परशुराम के दादा एक महान ऋषि थे, जिनका नाम ऋषि रूचिका था, जो संत भृगु के पुत्र थे। परशुराम के गुरु भगवान शिव ने उन्हें शस्त्र विद्या में पारंगत किया था। जिसके कारण वे शस्त्र विद्या के अद्वितीय महारथी बने।
परशुराम जी भगवान शिव के परम भक्त व शिव ही इनके गुरु हैं। जन्म के समय इनका नाम राम था, भगवान शिव की घोर तपस्या कर परशुराम जी ने भगवान शिव से परशु प्राप्त किया, इसलिये उनका नाम परशुराम हुआ। अपने गुरु शिव से परशुराम ने युद्ध कलाओं में महारथ प्राप्त की, वे शस्त्र विद्या के महानतम नायक है। परशुराम ने युद्ध कला में कौशलता प्रतिष्ठित की, जिसे हम मार्शल आर्ट कहते हैं। परशुराम का जन्म धरती पर अन्याय करने वालों और अपनी शक्तियों का दुरूपयोग करने वालों का विनाश करने के लिये हुआ। इनका सम्बन्ध द्वापर युग से है। परशुराम का जन्म ऋषि जमदाग्नि व रेणुका के यहाँ हुआ।
उनके परनाना अच्छे शासक थे, उनकी एक पुत्री थी सत्यवती, परन्तु राज्यभार संभालने के लिये कोई पुत्र नहीं था। एक दिन जब रामकुमारी सत्यवती वन में भ्रमण करने गई, वहाँ महर्षि भृगु के पुत्र ऋचिका ने उन्हें देखा और मन ही मन उस राजकुमारी से विवाह करने का निर्णय ले लिया। ऋचिका स्वयं अपना विवाह प्रस्ताव लेकर राजा के पास गये। राजा प्रसन्न हुये, और रूचिका से एक हजार घोड़े दहेज के रूप में देने को कहा क्योंकि उनके यहाँ यही प्रथा वर्षों से चली आ रही थी, ऋचिका भी समर्थ महान ऋषि थे, उनके लिये एक हजार घोड़े का प्रबंध करना कोई कठिन कार्य नहीं था। वे भी इसके लिये सहर्ष मान गये। ऋचिका ने राजा को हजार घोड़े दिये व सत्यवती से विवाह किया।
एक दिन महर्षि भृगु अपने पुत्र व पुत्र वधु से मिलने के लिये आये। उन दोनों ने भृगु की समर्पण-भाव से सेवा की। भृगु अपने पुत्र व पुत्र-वधु से अत्यन्त प्रसन्न हुये व सत्यवती को वरदान देने की इच्छा व्यक्त की, सत्यवती ने अपने लिये पुत्र व भाई (क्योंकि उसके पिता के राज्य को संभालने के लिये कोई योग्य शासक नहीं था) प्रदान करने की आशा व्यक्त की। भृगु ने उसे आशीर्वाद दिया व दो घड़े दिये जिसमें दुग्ध व पवित्र चावल थे, एक सत्यवती के लिये और एक उसकी माँ के लिये। भृगु के प्रस्थान करने के बाद सत्यवती अपनी माता के पास गई और उन्हें भृगु द्वारा वरदान में प्राप्त घड़े के बारे में बताया, वे दोनों ही अत्यन्त प्रसन्न थी। परन्तु भूलवश सत्यवती ने जो घड़ा उसकी माता के लिये था, उसकी खीर ग्रहण कर ली और उसकी माता ने सत्यवती के घड़े की खीर ग्रहण कर ली। महर्षि भृगु को ध्यान करते समय इस बात का आभास हो गया कि सत्यवती उनके निर्देश को ठीक से स्मरण नहीं रख पाई है। भृगु ने सत्यवती को बताया कि अब उसकी इस भूल के कारण उसकी माता से जो पुत्र उत्पन्न होगा वह क्षत्रिय कुल का होने के बावजूद एक तपस्वी का जीवन व्यतीत करेगा और तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण कुल में जन्म लेने पर भी एक क्षत्रिय योद्धा का जीवन व्यतीत करेगा।
सत्यवती ने अपनी इस भूल की क्षमा माँगी और अपने पुत्र के स्थान पर पौत्र को क्षत्रिय-ब्राह्मण के रूप में जन्म मिले, ऐसी विनती की, भृगु ने ऐसा ही होने का आशीर्वाद दिया। कुछ समय बाद सत्यवती ने पुत्र को जन्म दिया, उनका नाम जमदग्नि रखा गया। जमदग्नि बहुत ही कम उम्र में ही वेद-पुराणों के ज्ञान को ग्रहण कर लिया। उनका विवाह रेणुका से हुआ। उन दिनों धरती पर क्षत्रियों का कुशासन था, धरती के प्राणी उनके पापों से त्राहिमान हो रहे थे। सभी में दुष्ट था राजा कर्तवीर्य अर्जुन जिसके हजारों भुजायें थी। उससे परेशान होकर सभी संत भगवान विष्णु से सहायता माँगने गये। भगवान विष्णु ने उन सभी को दुष्ट राजा के अत्याचारों का अंत करने के लिये आश्वस्त किया। विष्णु ने धरती पर जमदग्नि व रेणुका के सबसे छोटे व पाँचवे पुत्र के रूप में