसा अनूठा सौन्दर्य! साथ ही ऐसे अद्वितीय सौन्दर्य को पा लेने की इच्छा! व आत्मसात कर लेने तथा अपने में समेट लेने की इच्छा की हम कल्पना करने लगते हैं, उस अद्वितीय सौन्दर्य की, उस सौन्दर्य की, जिसे देखने के लिये हमारी आंखें हर पल, हर क्षण लालायित रहती हैं, जिस विचित्र और अचरज भरे सौन्दर्य का साक्षात्कार हमारे देवताओं ने भी किया। ऋषियों ने उस नारी सौन्दर्य को अपनी कल्पना-शक्ति और उनके अन्तर्मन से प्रस्फुटित आनन्द, सौन्दर्य के उद्वेग से आपूरित होकर अपने मन की अभिव्यक्ति को अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत किया है, जिसके आधार पर साधारण मानव केवल यह कल्पना कर सकता है—ऐसा होता होगा वह सौन्दर्य, जिसे देख हमारे पूर्वज, ऋषि देवता और कवि भी मंत्र मुग्ध हो गये और अप्रतिम चेतनाओं से युक्त हुये।
किसने गढ़ा होगा यह सौन्दर्य, किन क्षणों में—और कैसे? कौन होगा वह शिल्पकार, और कैसे वह संयत रह गया होगा, इतनी मादकता को एक ही देह में भरते हुये, उसमें प्राण डालते हुये—ऐसा सौन्दर्य तो केवल कवियों की पंक्तियों में या फिर शिल्पकारों के हाथों में छिपे जादू से ही गढ़ा जा सकता है। और ऐसे ही रूप से लदा सौन्दर्य है, उस रूपोज्ज्वला अप्सरा का जिसके एक-एक अंग-प्रत्यंग को इसी प्रकार गढ़ा गया है, जो ऐसे ही रूप, सौन्दर्य का खजाना है, जिसकी तुलना अन्य अप्सराओं से भी नहीं की जा सकती, जो अप्सरायें, पूर्णरूप से सौन्दर्य का आधार मानी गई हैं।
बिना सौन्दर्य के तो नारी-शरीर की कल्पना ही नहीं की जा सकती, या यूं कहें, कि नारी-शरीर के बिना सौन्दर्य कहीं खिल ही नहीं सकता, —यों तो मनुष्य की प्रकृति सौन्दर्य प्रधान होती है और सौन्दर्य जहां खिल उठता है, वह आकर्षण का ही भाव होता है।
भारतीय शास्त्रों में सौन्दर्य को जीवन का उल्लास और उत्साह माना गया है, यदि जीवन में सौन्दर्य नहीं है, तो वह जीवन नीरस और बेजान सा है। इसका कारण यह है कि हम सौन्दर्य की परिभाषा ही भूल चुके हैं, हम अपने जीवन में हंसना, मुस्कराना ही भूल चुके हैं। हम धन के पीछे भागते हुये एक प्रकार से अर्थ-लोभी बन गये और धन रूपी अर्थ को पूर्णता से प्राप्त भी नहीं कर पाये, साथ ही जिसकी वजह से जीवन की अन्य वृत्तियां लुप्त सी हो गई हैं। ठीक इसी के विपरीत जैसा कि मैंने कहा, कि यदि हम अपने शास्त्रों को टटोल कर देखें तो हमारे पूर्वजों ने, ऋषियों और देवताओं ने सौन्दर्य को अपने जीवन में एक विशिष्ट स्थान दिया और अप्सराओं की साधनायें सम्पन्न कीं, जिनके द्वारा वे सौन्दर्यमय, तेजस्विता पूर्ण, सम्पन्न बन सके, अपने जीवन की उन न्यूनताओं को समाप्त कर सके, जिनके बिना उनका व्यक्तित्व अधूरा सा प्रतीत होता था। उन अप्सराओं को सिद्ध करने के पीछे उन पूर्वजों का चिंतन यही था कि वे इनके माध्यम से जीवन में ऐश्वर्य, धन-धान्य पूर्ण सौन्दर्य आदि प्राप्त कर, विशिष्ट प्रतिमान को समाज के सामने रखें, जिस सौन्दर्य का अर्थ ही पूर्णता व श्रेष्ठता देना है।