अवतार लिया। जमदग्नि ने अपने पुत्र का नाम राम रखा। बचपन से ही राम बलिष्ठ व शक्तिशाली था, इसी के साथ उसे शस्त्र विद्या में भी अत्यन्त रूचि थी, युवावस्था में वे अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा लेकर गंधमादन पर्वत पर भगवान शिव की तपस्या करते हैं। राम की घोर व अटल तपस्या देखकर भगवान शिव उनसे प्रसन्न हो जाते हैं व वरदान माँगने को कहते हैं। राम जिन्हें शस्त्रें व शस्त्र विद्या में रूचि होती है तो वे शक्तिशाली कुल्हाड़ी ‘परशु’ प्रदान करने की अभिलाषा व्यक्त करते हैं, शिव प्रसन्न होकर उन्हें ‘परशु’ प्रदान करते है व संसार में सबसे शक्तिशाली होने का वरदान देते हैं। जिसके कारण उनका नाम परशुराम हुआ। परशुराम प्रसन्न होकर अपने घर की ओर प्रस्थान करते हैं।
एक दिन दुष्ट राजा कर्तवीर्य अर्जुन, ऋषि के आश्रम में आता है, परशुराम की माता रेणुका उनका आदरपूर्ण सत्कार करती हैं, वह राजा को स्वादिष्ट भोज कराती हैं, जिनके यहां भोज कामधेनु की कृपा से तुरंत उपलब्ध हो जाता है। यह देख कर राजा अचंभित होता है, वह रात्रि के समय अपने पुत्रों को कामधेनु को चुरा लाने का आदेश देता है। जमदग्नि को जब यह ज्ञात होता है तो वे कर्तवीर्य अर्जुन को कामधेनु वापस करने का आग्रह करते हैं, परन्तु दुष्ट राजा नहीं मानता। इस घटनाक्रम की सूचना परशुराम को होती है, तब वे अकेले ही राजा के महल में जाकर उसका वध कर देते हैं और कामधेनु को आश्रम ले आते हैं। उस राजा के पुत्र रोष में आकर ऋषि जमदग्नि जब ध्यान कर रहे होते हैं, तब उनका वध कर देते हैं। वे सब जमदग्नि को तीरों से छलनी कर देते हैं। जब परशुराम आश्रम लोटते हैं, वे अपने पिता को मृत पाकर अत्यन्त क्रोधित होते हैं। वे प्रतिज्ञा लेते हैं कि वे धरती पर सभी क्षत्रियों का विनाश कर देंगे। परशुराम सर्वप्रथम कर्तवीर्य अर्जुन के पुत्रों का वध करते हैं।
इसके बाद वे जो भी क्षत्रिय होता उसका वध कर देते हैं, परन्तु राजा का अन्त करने के बाद उसके पुत्र भी उत्पन्न हो जाते हैं। परशुराम धैर्यपूर्वक एक-एक कर सभी क्षत्रियों का अन्त कर देते हैं। इस प्रकार उन्होंने धरती को इक्कीस बार क्षत्रिय विहीन कर दिया। ऐसा करने से शीघ्र ही धरती पर क्षत्रिय जाति का अंत हो गया। शासन के लिये अब क्षत्रिय की आवश्यकता थी, तब धरती माँ सप्त ऋषियों में से एक, ऋषि कश्यप के समक्ष प्रस्तुत हों परशुराम को अपनी प्रतिज्ञा संपूर्ण होने की सूचना देने की प्रार्थना करती है, क्योंकि अब तक धरती पर से सभी दुष्टों का नाश संपूर्ण हो चुका था। ऋषि कश्यप परशुराम के पूर्वज ऋचिका के समक्ष प्रस्तुत हो परशुराम को मनाने की प्रार्थना करते हैं। ऋचिका परशुराम के समक्ष प्रकट हो उन्हें सूचित करते हैं कि उनकी अपने पिता की मृत्यु के समय ली गई प्रतिज्ञा अब समाप्त करने का समय आ गया है। परशुराम ऐसा ही करते हैं। वे एक महान यज्ञ करते हैं, जहाँ वे अपनी सम्पूर्ण संपत्ति ब्राह्मणों में बाँट देते हैं। अंत में भारद्वाज ऋषि के पुत्र द्रोण को वे अपने शस्त्र व उन्हें काम में लेने की विद्या दे देते हैं। द्रोण पुरूषों में व शस्त्र विज्ञान में श्रेष्ठ बन जाते हैं। सभी कुछ दान कर देने के पश्चात् भगवान परशुराम घोर तपस्या करने के लिये महेंद्र पर्वत पर प्रस्थान कर देते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि भगवान परशुराम वर्तमान समय में भी महेन्द्र गिरी पर घोर तपस्या में लीन हैं और वे भगवान विष्णु के दसवें अवतार कल्कि जिसका जन्म कलियुग के अंत में होगा, उनके गुरु हैं। कल्की पुराण में ऐसा कहा गया है कि भगवान परशुराम कल्कि के गुरु के रूप में मार्गदर्शन करेंगे। वे उसे भगवान शिव की तपस्या करना सिखायेंगे व उन्हें शस्त्र कला में निपुण बनायेंगे।
निधि श्रीमाली
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