अप्सरा और सौन्दर्य दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं और किसी भी अप्सरा के बारे में जानने के लिये हमें सबसे पहले उसके अपूर्व सौन्दर्य को समझना आवश्यक है। अप्सरा का जो भी अर्थ लगाया जाता हो, भले ही उसको लेकर छिछला और कामुक चिन्तन किया जाता हो, परन्तु यह अपने-आप में एक सत्य है कि नारी के साहचर्य के बिना कोई भी कला या कोई भी कलात्मक शैली अपूर्ण ही है चाहे वह नृत्य की बात हो या गायन की, या फिर मधुर वार्तालाप की। सभी देवताओं व ऋषियों जैसे-वशिष्ठ, विश्वामित्र, इन्द्र आदि ने इस सौन्दर्य को अपने जीवन में महत्व दिया, एक महत्वपूर्ण स्थान दिया, जिसने साधारण मानव को भी उर्वशी, मेनका, रम्भा आदि के साधनात्मक चिंतन को स्पष्ट कर उन्हें पूर्णता का मार्ग दिखलाया, जो जीवन में रस और सौन्दर्य भर दे, जिससे जीवन सफल, श्रेष्ठ और अद्वितीय बनता है, क्योंकि नारी के बिना सांसारिक जीवन अधूरा है। इसी सौन्दर्य का प्रतिबिम्ब हमारे सामने प्रस्तुत हुआ है रूपोज्ज्वला अप्सरा के माध्यम से जिसमें केवल लुभा लेने के लिये एक अदा ही नहीं है, अपितु पूर्ण सौन्दर्य का लबालब भरा भाव है, जिसे मात्र देखकर ही कोई व्यक्ति स्तब्ध और मंत्र-मुग्ध हो जाये और व्यक्ति ही नहीं देवता भी जिसके सौन्दर्य को देखकर मंत्र-मोहिनी युक्त हो जायें।
इस सौन्दर्य को देखकर कौन नहीं अपने-आप को भुला बैठेगा? रूप, रंग, यौवन और मादकता की तो कई झलकियां देखी होगी आपने अपने जीवन में, लेकिन जो सौन्दर्य आंखों से लेकर दिल तक एक अक्स बनकर उतर जाये, उसी का नाम है रूपोज्ज्वला अप्सरा——-!!
रूपोज्ज्वला अप्सरा जैसा इसका नाम है, वैसा इसका सौन्दर्य भी है, जो एक निर्झर झरने की तरह एक अबोध गति से बह रहा हो। व्यक्ति को या देवता को पहली ही बार में चेतना युक्त कर देने वाला सौन्दर्य, जो केवल और केवल मात्र रूपोज्ज्वला अप्सरा में ही है। रूपोज्ज्वला अप्सरा तो सम्पूर्ण यौवन को शरीर में उतार देने की स्वामिनी है। सुन्दर, पतला, छरहरा शरीर, मानो पुष्प की पंखुडि़यों को एकत्र करके बनाया गया हो, जिन गुलाब की कोमल व नरम पंखुडि़यों पर अभी तक ओस की एक बूंद भी ढलकी न हो, जैसे उन्हें कोमलता से बांधकर एक नारी का स्वरूप तैयार कर दिया गया हो, और उसमें से सुगंध प्रवाहित होकर सारे शरीर से होती हुई असमय बूढ़े पड़ गये मन में जवानी के भीगे-भीगे दिनों की पुनः याद दिला जाये। सौन्दर्य के समुद्र से उत्पन्न वह श्रेष्ठ रत्न, जिसके समान दूसरा कोई रत्न उत्पन्न ही नहीं हो सका और यह सच ही तो है, ऐसे रत्न क्या बार-बार गढ़े जाते हैं— नहीं, यह तो कभी-कभी प्रकृति के खजाने से अनायास प्राप्त हो जाने वाली साधनात्मक क्रिया है और प्रकृति के इस खजाने से पूर्ण सौन्दर्य केवल रूपोज्ज्वला अप्सरा का ही है।
रूपोज्ज्वला अप्सरा-साधना को सिद्ध करने के पीछे कोई उसका अंग-प्रत्यंग या शारीरिक कामोत्तेजक चिंतन नहीं है वरन् ऐसा ही पूर्ण सौन्दर्य, रस खुशबू उस साधक के जीवन में भी समाहित हो सके, जो उसके भीतर उसके मलिन कृश्काय विचारों को नूतन श्रेष्ठमय भावों में बदल कर उमंग, जोश और उत्साह पूर्ण सौन्दर्य का समावेश कर दे, जिसके माध्यम से उसे जीवन में धन-धान्य, ऐश्वर्य, सुख-सम्पत्ति, वैभव, यश, श्रेष्ठता व पूर्णता प्राप्त हो सके।
इस साधना से व्यक्ति के अन्दर स्वतः ही काया-कल्प की प्रक्रिया आरम्भ होने लगती है। इस रूपोज्ज्वला अप्सरा साधना को सिद्ध करना किसी भी दृष्टि से अमान्य नहीं है। इस साधना को सिद्ध करने पर व्यक्ति निश्चिंत और प्रसन्नचित्त बना रहता है, उसे अपने जीवन में मानसिक तनाव व्याप्त नहीं होता, इस रूपोज्ज्वला साधना के माध्यम से जीवन में रूग्णता समाप्त होती है व उत्साह, उमंग का संचार होता है, उसकी मनोकामनाओं की पूर्ति में वह सहायक होती है, साथ ही एक सहायिका के रूप में हमेशा मार्गदर्शन करती है। रूप चतुर्दशी महत्व कार्तिक मास व दीपावली महापर्व पर रूप चतुर्दशी का दिव्य दिवस सौन्दर्य शक्ति का चैतन्य दिवस है, इस दिवस पर सौन्दर्य, आकर्षण, सम्मोहन की साधना करना ही श्रेयष्कर होता है। कोई भी साधक-साधिका जो सम्मोहन, आकर्षण, सौन्दर्य की पूर्णता से युक्त होने की इच्छा रखते हों, वे इस को साधना सम्पन्न कर अपने जीवन को रूप, सौन्दर्य, सम्मोहन, आकर्षण से युक्त कर सकेगें, साथ ही इस साधना द्वारा व्यक्तित्व में विशिष्ट प्रखरता आती है, जिससे साधक के आत्मविश्वास में वृद्धि से वह अपने लक्ष्य की ओर सरलता से अग्रसर हो पाता है।
इस साधना को रूप चतुदर्शी की सांध्य बेला से मध्य रात्रि के बीच सम्पन्न करें। साधक-साधिका को चाहिये कि वह अत्यंत ही सुन्दर, सुसज्जित वस्त्र पहन कर साधना-स्थल पर बैठ जाये, इसमें किसी भी प्रकार के वस्त्रों को धारण किया जा सकता है, जो सुन्दर और आकर्षक लगें।
इस साधना में आसन, दिशा आदि का इतना महत्व नहीं है, जितना कि व्यक्ति के उत्साह, उमंग, सुमधुर और कामनाओं से भरे मन का है। अपने सामने किसी पात्र में मंत्र सिद्ध, प्राण-प्रतिष्ठा युक्त सम्मोहन, आकर्षण प्रदायक अप्सरा यंत्र स्थापित कर दें, यंत्र के ऊपर सौन्दर्य शक्ति रूपोज्ज्वला गुटिका स्थापित कर सभी का पंचोपचार पूजन सम्पन्न करें, फिर तेल का दीपक यंत्र के सामने जला दें, जो सम्पूर्ण साधना काल में जलता रहे। पूजा में साधक वस्त्रें पर इत्र छिड़क कर बैठें, जिससे सारा वातावरण सुगन्धित हो सके, इसके पश्चात् वह मंत्र जप आरम्भ कर दें।
इस मंत्र का 11 माला जप करना होता है। यह मंत्र-जाप सौन्दर्य शक्ति माला से सम्पन्न किया जाता है।
यह साधना सौन्दर्य, सम्मोहन, आकर्षण की पूर्ण अभिव्यक्ति है, यदि व्यक्ति को अपने जीवन में वह सभी कुछ पाना है, जिसे श्रेष्ठता कहते हैं, दिव्यता कहते हैं, सम्पूर्णता कहते हैं, तो ऐसा संभव है, रूपोज्ज्वला अप्सरा साधना के माध्यम से। यह साधना अपने मादक, प्रवीण, वरदायक, शक्ति युक्त, अद्भुत, सम्मोहनकारी प्रभाव से सिद्ध साधक को पूर्णता देने में सक्षम है।
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